Krishna Bansal

Drama Tragedy Inspirational

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Krishna Bansal

Drama Tragedy Inspirational

रामू रामे रामड़ा

रामू रामे रामड़ा

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हमारे नाना का परिवार बहुत बड़ा था। खाना बनाने, बर्तन साफ करने, कपड़े धोने, साफ सफाई का काम इतना अधिक था, घर की महिलाएं नहीं निपटा पाती थीं। नौकर रखना उनकी शानोशौकत नहीं थी बल्कि मजबूरी थी। यद्यपि उन दिनों घरेलू सहायक रखने का रिवाज़ कम था परन्तु हमने उनके घर सदैव कोई न कोई नौकर देखा। कोई भी नौकर किसी भी उम्र का, प्राय: दस बारह साल का, किसी भी इलाके का, अनपढ़ या थोड़ा बहुत पढ़ा लिखा, अच्छी जात का रखा जाता, उसी दिन से उसका नाम रामू डाल दिया जाता। 

रामू से एक शर्त तय थी कि कोई भी हो

मौसम हो, गर्मी, सर्दी, बरसात सुबह पांच बजे उठेगा, नहा धोकर तैयार हो जाएगा। तभी किचन में प्रवेश करेगा।

दो चार दिन तो रामू को दिक्कत आती फिर गाड़ी ठीक चल पड़ती।

रामू का दिन, रात के दूध के जूठे बर्तन मांजने से शुरु होता। चूल्हा, अंगीठी व हमाम जलाना, बाज़ार से दूध लाना, सब के जूते पॉलिश करना, नहाने के लिए गर्म पानी भर एक के गुसलखाने में रखना। सारा दिन रामू को आवाज़ें ही पड़ती रहतीं।

किचन का काम यानी  सब्जी व रोटी, परांठा, कुछ मीठा खीर व दलिया नानी या मामी स्वयं बनातीं।

रामू केवल ऊपर का काम करता था। 


मुझे उनके घर रहने का बहुत अवसर मिला। नानी साल में दो तीन बार मथुरा वृन्दावन जाती एक एक महीने के लिए। इस दौरान अगर मामी के महावारी दिन होते तो वह मुझे अपने घर ले जाती ठाकुरों की पूजा के लिए। मैं उन दिनों छोटी थी, मना करने का सवाल ही नहीं था, न ही मुझे कुछ पता था, बस मुझ मामी के साथ भेज दिया जाता।

वैसे भी मुझे उनके घर जाना अच्छा लगता था। उनका स्तर हमारे से कहीं ऊंचा था। खेलने कूदने को साथी बहुत थे। मैं वहीं से स्कूल जाती। 

नानी और मामी का रामू के प्रति व्यवहार का बहुत अन्तर था। नानी जितना उसके साथ सख्ती से पेश आती, मामी उतना ही नर्मी के साथ। मामी उसे खाना भी बहुत प्यार से खिलाती। कभी कभी उसकी मुट्ठी में पैसे पकड़ा देती। रामू मामी के रवैया से बहुत खुश रहता।

एक और बात, जब कभी नानी को क्रोध आता तो सबसे पहले रामू पर निकलता।

एक दिन मैंने नानी से पूछा कि वह हर नौकर का नाम रामू क्यों रख देती हैं जबकि उनका अपना मूल नाम कई बार बहुत अच्छा होता है। वास्तव में हर नाम जो मां बाप का दिया होता है उसी से लगाव होता है। मैंने रिश्तेदारी में, अन्य घरों में भी जो कोई भी नौकर रखते थे, यही रिवाज़ देखा था। उनका जवाब था इस बहाने ईश्वर का नाम लिया जाता है। वैसे तो घर के कामकाज में इतनी व्यस्त रहती हूं, माला फेरने का समय निकाल नहीं पाती

'रामू' 'रामू' पुकारते सारे दिन में एक माला फेरी ही जाती है। मैं उनसे तो यह कहने की हिम्मत नहीं जुटा पाई पर मेरे बाल मन में यह बात गले नहीं उतर रही थी क्योंकि जब उन्हें गुस्सा आता था वह उसे 'रामाड़ा' कहती, कभी 'रामड़ेया मरजाना' कभी 'रामू मोया'। कभी कभार एक आध थप्पड़ भी ठोंक देती थी। 

मैं हैरान होती थी ये शब्द या यह मार भी क्या माला के मनकों में गिनी जाएगी।




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