भूली बिसरीं यादे संस्मरण- 6
भूली बिसरीं यादे संस्मरण- 6
एक और स्मृति, मेरी मां की सहनशीलता की है। चार वर्ष का बच्चा छोटा ही होता है। मैं स्कूल से वापस आ रही थी, शनिवार का दिन था। बारह बजे ही छुट्टी हो गई थी। रास्ते में मुझे बहुत प्रेशर पड़ गया और सारे कपड़े खराब हो गए। अब मन में भय आया, घर जाकर पिटाई होगी, डांट पड़ेगी।
मां घर पर न हुई तो क्या होगा। तरह तरह के कुछ ऐसे ही विचार उभरने लगे। एक विचार यह भी आया कि यहां से मैं कहीं और भाग जाऊं। अभी सोच में ही थी कि सामने से मां आती दिखाई दी। शायद वह सब्ज़ी लेने आई थी। मेरे चेहरे पर चिंता और भय की लकीरों ने उनको सब स्पष्ट कर दिया था। उन्होंने मेरा बस्ता पकड़ा, अपने कंधे पर डाला, वहीं से वापस घर चली आईं, बिना एक शब्द भी बोले। मेरे कपड़े बदलने के उपरान्त उन्होंने मुझे प्यार से दुलारा, पीढ़ी पर बिठाया, कुछ पीने को दिया। मैं पिटाई की इन्तज़ार में थी यहां तो सब शान्ति से निकल गया।
मुझे एहसास हुआ कि मां-बाप दोनों ही जीवन नैया के खवैया होते हैं।
मैं म्युनिसिपल स्कूल में पढ़ती थी। मेरा स्कूल बहुत अच्छा था। अध्यापक अच्छा पढ़ाते थे। फीस न के बराबर थी। मेरी एक सहेली जैन स्कूल में पढ़ती थी। वह उस स्कूल की इतनी प्रशंसा करती थी कि सोच लिया मैंने जैन स्कूल में ही पढ़ना है। घर आकर मैंने झंडे गाड़ दिए कि मैं जैन स्कूल में ही पढ़ूँगी। पिता जी ने एक दो बार समझाने की कोशिश की। वहाँ फीस अधिक है। स्कूल घर से दूर है। नया वातावरण होगा वगैरा-वगैरा पर मैं टस से मस नहीं हुई। उन्हें इस बात का पहले से ही एहसास था मैं जो ठान लेती हूँ कर के ही रहती हूँ।
उन्हें झुकना पड़ा और मुझे जैन स्कूल, रूपा मिस्त्री गली, लुधियाना में दाखिल करवा दिया गया। मैं उस समय पाँच वर्ष की रही होऊँगी और दूसरी श्रेणी में।
बहुत अच्छे से याद है, उस दिन खूब बारिश हो रही थी। मैं और पिता जी एक ही छतरी के नीचे जैसे तैसे स्कूल पहुंचे और हिदायत दी, स्कूल से सीधे घर आना। किसी सहेली के घर नहीं जाना। कोई कुछ खाने को दे तो नहीं लेना। लम्बी लिस्ट थी
'यह करना है, यह नहीं करना है' की।
उसी दिन एक और किस्सा हुआ स्कूल का एडमिशन फॉर्म उर्दू में भरा गया था। जैन स्कूल हिंदी मीडीयम स्कूल था। सभी लेडी टीचरज़ थीं। किसी भी टीचर को उर्दू नहीं आता था। शायद किसी को 'क्याफ' की पहचान रही होगी। कृष्णा उन दिनों लड़कियों का नाम सर्वप्रिय था, हमारी क्लास में ही पांच कृष्णा नाम की लड़कियां थीं। उन्होंने कमलेश की जगह मेरा नाम कृष्णा लिख दिया। स्कूल में उपस्थिति रोल नंबर से होती होगी अब मैं अनुमान लगा सकती हूं क्योंकि कभी मुझे पता ही नहीं चला कि मेरा नाम कब कमलेश से कृष्णा हो गया।
एक दिन मैं अपना टिफिन शायद घर छोड़ आई थी। माँ टिफिन देने स्कूल पहुंची तो क्लास टीचर को कहा कि मुझे यह टिफिन कमलेश को देना है। टीचर ने कहा यहां कोई कमलेश पढ़ती ही नहीं। माँ ने कहा वह सामने बैठी है। टीचर ने कहा है यह तो कृष्णा है। बात पिता जी को बताई गई। उन्होंने कोई प्रतिक्रिया नहीं की। क्या फर्क पड़ता है, कहकर बात खत्म हो गई। आधुनिक मां-बाप की तरह हमारे समय के माता पिता बच्चों के मामले में ज़्यादा नोंक झोंक नहीं करते थे। गीता का ज्ञान 'जो हो रहा है, सब ठीक हो रहा है' सिर चढ़ कर बोलता था।
इस तरह मैं स्कूल, कॉलेज, जॉब सब में मैं कृष्णा बन गई और घर, परिवार व रिश्तेदारों के लिए कमलेश ही रह गई।
दो नामों को लेकर बहुत बार जो घटनाएं हुई जिनमें से एक दो आपके साथ शेयर करना चाहती हूं। शादी के बाद पहले करवा चौथ के अवसर पर मायके व ससुराल दोनों जगह से मनीआर्डर से पैसे आए। आज की तरह तब गुगल पेमेंट नहीं होता था। पेमेंट का एक ही तरीका था मनीआर्डर। मुझे याद पड़ता है एक ही दिन डाकिया पैसे देने आ गया। मैंने उसे बहुत समझाने की कोशिश की कि यह दोनों मेरे ही नाम है। वह मानने को तैयार नहीं था। 'युधिष्ठिर' को ताक पर रखकर मैंने झूठ बोला कि शादी के बाद मेरा नाम बदला गया है। वह रुपये देने को तैयार हो गया। एक शर्त पर, एक जगह मैं कृष्णा लिखूंगी और दूसरी जगह कमलेश नाम के दस्तखत करूंगी।
मेरी पहली पुस्तक 'सम्पूर्णता की ओर एक कदम' मेरे देवर की प्रिटिंग प्रेस से पब्लिश हुई है। उन्होंने मेरा नाम मुझ से पूछे बिना ही लेखिका का नाम कमलेश लिख दिया। कुछ कानूनी दिक्कतों के कारण उसे बाद में बदलवाना पड़ा।