Krishna Bansal

Drama Inspirational

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Krishna Bansal

Drama Inspirational

भूली बिसरीं यादें, संस्मरण- 7

भूली बिसरीं यादें, संस्मरण- 7

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 माँ के साथ हम भाई बहनों का रिश्ता अन्नपूर्णा का था। मां घर के कामों में खूब दक्ष थीं और स्वयं ही सभी काम कर लेती थी। हमें कहा जाता था 'पढ़ लो, जिंदगी बन जाएगी'। यह वाक्य 'पढ़ लो, जिंदगी बन जाएगी' सैकड़ों नहीं हजारों बार सुना होगा। वह कहती थीं घर के काम की चिंता मत करो, मैं सब संभाल लूंगी। उन दिनों बड़े बड़े अमीर घरों में भी नौकर, नौकरानी रखने का रिवाज़ नहीं के बराबर था। घर की लेडीज़ ही सारे काम कर लेती थीं। हम तो मध्यवर्गीय ठहरे। हमारे घरों में तो यह सुविधा कहां होनी थीं।

हम से विशेष काम नहीं करवाया जाता था, केवल रात्रि भोजन उपरांत चारों बहनें मिलकर बर्तन साफ करने का काम कर देते थे। केवल पन्द्रह मिनट लगते थे। एक बर्तन को राख रगड़ती, दूसरी धोती, तीसरी बर्तन करीने से रखती और चौथी उस जगह को साफ कर देती।

मां के साथ हमारा भावात्मक और गहरा रिश्ता था। वो बहुत ही प्यार से हम सब को खाना खिलाती। हमें ही नहीं, सभी रिश्तेदारों की, हमारी सखी सहेलियों की बहुत आवभगत करती। उनके व्यक्तित्व में प्यार झलकता था। उनके हृदय रूपी चश्मे में स्नेह और प्रेम का झरना बहता था। माँ के साथ प्यार भरा रिश्ता था ही पर कोई सलाह मशवरा, गम्भीर बात या फिर पढ़ाई की बात केवल पिता जी से ही हो पाती थी। पढ़े लिखे तो पिताजी भी अधिक नहीं थे। केवल मिडिल पास थे। जब मैं छटी कक्षा में थी। उन्होंने उसी मास्टर जी से इंग्लिश सीखना शुरु किया जिससे मैं ट्यूशन पढ़ने जाती थी। मेरा पिता जी के साथ काफी करीबी रिश्ता था। मैंने एक दिन उनसे पूछा आपको इंग्लिश सीखने की आवश्यकता क्यों पड़ी। उन्होंने बताया कि जब वे सेल टैक्स डिपार्टमेंट या फिर इन्कम टैक्स आफिस जाते हैं वहां आफिसर लोग इंग्लिश में बात करते हैं, मुझे समझ नहीं आता। सरकारी नोटिस भी अधिकतर अंग्रेजी में ही होते हैं, उन्हें समझना भी मुश्किल हो जाता है। उनका उर्दू बहुत अच्छा था। हिंदी में महारत थी और अब अंग्रेजी भी काफी अच्छी सीख ली थी।       

उनकी एक और विशेषता थी प्रतिदिन अखबार का एक-एक शब्द पढ़ डालते थे और दुकान से वापस आकर खाना खाने के उपरांत हम सब भाई बहनों को अपने पास बुलाते और अखबार की सभी राजनैतिक व सामाजिक, कुछ मज़ेदार, कुछ बोरिंग खबरें अवश्य सुनाते। मिठाई, नित नईं मिठाई, गुलाब जामुन, रसगुल्ला,बर्फी,घेवर इत्यादी,का डिब्बा लाते, हम सब को देते। यह उन दिनों की बात है जब फ्रूटस खाने को तरजीह नहीं दी जाती थी, न ही फ्रूटस के गुणों की जानकारी थी। हम सब को दो दो पीस बांट कर अगर मिठाई बच जाती तो वो भी बांटकर खत्म कर दी जाती क्योंकि उन दिनों फ्रिज होते नहीं थे। सुबह तक सब चीज़ खराब हो जाती थी।

        मुझे याद पड़ता है, एक दिन मैं साइकिल पर कॉलेज जा रही थी। अभी घर से निकली ही थी कि मेरे पीछे तीन चार लड़के हो लिए। मैंने ध्यान नहीं दिया मैं आगे बढ़ती रही। मेरे पीछे पिताजी भी साइकिल पर निकले दुकान जाने के लिए। लड़कों ने कुछ फब्तियां कसी। मैंने नहीं सुनी, सुनी भी होती तो मैंने उनको नज़रअन्दाज़ करना था, यह मेरी आदत में शुमार था। कोई एक बार कहेगा, दो बार कहेगा फिर स्वयंमेव चुप हो जाएगा। उन दिनों इतनी उच्छृंखलता थी भी नहीं। छोटी मोटी छेड़खानी ही चलती थी। नैतिकता का पाठ विद्यालयों में या फिर माता पिता द्वारा नियमित रुप से पढ़ाया जाता था जो कि आधुनिक समय में गायब हो गया है। बलात्कार कम होते थे, होते भी होंगे तो रिपोर्ट नहीं होते थे। पिताजी सब सुन रहे थे। उन्होंने लड़कों से कुछ नहीं कहा पर अपनी साइकिल उनके पीछे लगा रखी, जब तक मैं कॉलेज की सड़क नहीं मुड़ गई और लड़के दूसरी दिशा में नहीं चले गए। रात को जब वे दुकान से लौटे, खाना खाने के उपरांत हम सब भाई बहन उनके पास इकट्ठे हुए कुछ नई ताज़ी खबरें सुनने के लिए और मिठाई खाने के लिए। सबसे पहले उन्होंने मुझे कहा जब तुम सुबह कॉलेज जा रही थी, रास्ते में कुछ कुत्ते तुझे भौंक रहे थे। कुत्ते? मैंने कहा, मैंने तो सुना नहीं, कहां थे वो। 'वह लगातार तुम्हारा पीछा कर रहे थे।' उनका इशारा लड़कों की ओर था और मुझे कहा कि तुम्हारा रवैया बिल्कुल ठीक है। कोई कुछ भी बकवास करता रहे, ध्यान ही मत दो।

हम बहनों को विशेष तौर पर मुझे इतनी आज़ादी थी, कई बार मैं ज़माने को देखते हुए सोचती हूं अगर मेरी बेटी होती तो मैं शायद उसे इतनी आज़ादी न दे पाती। कॉलेज ऑडिटोरियम से रात को दस बजे भी पिक्चर देख कर आएं तो कोई कुछ नहीं कहता था। वैसे हमारे ऊपर निगाह रखी जाती थी। महावारी अगर चार दिन देर से आए तो प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से पूछा जाता था। 

      कहीं भी जाने आने पर कोई पाबन्दी नहीं थी। हां, अगर शहर में कोई वारदात हो जाती, लड़का लड़की भाग जाते या फिर कोई कुवांरी लड़की गर्भवती हो जाती तो हम सब पर भी शिंकजा कस दिया जाता।

 जैसे ही मैंने मैट्रिक पास की, एक दिन मेरे नाना जी घर आए मेरी तरफ देखकर बोले बड़ी हो गई है इसकी शादी कर देनी चाहिए। मेरे पास एक अच्छा रिश्ता है। उन दिनों इसी उम्र में बहुत सी लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। मैंने अपने कमरे में जाकर रोना शुरू कर दिया। थोड़ी देर बाद पिताजी मेरे पास आए। बोले, पागल है क्या, मैंने थोड़े ही कहा है वह तो तेरे नाना जी कह रहे थे। मैं तो तुम सब को पढ़ाऊँगा जब तक तुम सभी अपने पाँव पर खड़ी नहीं हो जाती। जब तक अपनी आजीविका कमाने के काबिल नहीं हो जाती। मैं खूब पढ़ना चाहता था, अवसर नहीं मिला, तुम सबको पढ़ा कर अपनी इच्छा पूर्ण करूंगा।


उनका मानना था 

सुशिक्षित लड़की 

आर्थिक रूप से आज़ाद होगी सुशिक्षित लड़की 

दोनों परिवारों का गहना बनेगी बच्चों की परवरिश 

बढ़िया ढंग से करेगी 

नया समाज निर्मित करेगी

(मेरी स्वरचित कविता का एक अंश)

 इस घटना से यह बात तो स्पष्ट हो गई थी कि जब तक हम चाहें, पढ़ सकते हैं। एक और बात यह पता चली वह यह कि घर में आर्थिक संकट के कारण मिडिल क्लास से आगे नहीं पढ़ पाए थे। मिडल पास करने के उपरान्त मुनीमी का कोर्स 

कर तेरह वर्ष की उम्र में ही किसी दुकान पर एकाऊंटस का काम करने लग गए थे। बाद में अपनी मेहनत और लगन से उन्होंने वह सब मुकाम हासिल किया जिसका हर व्यक्ति सपना देखता है। 

मेरे मानस पटल पर उनके एक आदर्श पिता होने की छवि है।एम0ए0 करते-करते मैं बहुत घबरा गई थी। यद्यपि मेरा नाम मेधावी तथा मेहनती विद्यार्थियों में आता था। बी0ए0 के सिलेबस से कहीं ऊँचा स्तर होने के कारण अध्यापक लोग जो पढ़ाते थे समझ नहीं आता था। विमेन कॉलेज से बॉयज़ कॉलेज में गए थे वो भी अलग किस्म का असर पड़ा था। पढ़ाई कहीं पीछे छूट गई थी। सहपाठी यह भी कहते थे कि पोस्ट ग्रेजुएशन दो वर्ष में कर ही नहीं पाते, एक वर्ष अतिरिक्त लगाना ही पड़ता है। मैंने जनवरी माह में घर में घोषणा कर दी, इस वर्ष में एग्जाम नहीं दूंगी। घर में तो जैसे तूफान आ गया। एक वर्ष व्यर्थ क्यों गंवाना। लड़की का मामला है उमर बड़ी हो जाएगी। जितने मार्क्स आऐंगे, चलेगा, फेल हो गए तो भी चलेगा, इम्तिहान में बैठना जरूरी है। मेरी एक नहीं चली और निश्चय यह हुआ कि मैं परीक्षा में बैठूंगी, जो होगा देखा जाएगा। अब सब लोग एक्शन में आ गए। मेरा विशेष ध्यान रखा जाने लगा। बढ़िया और स्पेशल खुराक दी जाने लगी। मां मेरे एक प्रोफेसर के घर जाकर बातचीत करके आई और उन्हें मेरे को थोड़ा अलग से पढ़ाने के लिए विनती की। प्रोफेसर भगत सिंह जिनकी मैं तहे दिल से इज्ज़त करती हूं, सम्मान करती हूं, मेरी सोच बदलने का सारा श्रेय उन्हीं को जाता है। उन्होंने मुझे बहुत अच्छा गाइड किया। मैंने भी बहुत मेहनत की, तीन महीने बाद परीक्षा में बैठी, अच्छे मार्क्स ले कर पास हो गई। 

         इसी दौरान एक दिन पिताजी ने मुझे समझाने हेतु अपने पास बिठाया। कहा, मैं जानता हूं तुम करियर गर्ल बनना चाहती हो, मैंने हामी भर दी। अब तू मेरी बात सुन ध्यान से। साधु आयुप्रयन्त तपस्या करता है फिर भी यकीन से नहीं कह सकता कि उसे ईश्वर मिलेंगे या नही। तेरी दो साल की तपस्या तुझे मनचाहा करियर देगी। मेरी दुआ तेरे साथ है। उस दिन के बाद मेरे दिल में पिता जी के लिए और इज्ज़त बढ़ गई। नमन है ऐसे पिता को। वे हैं हमारे 

प्रकाश स्तम्भ।



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