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Krishna Bansal

Drama Inspirational

3  

Krishna Bansal

Drama Inspirational

भूली बिसरीं यादें संस्मरण-8

भूली बिसरीं यादें संस्मरण-8

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नानी के घर की स्मृतियां 


हमारी नानी का घर लुधियाना में ही था। वे लोग तो पहले से ही वहां रहते थे, हम पार्टीशन के दौरान लुधियाना आकर बस गए थे। नानी के घर अक्सर आना जाना होता रहता था। विशेष तौर पर जब नानी मथुरा वृंदावन जाती थी। वह कई कई महीने वहां रहकर आती थी तो बड़ी मामी मुझे ठाकुरों की पूजा करने हेतु हर महीने तीन-चार दिन के लिए अपने घर ले जाती थी। बहुत बाद में समझ आया कि यह उसके महावारी के दिन होते थे। मैं स्कूल उन्हीं के घर से जाती थी। स्कूल जाने से पूर्व ठाकुरों को स्नान कराना, उनकी आरती उतारना, खाना खिलाना, भोग लगाना आदि करके स्कूल जाती थी। संध्या समय फिर आरती उतारती, भोग लगाती, और रात को ठाकुरों को सुला देती थी। तीन-चार दिन ऐसा ही चलता रहता फिर मैं अपने घर लौट आती।

एक दिन, दो रोटी, सब्ज़ी, हलवा थाली में रख मैं ठाकुरों को भोग लगाने गई। मैंने थाली रखी और प्रतिदिन की तरह पर्दा कर दिया। थोड़ी देर बाद मैंने पर्दा हटाया तो देखा एक रोटी गायब थी। मेरा भोलापन, मैं बहुत खुश, ठाकुरों ने मेरे द्वारा चढ़ाया भोजन ग्रहण किया। मन ही मन सन्तोष और अहम् का मिला जुला एहसास हो रहा था। मैं किसी से यह बात साझा नहीं करना चाहती थी। ऐसे महसूस हो रहा था जैसे कुछ विशेष घट गया है। अगले दिन मामी ने मुझे मन्दिर की सफाई करने को कहा तो देखा रोटी के चन्द टुकड़े एक कोने में पड़े थे। मामी ने बताया कि कई बार चूहे खाने का सामान उठा कर भाग जाते हैं। मेरा मन बुझ सा गया। एक दिन पहले ही हमें महर्षि दयानंद सरस्वती के बारे में क्लास में पढ़ाया गया था। दयानंद सरस्वती ने शिव रात्

रि का व्रत रखा हुआ था और मन्दिर में शिवलिंग के पास बैठे ध्यान मग्न थे। आधी रात को एक चूहा आया, शिवलिंग के ऊपर से फल उठा कर भाग गया। उनके मन में विचार उठा कि जो पत्थर का बना शिवलिंग एक चूहे से अपनी रक्षा नहीं कर सकता वह हमारी रक्षा क्या करेगा। कुछ इसी प्रकार के विचार मेरे मन में भी उभरने लगे। उस दिन के बाद मैंने मूर्ति पूजा नहीं की। हमारा परिवार भी बाद में आर्य समाजी बन गया। जैसे प्रायः होता है हमारे घरों में, मिला जुला सा वातावरण रहता है अलग अलग अवसरों पर अलग व्यवहार। हर धर्म को ही थोड़ा थोड़ा मान लेते हैं और मौके के मुताबिक अपने स्वार्थ को प्राथमिकता देते हुए दिशा बदल लेते हैं। 

        मुझे अपनी नानी मामी दोनों के हाथ का खाना मुझे बहुत पसन्द था। वे दोनों खिलाती भी बहुत प्यार से थीं। आचार, चटनी, पापड़, सलाद के बिना उनके यहाँ खाना नहीं खिलाया जाता था। उनके घर में नित नई सब्ज़ी, नित नया फ्रूट आता था परन्तु हमारे यहां पिता जी का बिज़नेस अभी स्थापित हो रहा था। उनकी आर्थिक सीमाएं थीं।

वहां एक और चीज़ देखने को मिलती थी। मेरे छोटे मामा ने यौवन की दहलीज पर कदम रखा था और बहुत ही स्मार्ट व हैंडसम नौजवान था। उस प्रांगण में वे सब लड़कियों और कई बार भाभियों से भी वह खुल कर खेलते थे। 'बैड टच, गुड टच' की उन दिनों कोई धारणा नहीं थी। मैंने कभी किसी लड़की को उनकी शिकायत करते नहीं सुना। आज का समय होता तो जरूर उन पर कोई न कोई केस होता।


बहुत मीठी यादें हैं 

नानी के घर की।



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