भूली बिसरी यादें 10
भूली बिसरी यादें 10
एक शख्सियत, जिनकी यादों से मेरे जीवन के कई पन्ने भरे हुए हैं, उनका नाम है ब्रह्मवादिनी स्वामी कृष्णकांता जिन्हें मैं बचपन से कांता दीदी कहकर पुकारती हूं, मेरे नाना के चचेरे भाई की बेटी हैं, इस रिश्ते से वह मेरी मौसी लगती थीं। वह मेरे से चार वर्ष बड़ी थीं। जब मैं आठवीं क्लास में थी, वह कॉलेज में एफ०ए० के द्वितीय वर्ष में पढ़ती थीं।
सभी परिवार, एक ही आंगन में चारों ओर बने दो दो कमरों के घरों में रहते थे। जैसे-जैसे पिछली पीढ़ी के लोग स्वर्गवासी होते चले गए अगली पीढ़ी को विरासत में घर मिलते गए। हमारे नाना को तो लगभग आधे आंगन के घर मिल गए और आवश्यकतानुसार उन्होंने बदलाव कर बढ़िया बना लिया।
उनकी देसी घी की दुकान भी थी, खूब चलती थी। उन दिनों देसी घी का गुणगान भी बहुत था लोग देसी घी खाना ही पसन्द करते थे। चूंकि लोग परिश्रम खूब करते थे, हज़म भी हो जाता था। इस प्रकार उनकी वित्तीय स्थिति शेष रिश्तेदारों के मुकाबले में बहुत अच्छी थी।
जैसा कि मैंने पहले भी ज़िक्र किया है, नाना के घर मेरा अक्सर चक्कर लगता रहता था। मैं रात के खाने के उपरान्त दीदी के पास पहुंच जाती और उनसे कहती, कोई कहानी, कविता या फिर कोई अच्छी घटना सुनाओ। दीदी भी बड़े प्यार से दो-तीन कथा-कहानी सुनाती, जो उस दिन कॉलेज में घट रहा होता, वह मेरे साथ साझा करतीं। उनका कहानी या फिर कविता सुनाने का अन्दाज़ बहुत अनोखा था। यह कहानियां पंचतंत्र की होती या फिर उनकी सिलेबस की किताबों की। इन नैतिकता से ओत प्रोत कहानियों से, मैंने बहुत कुछ सीखा। जब तक नानी के यहां से ठंडा मीठा दूध पीने के लिए आवाज़ नहीं आ जाती, मैं दीदी के गले में बांह डाल उनकी चारपाई पर लेटी रहती। तब क्या पता था, जितना मैं इन्हें सम्मान देती हूं, जितना मैं इन्हें प्यार करती हूं, वह भी मुझे बहुत प्यार करती थीं, एक दिन विश्व प्रसिद्ध अंतरराष्ट्रीय ब्रह्मर्षि मिशन की अध्यक्ष बनेगी। देश-विदेश में वैदिक संस्कृति फैलाने के लिए परमाराध्य बावरा जी महाराज की अनन्य, निष्ठ, प्रमुख सन्यासी कृपापात्र बन जाएंगी।
मेरी दसवीं क्लास 1958 में हाई फर्स्ट डिवीजन ले कर पूरी हो गई और मैंने कॉलेज में प्रवेश ले लिया। मॉडल टाउन में हमारा नया मकान चुका था। मैं अपनी पढ़ाई में खूब मग्न हो गई और नानी के घर जाना कम हो गया। जब भी मैं
मैं नानी के घर जाती, दीदी के बारे में अवश्य पूछती। अगर वह घर पर होतीं तो उनसे मिलने ज़रूर जाती। इन्हीं दिनों पता चला कि उनके पिता का सिर्फ पैंतालीस वर्ष की छोटी उम्र में देहान्त हो गया है। दीदी उन दिनों बी०ए० में पढ़ती थीं परन्तु उनका रुझान अध्यात्म की ओर था। बहुत सी घटनाएं, जैसे पूर्व निर्धारित होती हैं, लुधियाना में एक महात्मा बावरा जी रामायण का पाठ करने आए और कांता दीदी भी उन्हें सुनने गईं। बावरा जी के प्रवचन से वह इतनी प्रभावित हुईं उस दिन के बाद वह दुगनी लग्न से अध्यात्म यानि अपने लक्ष्य की ओर अग्रसर होने लगी।
उनकी माता को यह चिंता सताने लगी कि दीदी जवान व सुंदर लड़की है, उधर महात्मा जी भी ने भी जवानी में नया नया पांव रखा है। लोग क्या कहेंगे, रिश्तेदार क्या कहेंगे। माता ने बेटी को समझाने की कोशिश की। दीदी टस से मस नहीं हो रही थी। वह आगे पढ़ना चाहती थीं और शादी करने को बिल्कुल तैयार नहीं थीं। मां का कहना था, बाप सिर पर नहीं है लोग सोचेंगे शायद दहेज के कारण शादी नहीं कर रहे। मां ने कई हथकण्डे अपनाए, दीदी को डराया, धमकाया, यहां तक कि मार पीट भी की और एक दिन पता चला, नवंबर 1960 में एक समृद्ध परिवार देखकर उनकी जबरदस्ती शादी कर दी गई है। जैसे ही मुझे पता चला, कि उनका विवाह हो गया है तो मैं उसी दिन उन्हें मिलने के लिए उनके ससुराल पहुंच गई। दुल्हन के रूप में लाल रंग के जोड़े में वह बहुत सुंदर लग रही थी। पर उदास सी बैठी थीं। उनका चेहरा देख मैंने भांप लिया कि वह शादी से प्रसन्न नहीं है। मेरे कान में वह फुसफुसाईं कि कल वह मायके वापिस चली जाएंगी और लौट कर कभी इस घर में नहीं आएंगी। वह इस सांसारिक पचड़ों में उलझना नहीं चाहती। यह तो मां की इच्छा पूर्ण करने के लिए मैंने उनकी बात मान ली।
अगले दिन सारे शहर में खबर फैल गई कि कान्ता जी अपना ससुराल छोड़ वापिस लौट आईं हैं
रात्रि के समय जब उनके पति ने उनके पास आने का प्रयत्न किया तो वह गरज़ कर बोलीं मेरे पास मत आना। मेरी जबरदस्ती शादी की गई है, मैं शादी नहीं करना चाहती थी, मैं कल यहां से वापस चली जाऊंगी और लौटकर नहीं आऊंगी। लड़के को जैसे उसमें दुर्गा रूप दिखाई दिया। वह तो डर के मारे थर थर कांपता हुआ बाहर भाग गया। सुबह होते ही वह स्वयं अकेली अपने मायके घर पहुंच गई। पूरे घर में कोहराम मच गया। उनकी मां दहाड़ें मार रोने लगीं। खूब झगड़ा हुआ। मां ने आस पड़ोस, रिश्तेदार, समाज, बिरादरी की दुहाई दी। यह भी बताया, छोटी बेटियों की शादियों में अड़चन बनेगी यह घटना।
जिनके इरादे पक्के होते हैं वे कहां सुनते हैं इन छोटी मोटी बातों को।
कान्ता जी बिल्कुल विचलित नहीं हुईं और अनेक किस्म की प्रताड़ना, कष्टों, दुखों व असहनीय पीड़ा को सहते हुए अपने अध्यात्म मार्ग पर आगे बढ़ती गईं।
मैं अगर दीदी की जीवनी लिखना चाहूं तो एक पुस्तक बन जाएगी। कभी अवसर मिला तो यह हो भी सकता है।
वह अपने मिशन के काम से खूब व्यस्त हो गईं, देश विदेश के अनेकों चक्कर लगने लगे, नए-नए आश्रमों की स्थापना होने लगी। वैदिक विद्या के लिए कई स्कूल खोले गए।
मैं भी अपनी पढ़ाई लिखाई पूर्ण कर कॉलेज प्रवक्ता बन गई। शादी, बच्चे, नौकरी, पूरा गृहस्थी जीवन।
रिश्तेदारी में कभी कोई उन्हें रामायण कथा वाचन के लिए उन्हें बुला लेता या रस्म भोग के समय भाषण देने के लिए। मैं भी उन समारोह में कभी-कभार शामिल हो जाती।
सारांश में, सन् 1938 में जन्मी दीदी, आज 2023 में भी 85 वर्ष की उम्र में भी बहुत एक्टिव हैं। उनका मानना है बुढ़ापा तो शरीर का होता है मानसिक रुप से अभी भी मैं चुस्त दुरुस्त हैं। उनके आश्रम की प्रशासनिक इकाई फेसबुक पर भी हैं जिससे उनके आश्रम की गतिविधियों का पता चलता रहता है। उनकी गरिमा, सजगता, विनम्रता, सहनशीलता के बल पर 85 वर्ष की आयु में भी चेहरे पर आभा, तेज, ओजस लिए पूरे विश्व में सनातन धर्म का झंडा लहरा रही हैं और उत्तिष्ठत जाग्रत प्राप्य वरान्निबोधत का संदेश दे रही हैं।
मैं उनके स्वास्थ्य के लिए शुभकामनाएं और लक्ष्य की चरम सीमा पर पहुंचने की कामना करती हूं।
