Dr Jogender Singh(jogi)

Abstract

4.6  

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घयालु और भेली

घयालु और भेली

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थोड़े से बचे खिचड़ी बालों को कंघे से संवारने में जुटे दिलीप को देख कौशल्या से नहीं रहा गया।"ननद जी के घर जा रहे हैं ना " या किसी दूसरे के घर ? गोद में खिलाया है आप को, कितना सज रहें हैं ? और बाल बचे भी है, कौशल्या मुस्कुराई।

सावन में भेली ( गुड़ का बड़ा सा गोल टुकड़ा, लगभग दो किलो ) देने पिछले पच्चीस सालों से मैं ही जा रहा हूँ,पिताजी थे तब भी, मेरी एक शान है सिंहपुर में, अभी भी उस गाँव की औरतें मुझे देखने को लाइन लगाती हैं। दिलीप ने चेक की नीली शर्ट पहनते हुये कौशल्या को देखा।

कौन से जमाने में जी रहें हो आप, गुड़ कौन खाता है अब ? मिठाई दो किलो बड़ा कर ले जाइये। भेली पड़ी रहेगी किसी कोने में ? और देसी घी डिब्बे में ले जाते। यह मिट्टी के बर्तन में दो सौ ग्राम से ज़्यादा तो नहीं आता होगा घी, कम से कम एक किलो ले जाइए डिब्बे में। पर आप को नहीं सुनना तो नहीं सुनना। क्या विपिन यह सब करेगा कभी ? नहीं ना ! तो आप भी आज के जमाने के हिसाब से चलिए।

मिट्टी का बर्तन नहीं, घयालु( घी रखने का छोटा सा बर्तन जिसे लटका कर ले जाते ) कह्तें है। कितनी बार बताया तुम्हें , जब तुम ही नहीं जानोगी तो बच्चों क्या सीखेंगे।एक प्यार छिपा है इस घयालु में, जब बाप या भाई रक्षा बंधन के महीने में अपनी बेटी या बहन के घर जाता तो भेली और घयालु लेकर जाता था। पूरे महीने में कभी भी।पूरा महीना त्यौहार होता था। आज की तरह नहीं दो घंटे में टाटा बाई बाई। दिलीप ने भाषण दिया।

पागलपन था और क्या, पूरे महीने कोई काम नहीं करते थे क्या लोग, कौशल्या ने उसे छेड़ा।

काम, उतनी मेहनत का तो अगर सपना भी देख लेंगे आज के लड़के तो चार दिन सो कर नहीं उठेंगे, बात करती हो। दिलीप चिड़ गया।

रहने दीजिये, कौशल्या ने मानो ठान लिया उस को छेड़ कर ही मानेगी। दिख रहा है मटके जैसा पेट, मेहनत करने वाले का।

एक क्विंटल का बोरा उठा कर रखता था मैं, शहर आ कर नक़ली घी, मिलावट वाला सामान खा कर यह हाल हो गया है, तुम क्या जानो शुद्ध खाने का स्वाद, शहर की हो ना। मानो दिलीप का बस चले तो अभी उसको गाँव ले जाये।

तो क्यों चले आये शहर, अपनी भेली और घयालु लिये, कर लेते शादी किसी कमला / विमला से, क्यों ग्रैजूएट लड़की चाहिये थी ? कौशल्या मानो क़सम खा कर जुटी थी।

तुम्हारे जैसी कोई मिली ही नहीं, दिलीप समझ गया वो चिड़ा रही है।तुम को पहली बार देखा और फ़िदा।सुनो सारा सामान रख दिया ? 

हाँ घयालु भी, कभी बताया नहीं घी इस छोटी सी घयालु में क्यों ले जाते हो।

आज विपिन और शिखा नहीं है,किसी और दिन बताऊँगा वो भी सुन लेंगे।

वो नहीं सुनेंगें, आज थोड़ा वक्त है और मेरा मन भी बतायिये ना।कौशल्या ने मनुहार की।

बाद में हँसी तो नहीं उड़ाओगी ?

कैसी बातें करते हैं आप।

ठीक ! तो सुनो घयालु में घी ले जाना एक परम्परा है, सदियों की,दशकों का गवाह तो मैं ख़ुद हूँ।घयालु का घी सिर्फ़ घी नहीं प्रसाद है। गाय के बछड़ा जनने के बाद जो पहला घी होता था वो घयालु भर कर इष्ट देवता को चड़ाया जाता। उसके बाद ही घर वाले उस गाय के दूध से बना घी खा सकते थे। किसी शादी में जाना मतलब घयालु /मूड़ी ( पोटली भर चावल ) साथ में। बेटी / बहन के घर भी घयालु / मूड़ी ले जाना ज़रूरी था।इसका एक सामाजिक पहलू भी है, मान लो घर पर बनाने के लिये कुछ न हो तो चावल घी गुड़ तो दिया ही जा सकता है। पहले समाज प्रेम के धागे से पिरोया हुआ था। दूसरे की इज़्ज़त बचाने के लिये आदमी क्या कुछ नहीं कर जाता। और आज दूसरे की ईज़्ज़त उछालने में लगा रहता है। यह कुछ खाने का असर भी है, पहले सभी लोग भगवान, गाय को खिलाकर प्रसाद खाते थे,आज मिलावटी ज़हर खा रहें हैं।सुन रही हो ना।

हूँ ! गहरी साँस छोड़ते कौशल्या मानो नींद से जागी।

एक बार कल्याणी बुआ के घर भेली ले कर जाना था। कल्याणी बुआ मेरे दादा की बहन। मुझे और चाचा के लड़के सतपाल को जाने के लिये बोला गया। सतपाल नौ / दस साल का रहा होगा और मैं सत्रह साल का। आख़िरी दिन था उस महीने का, मतलब उस दिन तो जाना ही था कैसे भी। बुआ का गाँव क़रीब पाँच किलोमीटर दूर था, पैदल रास्ता। दादी ने कहा जल्दी चले जाना, अंधेरा हो जायेगा तो दिक़्क़त होगी। पर एक दिन पहले हुई बारिश के कारण ट्रक से उतरी रेत इधर उधर बह गयी थी। पिताजी ने पहले रेत को समेट कर चारों तरफ़ पत्थर लगाने को बोल दिया।

फिर ? कौशल्या ने पूछा।

फिर क्या। पिता जी ने कह दिया तो करना तो पड़ा। रेत समेटते शाम हो गयी, ख़ैर जाना तो था ही, पिता जी के ऊपर ग़ुस्सा आ रहा था। बोलने की हिम्मत तो थी नहीं। दादी ने भेली और घयालु पकड़ा दी बाक़ी सामान के साथ। एक छाता भी दिया, बड़ी डंडी वाला। सतपाल और मैं जब तक निकल पाये,सूरज डूबने वाला था।

अंधेरे में दो बच्चों को भेज दिया बाबूजी ने ? वो भी तो जा सकते थे ? आश्चर्य से बोली कौशल्या।

 पिताजी का ऑर्डर तो ऑर्डर। ख़ैर जितना तेज हो सका हम दोनो चले। लगभग दो किलोमीटर का रास्ता बचा होगा, बारिश शुरू हो गयी, बिजली कड़कने लगी, सतपाल रोने लगा।किसी तरह उसको सम्भाला चुप कराया। हवा इतनी तेज की छाता बार बार उलट जाये।पीठ पर थैला, सतपाल को एक हाथ से पकड़ और दूसरे हाथ में छाता।किसी तरह पूरे भीगे बुआ के घर पन्हुचे।

आख़िरी दिन था, बुआ भी इन्तज़ार कर रही थी, कोई तो आयेगा। वो उम्मीद कर रही थी कि चाचाजी या पिताजी में से कोई आयेगा।हम दोनों को देख रोने लगी,अरे मेरी तीसरी पीड़ी आयी है त्यौहार लेकर। फिर जल्दी जल्दी हम लोगों के कपड़े बदलवाये। दूसरे दिन सुबह धूप निकल आयी थी।

कल्याणी बुआ ने पूरे गाँव में घूम घूम कर बताया मेरे भाई के पोते आयें है त्यौहार लेकर। सुन रही हो ना।

हाँ।। कल्याणी अपनी आँखो को पोंछ कर बोली। आप कभी भी बिना घयालु और भेली लिये न जाना।इस में घी तो थोड़ा ही आता है पर इतना सारा प्यार सिर्फ़ घयालु में ही समा सकता है।

लाओ फिर मैं चलता हूँ। दिलीप उठते हुये बोला।


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