गाँव की एक सुबह
गाँव की एक सुबह
शहर में रहने वाला एक युवक कई वर्षों बाद अपने गाँव आया है। कई वर्षों से वो अपनी गाँव की सुहानी सुबह से वंचित रहा। आज उसे वो अवसर मिला है और उसने अपना अनुभव कुछ इस तरह प्रस्तुत किया है........
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गाँव की एक सुबह
मैं पक्षियों के चहकने के मधुर ध्वनि साथ सुबह जल्दी उठा। जब मैं उठा और बाहर आँगन में आया तो पूर्व दिशा को सुबह की रोशनी में चमकते हुए देख सकता था। बाकी सृष्टि सुबह के अंधेरे में सो रही थी। मुर्गों की चहक, कोयल की मधुर ध्वनि और खेतों से आने वाले मोरों की आवाज़ें सुबह की शांति में और भी खिल रही थी।
सृष्टी ने अपने चारों ओर कोहरे की सफेद चादर ओढ़ ली थी ... जैसे ही कोमल हवा ने अंग को छुआ, मुझे "गुलाबी ठंड" और भी अधिक महसूस हुई। इस ठंड को कई दिनों बाद महसूस किया था मैंने। शहर की भीड़भाड़ और ऊँची ऊँची इमारतों में ये ठंड कही खो सी गई थी।
पेड़ों की पत्तियों पर ओस की बूंदें जमी हुई थी और मैंने देखा वो बूँदे "टप टप" ध्वनि करते हुए जमीन पर गिर रही थी, जिससे एक अलग तरह की खुशी का एहसास हुआ मुझे।
अब जब मैं इतनी भोर में जाग चुका था, तो फिर से बिस्तर पर लुढ़कने के बजाय, मैंने थोड़ा 'मॉर्निंग वॉक' करना ही बेहतर समझा, तो मैंने तुरंत अपनी जैकेट और जूते पहन लिए और सड़क पर चलने लगा। अभी भी अंधेरा था। कई लोगों को 'गुलाबी ठंड' का आनंद लेने के लिए अपने शरीर के चारों ओर गर्म शॉल लपेटते हुए देखा । कई छोटे बच्चों को साइकिल चलाते, दौड़ते, टहलते हुए देखा।
चलते चलते गाँव के चौराहें पे पहुँचा और देखा, बूढ़े चाचा अपनी चाय की दुकान पर खड़े थे। अभी अभी चाय का पानी उबालने रखा था शायद। चाय की मीठी मीठी खुशबू मुझे जैसे अपनी और खींच रही थी। पास ही में एक बड़ा बरगद का पेड़ था। पेड़ के चारों और बैठने के लिए चबूतरे बने हुए थे। गाँव के दो तीन बड़े बूढ़े आकर चबूतरों पर बैठे बैठे चाय की ही राह देख रहे थे। उनमे से कई बातें कर रहे थे और ठंड का आनंद ले रहे थे। नीचे ज़मीन पर बड़े से टोकने में आग जल रही थी। मैंने देखा कुछ बुज़ुर्ग आग के सामने बैठ हाथ तापने में लगे हुए थे। मैं भी थोड़ी देर वही जम गया। चाय की चुस्कियों के साथ गाँव-शहर की खूब बातें चली।
चौराहें से एक राह सीधे खेतों की तरफ जा रही थी। चबूतरे पर बैठें बैठें मैं खेतों को देख पा रहा था। बड़े बूढ़ों से विदा लेकर मैंने खेतों की पगडंडी पर कुछ देर टहलने का सोचा।
दशहरा जा चुका था, अब दिवाली आ रही है, चूंकि यह फसल का वक़्त था, इसलिए यह स्पष्ट था कि चावल की फसल पगडंडी के दोनों ओर चल रही थी। एक विशिष्ट सुगंध अभी भी सुबह के नम वातावरण में महसूस की जा सकती थी।
थोड़ी दूर चलते ही गाँव की नदी नज़र आने लगी। सर्दियों की सुबह में नदी पर वातावरण बहुत अलग होता है। गुलाबी ठंड, कोहरा, पानी से उठती भाप, मछली पकड़ने वाले पक्षी, ठंडे पानी मे तैरने के लिए आने वाले लोग, घूमने के लिए आने वाले लोग,आज उनमे मैं भी शामिल था।
तीन या चार किलोमीटर और चलने के बाद मैंने घर की तरफ जाने का सोचा। अपनी वापसी में कई परिचितों से मुलाक़ात होती रही, दो मिनट खड़े रहके और एक-दूसरे के बारे में पूछताछ कर मैं घर की तरफ बढ़ता रहा। मन मे यहीं सोचता हुआ जा रहा था इस प्यार भरी पूछताछ को 'ग्रामीण अंतरंगता' ही कहा जाना चाहिए जो शहर में कम ही देखने को मिलती है।
क्यों बाबू कैसे हो ..
क्या चल रहा है?? शहर से कब लौटे???
बेटा, शहर में सब ठीक????
इस तरह के कई सवाल लेकिन इसमें खास क्या है ..? कुछ भी नहीं ... फिर भी अपनेपन का सामान्य प्रश्न; प्यार की भावना, अपने आदमी से मिलने की खुशी शहर के आभासी दुनिया के "गुड मॉर्निंग" की तुलना में बहुत शुद्ध है, है ना?
गाँव के रास्ते से लौटते हुए मैं देख और सुन पा रहा था, चारा ले जाते लोग,डेयरी में दूध के डिब्बे ले जाते लोग, दूध के डिब्बे की आवाज़, दूध डालने के लिए आने वाले लोग, और एक दूसरे से बात करके दिन भर के काम की योजना बनाने वाले लोग।
लगभग आठ किलोमीटर चलने के बाद ठंड पहले ही भाग गई थी। जैसे ही मैं पसीने को पोछ घर की ओर बढ़ा, लकड़ी के दरवाजे में फंसे अखबार को देखा,अखबार उठाया और बाहर की सीढ़ियों पर बैठ मैं एक बार फिर से इस आभासी दुनिया के वर्तमान मामलों को पढ़ने में व्यस्त हो गया।
