Megha Rathi

Classics

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एकाकीपन के श्राप

एकाकीपन के श्राप

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नीरव शांत सांध्य बेला में जब नितांत एकांत हो और हृदय एकाकी अनुभव करते हुए गहन सोच में निमग्न हो जाए किंतु विचार भी मस्तिष्क के समीप आकर ओझल होने लगें तब मन स्वत: ही तलाश लेता है कुछ बिंदुओं को... भले ही वे बिंदु क्रमवार न हो...उनका एक दूसरे से कोई जुड़ाव न हो...भिन्न – भिन्न विषय पर आधारित बिंदु मन को व्यस्त तो कर ही देते हैं।

मन रुक जाता है प्रेम के अबोध होने की आवश्यकता पर ... बालमन निष्कपट होता है, बिना कुछ सोचे विचारे केवल वर्तमान में जीता है और प्रेम की भी यही आवश्यकता होती है। प्रेम हृदय के अनंत तल में सहेज कर रखी प्रत्येक भावना को सुनना और छूना चाहता है किंतु भावनाएं अतल गहराई में रत्नों के मध्य हैं जिन्हें यूं ही सतह पर नहीं लाया जा सकता है, सागर में डूबना नहीं अपितु तैरना आना आवश्यक है और जो तैर कर गोता लगा लेगा वही इन भावनाओं को तट तक लाने में सक्षम होगा।

परंतु वयस्क बुद्धि परिणाम आदि का विचार करने में समय लगा देती है किंतु बालमन यह सब विचारता नहीं.. वह तो तो सोचता है तुरत फुरत कर ही देता है और ले आता है मन के सभी भावों को और समर्पित कर देता है प्रेम के अमृत कलश को अपने प्रिय के हाथों में।

प्रेम की नैसर्गिक सुंदरता ही यही है...अबोध होना... समय की चिंता न कर समय के प्रवाह की धारा में बहते जाना।

प्रेम के वास्तविक स्वरूप तक कितने लोग जा पाते हैं... सामान्य जन के लिए प्रेम वही है जो वर्तमान अवस्था में उनके हृदय की गति को आंदोलित कर रहा है तो प्रेम को जानने – समझने के लिए किसी ज्ञानी या दर्शन की क्या आवश्यकता... सिर्फ प्रेम में होना, उसे स्वयं में जीवंत रखना ही प्रेम की सभी परिभाषाओं को समझने में समर्थ कर देता है बस एक भोले बालक की तरह प्रेम को निष्कपट रहने दो।

कितनी ही लालसाएं जन्म लेती हैं... कितनी ही इच्छाएं अतृप्त रह जाती हैं। आसमान के सिंदूरी ललाट पर अपनी उन आकांक्षाओं के चित्र बनाने का प्रयास किया है कभी?... नीले अम्बर के आंचल में टहलते श्वेत– श्याम बादलों में उनको अंकित कर देखने का प्रयास करो, वायु के गति के साथ वे इच्छाएं भी बादलों के साथ विभिन्न रूप और आकार लेती जाती हैं और अंत में वही आकर नैनों पर टिके रह जाते हैं जो सुखकर हैं दृष्टि के लिए।

लालसाएं लालिमा में विलीन हो जाती हैं और इच्छाएं अदृश्य... रह जाता है तो बस एक अलौकिक सा नाता अंतरिक्ष की विभाभरी और मंदाकिनीयों से जिनके साथ अनंत की दूरियां प्रकाश गति से तय करते हुए समय का भान तक नहीं होता कि तभी कोई स्वर पुकार कर पुनः पृथ्वी के धरातल पर खींच लाता है।

पृथ्वी...मनुष्य का सत्य है, आकाश गंगाओं की परिक्रमा सार्थक करने के पश्चात पृथ्वी पर आना कितना सुखद है।

विचारों के असंख्य प्रकाशपुंज इस यात्रा में नजदीक गुजरते गए... हाथ बढ़ा कर सभी को छूना संभव नहीं किंतु सुखकारी है उनको देख पाना भी... प्रेम की ही तरह जिसे पाया नहीं... पर उसकी गहराई में अंतरमन को विलीन कर लेना ही अनुपम है, अलौकिक है, उसकी महक को आत्मसात कर पाना.. सभी हीन विचारों से मुक्ति पाना है.... एकाकीपन के श्राप से मुक्ति भी।


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