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एक शहर....

एक शहर....

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शहर की बाहरी सीमा पर फैला एक और शहर अपनी शाम के इंतजार में सिसक रहा है।
शहरों में शहर और नगरों में नगर इस तरह बसा है ये शहर, जैसे ट्रेन के किसी सामान्यश्रेणी के डिब्बें में लोग भरते और उतरते है।
सड़कों के फैले जाल और उस जाल में उलझा यह शहर जिसे लोग खूबसूरत कहते हैं और खुशी से बताते हैं कि हम शहर में रहते हैं।
दरअसल वो बता कर खुद दुखी हो जाते हैं।
वे जानते हैं। और अगर अनजान है तो उनके दिल जानते है कि शहर खूबसूरत है या खूब सारा है ।
लोग मिलते-जुलते बहुत है।या यूँ कहें हाथ से हाथ मिलाते, और चेहरों से चेहरे, पर दिल कभी नही मिलाते। बहुत अजीब है!
पर दिल ही नही है! लव बहुतों को होता है, पर प्यार किसी को नही होता

कंकरीट की गलियों में से किसी एक गली में, मैं भी अब रहता हूं ।
 मैं देखता हूं कि सुबह कब होती है और किधर से होती है। मैं सोचता हूं कि जब दिन भर की गर्म हवा और आवाजों से ऊब कर सूरज  घर लौटता होगा तो उसे भी मेरी तरह नींद नहीं आती होगी।
बिजली की रोशनी से चमकता यह शहर दिन-रात धड़कता है और फैलाता है अपनी बाहें जिससे किनारे के कुछ गवांर गांव रातों-रात स्मार्ट सिटी में बदल जाते हैं ।
उस गांव के हिस्से में भी चमक आती है पर इससे उनके दिलों और चेहरों की चमक गुम सी हो जाती हैं।

फिर मैं सुनता हूं गाडियों की आवाजें,लोगों कि चीखें और झुम बराबर, झुम बराबर झुम

फुटपाथ पर सपनें देखती आँखों की कतारें, अतीत की चादर लिए खडी यादें और उन सपनों , उन यादों को रौंद कर गुजरती गाड़ियाँ धुआँ -धुआँ 


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