Ishwar Gurjar

Tragedy

5.0  

Ishwar Gurjar

Tragedy

बारिशें

बारिशें

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पेड़ों पर पत्तें आए कई वर्ष बीत गये, अब तो ठूंठ भी सूखकर गिर गए। हरियाली आँखों को सालों से नसीब नहीं हुई। लुप्त हो चुके गिद्धों के झुंड जाने कहाँ से फिर लौट आए। नीयति ने उनके दिनों को पलट जो दिया। ज़मीन दुःखों से फट चुके दिलों की भाँति कठोर हो चुकी थी। यह दसवाँ सावन है जब बारिश न के बराबर हुई। पहले तो आसमान पर काले बादल भी आते थे। गड़गड़ाहट के साथ बिजलियां भी चमकती थी लेकिन बिन बरसे ही लौट जाते, धीरे-धीरे उम्मीदों का इंतजार करती आंखें नमी के अभाव में शुष्क होती गयी और बादलों का आना भी तीन-चार साल से बंद हो गया।

मौसम विभागों के अनुमान ठोस झूठ बोल बोलकर थक चुके है, अखबार बताते हैं कि मौसम बदल गए हैं अब बारिश नहीं होगी।

बारिश नहीं होगी ! तो क्या होगा जां ?...सजरी का एक पल्लू खींचते हुए उसकी आठ-नौ साल की लड़की बोली ! चिन्ता और गहरी मायूसी से अपनी लड़की के चेहरे की ओर देखते हुए कहा, "कुछ नहीं बस पीने को पानी नही होगा ! यह कह देना कितना आसान है और इसे जीना कितना असम्भव हैं। सजरी ने आसमान की और आशा से देखा- आषाढ़ का यह अंतिम दिन है पर सफ़ेद बादलों के झुंड में कहीं काला धब्बा तक नहीं आया, कहां वो दिन जब अब तक बावन हो चुकी होती। खेत जुत गए होते ; धरती हरी घास की चादर ओढ़ कर सोंधी खुशबू से लीन हो जाती, सावन आते आते छोटे-मोटे तालाब-तलैया उबक जाते, पंछियों की चहचाहट और किट पतंगों की भरमार से पूरा वातावरण संजीव हो उठता। हर जगह जीव की मौजूदगी धरती को आबाद कर देती।

और कहाँ आज, गर्म हवाओं के थपेड़े, दरारें पड़ी जमीनें, रोज मरते मवेशियों के झुंड के झुंड वातावरण को नीम उदासी में तब्दील करते हैं।

काश हम कम तरक़्क़ी करते, यह समझ पाते कि जिंदगी का विकल्प नहीं होता, जीव का महत्व सही समय पर जान जाते, जल, पेड़, हवा, पहाड़, हवा को बचाते तो आज वे हमें बचाते। क़ुदरत वीरान नहीं होती, धरती उजाड़ नहीं होती, काश जिंदगी मौत से मसरूफ हो जाती।" एक रोबोट TV रिपोर्टर।


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