दोस्ती की आख़िरी रात
दोस्ती की आख़िरी रात
गीता मेरी बचपन की सबसे प्रिय सहेली थी। वह हमारे घर के साथ वाले मकान में रहती थी। मुझे याद है जब उसके पापा का लखनऊ में ट्रांसफर हुआ था तो मैं पाँचवी कक्षा में पढ़ती थी। वसुधा आंटी ने वहां आते ही मेरी मम्मी से मेरे स्कूल की जानकारी ली और अगले ही दिन उसका एडमिशन मेरी ही क्लास में करा दिया। हम दोनों की उम्र लगभग एक ही थी, उसका जन्मदिन मेरे जन्मदिन के चार दिन बाद होता था। उस दिन के बाद से हमारा स्कूल में रोज़ आना -जाना साथ साथ ही होता था, स्कूल क्या कॉलेज भी हम साथ ही जाया करते थे।
लोग हम दोनों को सीता-गीता की जोड़ी के नाम से बुलाने लगे थे, दुनिया का कोई भी विषय ऐसा नहीं था जिस पर हम चर्चा ना करते, वह मेरी चचेरी मौसी के बच्चों को जान गयी थी और मैं उसकी दादी के भी सब रिश्तेदारों को नाम से जानती थी। वसुधा आंटी अकसर मज़ाक -मज़ाक में माँ से कहती थी "इन दोनों की शादी एक घर में ही करेंगे", "हाँ पहले से ही पूछ लेंगे जहाँ दो बेटों वाला घर होगा वहीं बात करेंगे", माँ भी उनकी बातों में बात मिला देती।
इसी बीच गीता की सगाई हैदराबाद के एक बहुत संपन्न परिवार में हो गई, गीता बहुत खुश थी। गीता के सुसराल में सास - ससुर नहीं थे, पर उसके पति अनीश का एक छोटा भाई अवनीश था जो हम लोगों की उम्र का ही था। गीता मुझे सगाई के बाद से देवरानी जी बुलाने लगी थी। उसकी शादी की सभी तैयारियाँ में भी , मैं उसके साथ ही थी। शादी में माँ का ध्यान अनीश से ज्यादा अवनीश पर ही था। कहीं न कहीं मेरे दिल दिमाग़ में भी उस घर के सपने बनने लगे थे। शादी के बाद ,गीता के पत्र आते रहते, वह मुझे हैदराबाद आने को कहती, पर कभी भी अपने सुसराल के बारे में न लिखती। वसुधा आंटी और अंकल भी रिटायरमेंट ले कर लखनऊ से जा चुके थे।
ग्रेजुएशन करने के बाद मेरी शादी की बात चलने लगी, तो माँ ने अवनीश के बारे में मेरी राय माँगी, मेरा गीता के देवर की तरफ शुरू से ही रुझान था। इस बीच जब गीता के बेटे का फंक्शन का निमंन्त्रण आया, तो माँ ने मेरी टिकट करवा दी, माँ ने समझाया, "अगर गीता का देवर ठीक लगे तो गीता को बोलकर बात पक्की कर देंगे।" अनेक सपने लिए हैदराबाद पहुंची, तो सब कुछ अलग सा था, हैदराबाद की बड़ी कॉलोनी में उसका महल जैसा घर था, कीमती गाड़ियाँ घर के बाहर एक कतार में लगी थी, घर नौकर चाकर से भरा पड़ा था, गीता भी महंगे कपड़ों व जेवरों से लदी थी। मैं उसे इस तरह देख हँस रही थी, पर वह चुप थी, वह मेरे साथ औपचारिक बातें कर रही थी, मुझे उसके कमरे के बगल वाले कमरे में ठहराया गया। उसका यह नया रूप मेरे लिए अविश्वसनीय था।
अनीश का भी नया रूप देखने को मिला, वह बिल्कुल भी वैसा नहीं था, जैसा हमने गीता की शादी से पहले सुना था। मुझे गीता के इस परिवर्तन का कारण समझ आने लगा था। अगले दिन उसके बेटे का फंक्शन था, रात पार्टी में अनीश ने बहुत ज्यादा पी रखी थी, हर नौजवान स्त्री को खींच उसके साथ डांस करता और फिर उसे बाँहों में ले अजीब हरकतें करता। अचानक उसकी नज़र मुझ पर पड़ी, मेरे हाथ पाँव ठंडे हो गए थे। मैं कुछ समझती, उससे पहले गीता ने मेरी गोदी में अपना बेटा पकड़ा दिया। रात भर मैं उस वारदात के बारे में सोचती रही।
अगले दिन उठी तो पता चला अनीश ऑफ़िस जा चुका है, सोचा अब अच्छा मौका है, गीता से खुल कर बात करने का, पर शायद मेरी वह बचपन वाली सहेली कही खो गयी थी, उसने अपने आस पास एक दीवार बना रखी थी। उसकी इस बेरुखी को देख मैंने अगले दिन ही वापिस लौट जाने का प्रस्ताव रखा तो मेरी सोच के विपरीत उसने अपने मुंशीजी को अगली सुबह की मेरी टिकट कराने को कह दिया।
अचानक रात में किसी ने मेरे कमरे के दरवाज़े पर दस्तक दी, सोचा गीता होगी, पर अनीश को देख मैं डर गयी, मैं कुछ बोलती उससे पहले ही वह कमरे के अंदर आ गया। एक हाथ से मेरा मुँह बंद कर दिया था, तभी गीता के बेटे की रोने की आवाज़े आने लगी, साथ ही गीता भी चिल्ला रही थी कोई डॉक्टर को बुलाओ, मुन्ना को बचा लो। अनीश उल्टे पैर दौड़ा। अनीश, गीता व मुन्ना को हॉस्पिटल ले गए। मैं बहुत घबरा गयी थी।
उसके स्टाफ से बाद में पता चला, गीता मुन्ना को घूमा रही थी, पैर फिसल गया और मुन्ना हाथ से छूट गया था। गीता के माथे पर कुछ चुभ गया था, जिसकी वजह से बहुत ख़ून बह रहा था। मैनें अपना सामान पैक किया, क्योंकि सुबह मेरी चार बजे की ट्रेन थी, सोचा हॉस्पिटल से स्टेशन चली जाऊंगी, हॉस्पिटल पहुंची तो अनीश मुन्ना को लेकर घर जा चुका था, गीता इमरजेंसी में थी, मुझे देखते ही रो पड़ी। तुमको बचाने का मेरे पास कोई दूसरा उपाय न था ,"मैनें अपने मुन्ना को जानबूझ कर गिराया क्योंकि अनीश की कमज़ोरी मुन्ना है "वह सुबक पड़ी। उसकी अनकही बातों को भी मैं जान गयी थी। मैं जानें लगी तो उसने कहा “अब तुम कभी भी इस नरक मे मत आना ,हो सके तो मुझे माफ़ कर देना।”हम दोनों ही रो रहे थे।
गीता के माथे पर पांच सिलाई लगी थी। मैं लखनऊ लौट आयी , पर अपनी उस सहेली के उस त्याग को कभी भी भूल नहीं पायी, आज इस घटना को बीस साल बीत गए हैं, जब भी उस काली अँधेरी रात को याद करती हूँ, तो काँप जाती हूँ , किस तरह मेरी सहेली ने अपनी सूझ से व त्याग से मेरी इज़्ज़त को बचाया था। दोस्ती की वह बहुत बड़ी मिसाल थी। इतने सालों में उसकी कोई खबर नहीं है, शायद यह कहानी उस तक पहुंचे और उसे पता चले कि मुझे आज भी उस पर फक्र होता है। ख़ुश क़िस्मत होते हैं जिन्हें इतने अच्छे दोस्त मिलते है।