पहला प्यार
पहला प्यार
बात उन दिनों की है, जब हिंदुस्तान पाकिस्तान एक हुआ करते थे। गुजरांवाला जिले में हम साथ साथ रहते थे वहां सबीना आपा के निक़ाह पर शांती मौसी क्रोशिये का मेजपोश बिनती, तो गीता की शादी मे शबाना चाची बताशें बांटती। सभी परिवार में मेलभाव था। हम सब बच्चे साथ खेलते, बजाजों का बेटा भी हम लोगों के साथ पढ़ता, हम सब लड़कियां उसकी बड़ी बड़ी आँखो का मखौल बनाती ,लेकिन वह हमेशा शांत ही रहता।
मुहल्ले की औरतें भी मिलजुल कर रहती। एक बार जगदीश भईया की तबियत कुछ ज्यादा ही ख़राब हो गयी। उनके ठीक होने कोई उम्मीद न थी, तो रेहाना मौसी ने काढ़े पिला -पिला कर उसे ठीक किया। बजाजों के परिवार वाली मौसी भी हमेशा माँ को समझने आ जाती। उस दिन भईया पूरी तरह से ठीक हो गया, तो माँ ने बताशे बाँटने मुझे भेजा।
उधर कुछ दिनो से उड़ती खबरे चल रही थी , कि हिन्दुओं को पाकिस्तान छोड़ना होगा, पर कोई भी अपना घर छोड़ने को तैयार न था। जैसे ही मैं रहीम चाचा के घर से बताशें देकर निकली, तो अचानक पीछे से घोड़ों की आवाज़ों के साथ साथ तलवारें चलने, वह चीखों की आवाज़े भी सुनाई दीं। और फिर किसी ने तेज़ी से मेरे मुँह पर हाथ रख मुझे दूसरी तरफ़ खींच लिया, मैं कुछ भी समझ नहीं पा रही थी, सम्भली तो अपने आप को रहीम चाचा की परछत्ती में पाया ,बजाजों के बेटा मुझे खींच कर वहां ले आया था, बगल में बैठा , मुझे इशारे से चुप रहने को कहा।
सारी रात हमने उस परछत्ती मे बिताई , हाथों मे तलवार लिए ज़ालिम बेटियों बहुओं को ले जा रहे थे, कत्लेआम जारी था। मैं ड़र से काँप रही थी, उसके हाथ -पाँव भी ठन्डे हो रहे थे।
सुबह होते ही वह मुझे लेकर मेरे घर गया तो घर मे कोई नहीं था, सब सामान बिखरा पड़ा था, मेरी चीख सुनकर शबाना चाची आ गयी, मुझे बुर्क़ा पहना कर बजाजों के बेटे को मुझे साथ जल्दी ले जाने को कहा। मैं उसके घर पहुंची तो उसके परिवार के लोग भी जा चुके थे।
तीन दिनों तक भटकते -भटकते हम हिन्दू कैम्प में पहुँचे, दो दिन बाद जब गाड़ी से हमें वहां से निकाला गया हिंदुस्तान पहुंचे तो हमें कुछ होश न था, बहुत कोशिशों से मुझे तो मेरा परिवार मिल गया पर उसके परिवार की खबर न थी, मैं अपने परिवार को मिल कर रो रही थी और वह मायूस हो चुका था, पिताजी उसको लेकर सब जगह हो आये पर उसके परिवार वालो की कुछ ख़बर न थी। वह वापिस जाने लगा, तो बिरादरी मे हल्ला हो गया, लड़की उसके साथ अकेली रही है कौन इससे शादी करेगा। पंद्रह -सौलह की उम्र मे हमें कुछ समझ नहीं आ रहा था।
आज उस काली बड़ी आँखों वाले बजाजों के बेटे की मैं तीन बच्चों की माँ हूँ, उसको दुनिया से गये दस साल हो गए है, उन दिनों को याद कर सोचती हूँ तो हँस लेती हूँ, हमारी शादी जब हुई, उस समय हमें इस बंधन की समझ भी न थी। हमारे लिए एक गुड्डा -गुड़िआ का खेल जैसा था, पर इस बंधन जैसा पवित्र कुछ न था, उसने मेरे सम्मान की तब रक्षा की जब वह मुझे पूरी तरह से जानता भी न था ,और मेरे लिए वह - - मेरा पहला व आखिरी प्यार था।