दादाजी की संदूक
दादाजी की संदूक
बचपन की कई ऐसी वस्तुऍ होती है जो उम्र भर याद रह जाती हैं, ऐसी ही थी, मेरे दादाजी की छोटी सी संदूक। पिताजी ने जब नयाघर ख़रीदा तो हमसब बहुत ख़ुश थे. शाम को जब दादाजी दुकान से लौटे तो मेँ घर के बाहर बने चबूतरे पर उनका इंतजार कर रहादादाजी ने जल्दी से नए घर की चाबीयां लीऔर एक बड़ा सा थैला जिसमे उनकी संदूक थी।
हमारा नया घर बहुत ही बड़ा था। खुला आँगन, बड़े ऊंची छत वाले कमरे। उस घर की सबसे पसंदगी वाली जगह थी, वहाँ कातहखाना । दादाजी मुझे समझा कर तहखाने की सीढ़ियों की तरफ गए “पुत्तर तू यह रेवड़िया खा मै अभी नीचे से आता हूँ ” रेवड़ियाँजल्दी से खा मै धीरे से तहखाने की सीढ़िया उतर गया। दादाजी के हाथ मे थैला था, उन्होंने उसमे से एक छोटा सा संदूक निकला, उसमेकुछ कागज़ थे, उसे खोल वह पढ़ रहे थे, शायद उनकी आंखे भी गीली थी, मै दरवाजे के पास खड़ा देख रहा था। मेरी आवाज सेदादाजीचौक पड़े। संदूक को तहखाने की अलमारी मे बंद कर वह मेरे साथ लौट आये।
नए घर मे आये हमें दस साल हो गए थे l दादीजी का क्रत्रिम पैर होने के कारण वह कभी भी तहखाने मे नहीं गयी। दादाजी जब भीखाली होते, नीचे तहखाने मे घंटो बैठे रहते।दादाजी से जब भी पूछता सिर्फ़ टाल जाते । फिर पिताजी ने बताया भारत पाकिस्तान अलग होने से पहले के कुछ कागज़ व हिसाब आदि रखा है, जो दादाजी देखते हैं।
मेरी बोर्ड की परीक्षा चल रही थी, उन दिंनो दादाजी की तबियत भी ठीक नहीं चल रही थी। एक दिन मुझे अकेला पाकर बोले “ पुत्तर जब मै मर जाऊ तो मेरे संदूक के कागज़ मेरे साथ ही दफ़ना देना ” उस समय कुछ न समझा था। फिर दादाजी हॉस्पिटल जातेसमयमुझसे बोले “पुत्तर मेरी बात याद है ना, याद रखना ” मै चुप था। उस दिन मैने दादाजी की संदूक के कागज़ खोले तो हैरान होगया, दादाजी ने अपनी माताजी, पिताजी व भाई को चिट्ठियाँ लिखी थी, पर कभी भी उनको भेजा नहीं था। पिताजी ने बताया पार्टीशनके समय उनका परिवार पाकिस्तान चला गया था। किंतु दादाजी हमारी दादीजी के ऑक्सीडेंट की वज़ह से उनको अकेला छोड़ कर नहींजा सके। इस बात से नाराज़ होकर उन्होने दादाजी से रिश्ता तोड़ दिया था। चिट्ठियाँ जो दिल के दर्द से लिखी हुई थी, कभी भी भेजीनहीं गयी। वह उनका रूहानी स्नेह था या आस्था जो कागज़ कलम की लिखी सीमाओं से परे था।उनके उन अहसासों को उनकी देहके साथ ही दफ़ना दिया था। दर्द जो जीवन भर संभालते आये थे पल में खाक हो चुके थे।