दोस्ताना
दोस्ताना
खुद् से न्हीं ख़्फ़ा, फिर्
भी, मेहरबाँ रूठे,
मनाऊँ कैसे !
"दोस्ती के नाम पर बद्नुमा दाग़ न बन मेरे यारा। तुम्हें मेरी कसम।"
बाँसुरी की ओर से मिलें इल्ज़ाम का जवाबदेही बनने वाले सूर की शायरियों का सिलसिला शुरू हो गया।
*तुम क्या जानों दोस्ती किसे कहतें हैं?
अगर होता जो तुम्हें कुछ दोस्ती के मायने पता,
न करता बेअदबी जाते जाते।।*
"वाह, वाह, शुभानल्लाह, बहोत खूब। बहोत ही खूबसूरत।
"मज़ा आ गया। क्या एक्टिंग की है यार तुमनें।
"एक पल तो यूँ लगा मानो तुम सच में ही अपने दिल का हाल बयाँ कर रहे थे।
"लगा ही नहीं की, वो एक्टिंग थीं सच्चाई नहीं।"
- शुक्रिया।"
- थेँक्स।
- माय प्लेज़र।
अच्छा लगा ना तुमको। बस, मेरे लिए वही काफ़ी है। वर्ना तुम तो जानते ही हो कि मैंने एक्टिंग वेकटिंग कब की छोड़ दी है। सूर ने अपनेआप से स्पष्टता की।
सूर और बाँसुरी के बीच की बातें कभी कभार मन को भीतर तक कचोटती रहतीं। पर प्रॉमिस के हाथों लाचार होकर कुछ भी न बोलने का वचन सब कुछ बिगाड़ने लगा था।
आज तो बात हो ही जाएँ। आर हो या पार, कुछ तो करना ही पड़ेगा। यूँ बैठे रहे तो मामला और भी पेचीदा होता चला जायेगा। और फिर,
गुनगुनाते रह जायेंगे -
"अब रोकर क्या करें,
जब चिड़िया चुग गई खेत।
माहौल और ज्यादा तंग न हो जाये, बस इसी वजह से सूर 'गोल्डन पेरेडाइज़' रिसोर्ट से उठकर चलता बना।
सूर के जाते ही सबने अपने अपने हिस्से का काम एकदूसरे को याद दिलवाया। और, शाम सात बजे यहीं इसी जगह पर मिलने का वादा करके सब अपने अपने रास्ते निकल पड़े।
बाँसुरी तो पहले से ही जा चूकी थीं।
सूर भी बेतकल्लुफी से ख़फ़ा न था, पर कुछ हद तक अंदर ही अंदर घुटता जा रहा था। मानों भगवान शंकर की तरह विष पी लिया हो। न निगल पाता था और ना ही उगल पाता था।
पर उसे भी यह बदलाव के पीछे का रहस्य बिल्कुल भी नहीं पता था।
चलते चलते वह आबू के 'नक़ी लैक' की ओर बढ़ता चला गया। यह सोचकर कि कुछ राहत महसूस कर लूँ, फिर यारों दोस्तों के बीच बैठूं तो मन में किसी भी क़िस्म का मलाल न रह जाये और हर्षोल्लास से तीन दिन बीत जायें।
फिर तो गुज़ारनी ही है वो ख़ाली अकेली शाम और कोरे कागज़ से दिन!!
शाम के सात कब बीत गए पता ही नहीं चला सूर को। बेमन से वह 'नक़ी लैक' को अलविदा कह वहाँ से गुज़र गया।
सात बजे का तय करके गया हुआ पूरा का पूरा क्रूज़ तामझाम करके लौटा था। हर एक के हाथ में कुछ न कुछ बड़ा ही था। और हर कोई एक दूसरे से अपने हाथों में रखी बैग्स और उसके अंदर का सामान छुपाएँ रखने की जद्दोजहद मेहनत कर रहा था।
"अरे सूर, तुम यहाँ, कैसे?"
सिमरन ने बाकी सारे दोस्तों को इशारा देने के लिए सूर को ऊँची आवाज़ देकर पुकारा।
इधर उधर खड़े सारे के सारे दोस्त सूर के हत्थे न चढ़ने के तरीके ढूँढ़ने लगे।
तभी, शिखर सरीन को हेड शेफ़ के वेश में पेंट्रीकार से बाहर आता देख बारी बारी से हर कोई उसके पीछे पैंट्रीकार में घुस गया।
"क्यों, क्या हुआ, मुझें यहाँ नहीं तो कहाँ होना चाहिए था सिमरन?"
सूर सिमरन को अचानक से अपने सामने यूँ घाघरा चोली में देख पलभर के लिए ठिठक सा गया।
अपनेआप को सँभालते हुए सूर ने सिमरन को ही उसके शब्द जाल में फँसा दिया।
अब सिमरन की बारी थीं कि वो क्या कहें और कैसे सूर के मायाजाल से बाहर निकल कर अपने आप को बचा सकें।
"ज़हे नसीब, माशाल्लाह, क्या तक़दीर पाई है हमनें यारा, आज आपको यूँ आमने सामने इतना क़रीब से देख, गले मिल ज़माना हो गया!"
शिखर सरीन ने मामला सँभालते हुए सिमरन को बड़े ही सलीके से बचा लिया और सूर को पता भी न चला।
सूर, अपने बचपन के लँगोटिया यार शिखर सरीन को 'गोल्डन पेरेडाइज़' में देख भावविभोर हो उठा।
जैसे,
सहरा में मृगजल की बूँदें सीधे मुँह में ही प्यास बुझाने टपक पड़ी हो!!
शिखर को गले मिलने के उतावलेपन में सूर्य सिमरन के बेतुके सवालों से बाहर आ चूका था, और गहरी साँसे अपने में भरती हुई सिमरन लपककर वहाँ से भाग गई।
काफ़ी देर तक सूर शिखर की बाँहों में अपने बचपन को तलाशता हुआ यूँही खड़ा रहा।
शिखर को भी बाक़ी सारे कॉलेज के दोस्तों से सूर के बारे में टूटा फूटा सा जो कुछ भी पता चला था पेंट्रीकार में; तब से वह अपने आपको उससे मिलकर उसे ढाँढ़स बँधाने के चक्कर में था।
और, सिमरन को मुसीबत में देख नायरा के कहने पर शिखर सूर की बाँहों में लिपटकर रोने - रुलाने दौड़ा चला आया।
"शिखरण, मेरे यारा! कितने लंबे अरसे बाद हम एकदूजे को मिलें हैं यार! कितना बदला बदला सा नज़र आ रहा है तू! कहाँ है तू आजकल? और कर क्या रहा है? और तू यहाँ कैसे?"
"कितने सारे सवालात! अबे, वक़ील तो नहीं बन गया ना तू! कितना बोलता है रे! पहले तो तुझें बुलवाने की शर्तें लगानी पड़ती थीं और अब देखो, बन्दा बोले ही जा रहा है, पूछे ही जा रहा है। रुकने का तो नाम ही नहीं ले रहा।"
कहते हुए शिखर सूर से अपने आपको अलग करते हुए एकटुक बस उसे देखें जा रहा था।
मानों उसके भीतर के सूर को भाँपने की एक्स-रे मशीन बन गया हो।
शिखर सूर को लेकर स्विमिंग पूल की ओर गया।
सूर के बाकी सारे क्रूज़ मेम्बर्स ने रात की पार्टी का इन्तज़ाम करने की तैयारियाँ पेंट्रीकार के पिछले दरवाजे से निकलकर स्विमिंग पूल के आउट हाउस में करने की सोची और उसे आख़री अंजाम तक पहुँचाने एक एक कर सब के सब वहाँ सेट हो गए।
शिखर भी सूर का मूड़ ठीक करने के लिए उसकी कमज़ोरी को हथियार बनाकर उसके सामने होने को तैयार खड़ा हो गया।
स्विमिंग पूल के दूसरे छोर पर शिखर और सूर ऐसा रेकलाईनर ढूँढ़ रहे थें जहाँ कोई शोरगुल न हो।
घंटे भर कोई कुछ न बोला।
शिखर बर्बस यहाँ वहाँ ताकता रहा, कि वह जान पायें उसके दोस्तों ने सूर और बाँसुरी को मिलाने की साज़िशें कहाँ तक कामयाब हो पाई है।
आउट हाउस को सजाने की कोशिशें पूरजोश में चल रही थीं।
"हल्लो, शिखर, हम तैयार हैं। तुम सूर को आउट हाउस में भेज सकते हो।" कुलीन कुलक्षेत्र ने शिखर को कॉल करके इत्तला कर दिया।
"सूर, यार, आई एम सॉरी।"
"क्यों, क्या हुआ?"
"यारा, मुझें गेस्ट्स को रिसीव करने जाना होगा।" रिस्ट वॉच की ओर इशारा करते हुए शिखर खड़ा हो गया।
"ठीक है, तुम जाओ। मैं कुछ देर यहीं पर एकांतवास एन्जॉय करना चाहता हूँ।" सूर ने भी साँप सीढ़ी के खेल पर अपनी कुकड़ी फेंककर दाव अपने हाथ मे ले लिया।
"यहाँ बैठने से अच्छा है तुम आउट हाउस में बैठो। और सॉफ्ट म्यूज़िक एन्जॉय करो। मैं बस यूँ गया और चुटकी बजाते यूँ लौट आया। फिर मिल बैठकर ड्रिंक्स एन्जॉय करते हुए भूली बिसरी यादें ताज़ा कर खूब हँसेंगे। खिलखिलायेंगे।"
"शिखर, तू आ फिर साथ में चलते हैं ना आउट हाउस में!
मैं अकेले अकेले बॉर हो जाऊँगा। और तू उस वाकये से बेख़बर नहीं है कि मवरी बॉरियत कितनी ख़तरनाक साबित होती है।"
"कुछ नहीं होगा यार, मैं बस अभी आया।"
आउट हाउस की चाबी सूर के हाथों में थमाते हुए शिखर जाते जाते फिर बोला -
"चेस बोर्ड को सजा तब तक मैं आता हूँ। ओके।
चल, अब तू भी निकल। देखते हैं, कौन पहले पहुँचता है आउट हाउस में।"
शिखर चैलेंज देकर सूर की नज़रों से ओझल हो गया।
कुछ वक्त तक वहीं ठहरने का उसका इरादा पानी पानी हो गया।
शिखर के कहे अनुसार सूर आउट हाउस की ओर चल पड़ा। कुछ कुछ अंदाज़ा उसे भी लग चूका था कि माजरा क्या है, पर, दिखावा यही करता रहा कि वह इन सब बातों से बिलकुल भी अन्जान है।
आउट हाउस की ओर जाते वक्त एक नज़र यूँही किसीसे टकरा गई और रोशनी बुझ गई।
आउट हाउस के क़रीब पहुँचने तक रोशनी गुल ही थीं। अँधेरे से वाकिफ़ होने के लिए सूर ने मोबाइल की टोर्च ऑन करनी चाही, पर हो न पाई।
लैच में चाबी डालकर लॉक खोलने पर कमरें में घना अँधेरा छाया हुआ था। और सर्दी के मौसम सा कोहरा भी जमा हुआ था। कमरें में रखी कोई भी चीज़ें देख पाना नामुम्किन सा हो रहा था।
अचानक से सूर का हाथ एक टेपरिकॉर्डर पर जा टकराया, और उसमें से आवाज़े गूँजने लगी -
"सूर से सजी, सूर की महफ़िल,
सूर बिना कहाँ ज़िंदगी मेरी,
सूर से शुरू, सूर पे ख़तम,
सूर नहीं तो कुछ भी नहीं सनम!
- दोस्तो, तुमने हम दोनों को मिलाने की कई कोशिशें की, पर शायद इस जनम में हमारा एक साथ जीना - मरना ख़ुशगवार न होगा।
- मुझें किसीसे कोई गिला शिक़वा नहीं। अलविदा दोस्तों। मेरे सूर का ख़याल यूँही रखना।
- सायोनारा।"
"कौन है। केन है यहाँ, इस खाली कमरें में? कौन है जल्दी बतलाओ वर्ना..."
"वर्ना क्या सूर? वर्ना, गोली चलाओगे? फिर एक बार क़त्ल कर अपने चहेरे पर किसी और का मोहरा पहन किसी और की शख्सियत को जीओगे? बोलो, बोलते क्यों नहीं अब!!"
सूर अपने अक्स की आवाज़ सुनकर हक्काबक्का सा रह गया।
और तभी रोशनी लौट आयीं।
अपने इर्दगिर्द भीड़ देख सूर सारा मामला समझ गया। वहाँ से भागने की फ़िराक़ में ही था कि शिखर सरीन ने आकर उसे थाम लिया।
"शिखर, देख मेरे यारा, ये जो कुछ भी कह रहे हैं वो बिल्कुल भी सच..."
"बिल्कुल भी सच है... शत प्रतिशत सच।
तुम सूर का मास्क पहनकर, सूर सी ऐक्टिंग कर, सूर जैसी शायरियाँ गा कर हमें बेवकूफ नहीं बना सकते मि. अमरदीप सिंह..
तुम्हें तुम्हारे ही बुने जाल में फाँसने के लिए ये तामझाम, ये शूटिंग, ये शोरगुल सब कुछ प्रि प्लान्ड था।
बर्बस, तुम्हारें मुँह से ये सुनने के लिए, की ये बिल्कुल भी सच नहीं है।
ये सब तो एक छलावा है।"
सूर उर्फ अमरदीप सिंह अपने ही बुने हुए जाल में फँसने लगा है ये जानकर दंग रहने के बदले में सूर ने अपनी ही रिवॉल्वर से खुद को शूट कर दिया।
आख़री वक्त में जाते जाते इतना ही बोला -
"सूर हूँ मैं, सूर ही हूँ मैं।
यारों का यार हूँ मैं,
दुश्मनों का भी यार ही हूँ मैं।
सज़ा उसकी ही भुगत रहा हूँ मैं।
अलविदा!
मेरे दोस्त और मुझें दुश्मन समझने वालों...
आख़री सलाम।"
हेड शेफ़ बनकर दोस्ती निभाने आयें ACP शिखर सरीन भी अपने दोस्त को न पहचान पाने की सज़ा भुगत रहें ताउम्र।