दोहरा चरित्र
दोहरा चरित्र
सूर्य इतना शक्तिशाली होते हुए भी ऋतु के समक्ष स्वयं को असहाय अनुभव करता था। ऋतु कभी शीत, कभी ग्रीष्म तो कभी वृष्टि की वृद्धि कर देती थी।
सूर्य ने धरती के पर्यावरण से बात की, "आप भी ऋतु के दोहरे चरित्र को प्रोत्साहित करते हो। इससे सभी को समस्या होती है। ऋतु-परिवर्तन के समय मानव कई तरह की व्याधियों से पीड़ीत हो जाता है और मेरी शक्ति उसे कोई सहायता नहीं पहुंचा सकती।"
पर्यावरण ने प्रत्युत्तर दिया, "इसके मूल में भी आप ही हो। आपने पृथ्वी को अपने बंधन में बाँध लिया, जिससे पृथ्वी आपके ही मार्ग पर चलती रहती है, और फिर उसकी स्वयं की प्रकृति - घूर्णन।"
"वो तो मैनें धरती भटक न जाये, इसलिये निश्चित मार्ग रखा। यह तो मेरा प्रेम दर्शा रहा है।"
"लेकिन, आप दोनों के प्रेम-बंधन के कारण मानव की रचना जल, वायु, अग्नि, मिट्टी अर्थात स्वयं पृथ्वी और आकाश से हो गयी। इसलिए ऋतु को अपना चरित्र बार-बार परिवर्तित करना होता है - ताकि आपकी जीवन शक्ति के साथ ये पाँचों तत्व भी पा कर मानव-जीवन सुरक्षित रहे।"