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Dinesh Divakar

Horror Romance

3  

Dinesh Divakar

Horror Romance

दिव्य दृष्टि- एक रहस्य 10

दिव्य दृष्टि- एक रहस्य 10

10 mins
989

अब तक..

प्रेम और दिव्या आगे बढ़े तभी सामने एक कब्रिस्तान वाला गाँव आया जिसमें अतृप्त आत्माओं का वास था, वहां पहुंचने पर प्रेम उनके निगेटिव एनर्जी को सह नहीं पाया और पागल सा होने लगता है तब दिव्या त्रिशूल की मदद से उन अतृप्त आत्माओं को मुक्ति दिलाती है और खाई में जा कर दृष्टि के मायाजाल तक पहुंचते हैं तभी प्रेम के कंधे पर किसी अंजान शक्ति ने अपना हाथ रखा।


अब आगे..

किसी ने प्रेम के कंधे पर हाथ रखा तो प्रेम डर गया कहीं इन लोगों को पता तो नहीं चल गया, वह डरते डरते पीछे मुंडा और आँखें खोलकर देखा तो एक लड़की जिसकी हालत बहुत खराब थी फटे पुराने कपड़े जो उसे घके हुए थे मदद के लिए चिल्ला रही थी तभी एक शैतान ने उसके बालों को पकड़ कर घसीटते हुए वहां से ले गया लेकिन सौभाग्य से उसकी नजर प्रेम पर नहीं पड़ा ।

वह उसे लेकर एक पेड़ पर लटका दिया प्रेम उसके पीछे जाकर देखने लगा उस शैतान ने एक तलवार लिया और बड़ी बेदर्दी से उस लड़की का पेट फाड़ दिया लड़की दर्द से कराह उठी और मौत को गले लगा लिया उसके शरीर से खून की बूँदें ज़मीन पर गिरने लगी तभी उस ज़मीन से बहुत सारे शैतान उठ खड़े हुए और उस लड़की को बहुत बुरी तरीके से खा गए।

ये नज़ारा देख कर प्रेम वहीं बेहोश हो गया फिर जब होश आया तो शाम हो गया था तब उसे जैसिका की याद आया वह उसे ढूंढने उस मायाजाल में प्रवेश हुआ।

उस महल जोकि मायाजाल था में प्रवेश होने के बाद प्रेम की समस्या और बढ़ गया उस महल में हजारों दरवाज़े थे जो पता नहीं कहां जाकर खत्म होते थे प्रेम एक दरवाज़ा को खोलकर आगे बढ़ता तो उसके सामने सौ दरवाज़े और खड़े हो जाते क्योंकि वह एक भुलभुलैया था जो दृष्टि ने बनाया था।

प्रेम घंटों तक सभी दरवाज़ों को खोल खोलकर देखता रहा लेकिन जैसिका का कुछ पता नहीं चला, आखिर में थक हार कर वह ज़मीन पर गिर पड़ा और नींद के आगोश में समा गया।

रात के तीन बजे एक आवाज़ से प्रेम की आँख खुली वह आवाज़ जाना पहचाना लग रहा था वह उस आवाज़ के पीछे जाने लगा, वह एक लड़की थी जो प्रेम को लगातार आवाज़ दे रही थी- "प्रेम प्रेम कहां हो तुम आओ मेरे पास आओ, मुझे तुम्हारी जरूरत है।"

प्रेम जैसे इस आवाज़ से मोहित हो गया था वह लगातार उस आवाज़ का पीछा करता रहा तभी एक नदी किनारे एक लड़की बैठी हुई थी।

प्रेम उसके पास गया, आओ प्रेम मैं कब से तुम्हारी राह देख रही हूं, आओ मेरे पास आओ।

जैसिका तुम ! ओह जैसिका मैंने तुम्हें कहाँ कहाँ नहीं ढूंढा।

प्रेम मेरे पास आओ मैं तुम्हें कुछ बताना चाहती हूं।

प्रेम उसके गोद में सर रखकर लेट गया- "जैसिका मुझे बहुत नींद आ रहा है...."

"तुम सो जाओ प्रेम" - ऐसा कहकर वह प्रेम के सर पर हाथ फेरने लगी, "प्रेम मेरी एक बात सुनो वह मुझे बहुत दुख दे रही है बहुत ख़तरनाक है तुम मुझे भुल जाओ और यहां से चले जाओ प्रेम मेरी बात सुनो।"

तभी जैसिका की आवाज़ बंद हो गई फिर वह कुछ बुदबुदाने लगी - "प्रेम मैं तुम्हें नहीं छोडूंगी तुमने मेरे साथ ऐसा क्यों किया।"

प्रेम इस आवाज़ से उठ गया और जैसिका की तरफ देखा, अरे ये क्या ये तो दृष्टि है जो बहुत गुस्से में है।

प्रेम उसे देखकर डर गया और चिल्लाने लगा।


"प्रेम प्रेम उठ जाओ"- दिव्या की आवाज आई, प्रेम झकना कर उठ बैठा - "क्या ये सपना था।"

हे भगवान वह तो जैसिका थी मुझसे कुछ कह रही थी। और फिर दृष्टि......

दिव्या- "क्या हुआ प्रेम कोई बुरा सपना देखा क्या ?"

प्रेम पसीने से तर-बतर हो गया- "दिव्या जैसिका बहुत तकलीफ़ में है हमें उसे बचाना होगा।"

दिव्या- 'आज अमावस्या है हमारे पास ज्यादा समय नहीं है हमें जल्दी ही जैसिका को ढूंढना होगा वरना...."

प्रेम- "नहीं नहीं मैं जैसिका को ढूंढकर ही रहूंगा चलो जल्दी से जैसिका को ढूंढते हैं।"

दोनों उस मायाजाल में प्रवेश हुए वह बाहर से जितना खूबसूरत लग रहा था उतना ही अंदर से भयानक,

दिव्या- देखो प्रेम यहां एक कमरे में ही सैकड़ों कमरे है उन्हें खोल के खोलकर देखने में सालों लग जाएंगे, तुम सिर्फ उस दरवाज़े को खोलना जो इन सब दरवाज़ों से अलग हो।

प्रेम- ठीक है दिव्या चलो काम शुरू करते हैं।


वहीं हुआ जो होना था एक दरवाज़ा खोलता तो सौ दरवाज़े सामने आ जाते प्रेम उसमें से एक अलग दरवाज़े को खोलना और आगे बढ़ता लेकिन ऐसे करते करते शाम होने वाला था तभी एक कमरे के पास जाकर प्रेम रूक गया ,वह दरवाज़ा अजीब सा था, उसके आसपास मक्खीयाँ भिनभिना रही थी प्रेम उसे खोलने के लिए आगे बढ़ा तभी दिव्या ने उसे रोका- "प्रेम उस कमरे में मत जाओ।"

प्रेम- "पर क्यो ये दरवाज़ा सबसे अलग है ?"

"मैंने कहा ना वहां मत जाओ तुम्हें सुनाई नहीं देता क्या" - इस बार दिव्या की आवाज़ में आक्रोश था।

प्रेम को दिव्या का ऐसा बोलना अजीब लगा, दिव्या तो मुझसे ऐसी बातें नहीं करती फिर आज....

तभी प्रेम को सहस्त्रबाहु के कहे बात याद आई- "प्रेम याद रखना जो दिख रहा है उसपर कभी विश्वास मत करना और धैर्य से काम लेना"

नहीं ये मेरी दिव्या नहीं हो सकती ये तो कोई और है ( प्रेम मन में सोचा और दिव्या को बहाना बनाते हुए) ठीक है दिव्या तुम उधर देखो मैं इधर देखता हूं, दिव्या के जाने के बाद प्रेम झट से दरवाज़ा खोल देता है तभी अंदर से चमगादड़ उठकर बाहर आते हैं तब प्रेम की नजर पड़ी - ये क्या विशाल जड़ों वाला पेड़ जो उस महल को बांधे हुए था मतलब यही है इस मायाजाल का मूल।

तभी दिव्या गुर्राते हुए आई- "मैंने तुम्हें क्या कहा था उस कमरे में मत जाना लेकिन तुम नहीं माने अब सजा भुगतो।"

अचानक दिव्या का चेहरा दृष्टि में बदल गया, दरअसल वो दृष्टि थी जो उन दोनो के प्लान को जान गई थी और दिव्या को क़ैद कर खुद दिव्या बनकर प्रेम को फसाने आईं थीं।

प्रेम- "मुझे पता था तुम मेरी दिव्या नहीं हो सकती कहाँ है मेरी दिव्या ? "

दिव्या- "अच्छा तुम्हें तो दिव्यदृष्टि प्राप्त है ना तो बुला लो बुला सकते हो तो, वो तो तुम्हारे बुलाने पर कहीं से भी आ सकती है।"

प्रेम ध्यान लगाकर दिव्या को बुलाता है लेकिन दिव्या नहीं आती ।

प्रेम- "दिव्या तुम कहां हो तुमने तो मुझसे कहा था कि तुम्हारे बुलाने पर मैं ज़रूर आऊंगी, आओ मुझे तुम्हारी जरूरत है प्लीज"

तभी एक दर्द भरी आवाज़ आई- "प्रेम मैं आ गई"

दृष्टि ने दिव्या को अपने शक्तियों से जकड़ रखा था और उसमें लगे काटें दिव्या को चुभ रहे थे।

प्रेम- "दिव्या दिव्या ये क्या हो गया तुम्हें ?"

दृष्टि- "स्वागत हुआ है इनका लेकिन कांटों से।'

प्रेम- 'कैसी बहन हो तुम अपने ही बहन को मार डाला और मरने के बाद भी दुख दे रही हो ?"

दृष्टि- "मुझे कोई फर्क नहीं पड़ता मैं जा रही हूं जैसिका को बली देने। अब तुम क्या करोगे जैसिका को बताओ या दिव्या को, हा हा हा

दृष्टि चली जाती है


दिव्या- "प्रेम तुम जाओ जैसिका को बचाओ।"

प्रेम- "नहीं मैं तुम्हें इस हालत में छोड़कर कहीं नहीं जाउँगा और गुरुजी की बात याद है- जहां मुसीबत ज्यादा होने लगे तो समझ लेना कि मंज़िल करीब है।"

दिव्या- "प्रेम मुझे बहुत दर्द हो रहा है ये मुझे जकड़ रही है"

प्रेम- "एक मिनट लेकिन तुम तो आत्मा हो और आत्मा को दर्द कैसा ?"

दिव्या - "लेकिन मुझे तो हो रहा है।"

प्रेम- "क्योंकि तुम अपने आप को आत्मा जान तो रही हो लेकिन मान नहीं रही हो इसलिए" अपने अंदर के शक्ति को पहचानो, अपने अंदर के दिव्यदृष्टि को जगाओं फिर देखो!

दिव्या शांत होकर ध्यान करती है तभी उसके मस्तक से एक दिव्य रौशनी निकला जिससे वह दृष्टि के शक्तियों से मुक्त हो गई।

दिव्या- "हां प्रेम तुमने सही कहा था मैं आज तक अपने आप को आत्मा नहीं मान पाई।"

प्रेम- "अच्छा वो देखो वो जैसिका को मारने जा रही है तुम उसे रोको और मैं उस मायाजाल के मूल तक पहुँचता हूं जैसे ही मैं इशारा करूँ त्रिशूल से दृष्टि के सर पर वार करना।"

दिव्या दृष्टि को रोकने के लिए आगे बढ़ी लेकिन तभी उसके सामने शैतानों की फौज खड़ी हो गई, दिव्या अपने त्रिशूल निकाल कर आगे बड़ी और

इधर प्रेम भी उस मायाजाल के मूल को नष्ट करने के लिए आगे बढ़ा थोड़े ही दूर गया था कि उसे भी शैतानों ने घेर लिया, प्रेम त्रिशूल निकाल कर सामने आ शैतानों का खात्मा कर रहा था तभी सारे शैतान एक साथ उसके ओर बढ़े और उसे गिरा दिया अब उसके उपर शैतानों की पुरी फौज थी वह चाहकर भी कुछ नहीं कर पा रहा था।

दिव्या सभी शैतानों को नर्क भेज रही थी तभी दिव्या के उपर एक शैतानी शक्तियों का वार हुआ वह वार दृष्टि ने किया था वह नीचे गिर पड़ी, फिर दृष्टि ने एक बहुत बड़े काले गोले में दिव्या को बांध दिया, जिससे दिव्या निकल नहीं पा रही थी।

दोनों बेबस हो ग‌ए थे ऐसा लग रहा था जैसे अब सत्य हार जाएगा तभी एक ज्योति पुंज वहां प्रकाशित हुआ उससे एक आवाज़ आई- "प्रेम दिव्या हार मत मानो अपने आप के शक्ति को जगाओं अपने दिव्यदृष्टि से तोड़ दो इनका घमंड, अपने अंदर के दिव्यदृष्टि को जगाओं... ऐसा कहते हुए वह पुंज ग़ायब हो गया"

प्रेम और दिव्या अपने इष्ट देव का ध्यान लगाए- "हे परमेश्वर हमें शक्ति दो ताकि सत्य की रक्षा हो सके।"

फिर दोनों ने अपने आँखें खोली तभी उनके मस्तक पर एक दिव्य ज्योति जाग्रत हुआ जिससे वे शैतान छण भर में राख बन गए और दिव्या भी उस गोले से मुक्त हो गई।

वो दोनों आगे बढ़े प्रेम ने देखा उस मूल तक पहुंचने से पहले एक उबली खून की धारा से पार होना पड़ेगा जो मुश्किल था।

इधर दिव्या और दृष्टि में घनघोर युद्ध होने लगा दोनों हार नहीं मान रहे थे तभी दृष्टि ने अपने सारे शक्तियों को एक साथ दिव्या पर वार किया दिव्या उसे सह नहीं पाई।

"हा हा हा अब क्या करोगे प्रेम कैसे उस मायाजाल को नष्ट करोगे और ये दिव्या कैसे मुझे रोकेगी ये तो खुद हार ग‌ई है "

प्रेम- "दिव्या उठो सामना करो अगर तुम आज अपनी बहन से हार गई तो कभी जीत नहीं पाओगी, उठो दिव्या तुम्हें मेरी कसम"

दृष्टि- "ये नहीं उठेगी ये मेरी गुलाम है और आज से तुम भी मेरे गुलाम हो आज के बाद मैं पूरे दुनिया पर राज करूंगी।

तभी दिव्या के शरीर से अनंत प्रकाश की किरणें निकलती है जिससे उसके सारी काली शक्तियाँ नष्ट हो जाती है

प्रेम- "बहुत अच्छा दिव्या अब चलो- 'दिस टाइम टू एक्शन'। ऐसा कहकर प्रेम दौड़ते हुए उस खून की धारा पर छलांग लगा देता है और त्रिशूल को उस मायाजाल के मूल पर गाड़ देता है।"

उतने ही समय में दिव्या भी उठकर दृष्टि की ओर बढ़ती है और त्रिशूल उसके सर पर घुसा देती है दृष्टि इस वार को सह नहीं पाती है और ज़मीन पर गिर पड़ती है।

"प्रेम- देखा पापी चाहे कितना भी कोशिश कर ले लेकिन उसे एक ना एक दिन सजा मिल कर ही रहता है।"

दृष्टि कराहते हुए बोली- "अच्छा तो उस सहस्त्रबाहु को क्यो नही मिली सजा जिसने पूरे गाँव वालों को मौत के घाट उतार दिया, उतना कहते ही वह काला धुआँ बनकर उड़ गई!

प्रेम- "ये दृष्टि ऐसे क्यो बोल रही थी?"

दिव्या- "छोड़ो ना प्रेम "

प्रेम- "नहीं मुझे जानना है'

दिव्या- "वे गाँव वालों के साथ साथ हमारे भी मां बाबा के हत्यारे हैं।"

प्रेम- "क्या ? पर कैसे"

दिव्या - "ये सब बाद में पहले यहां से निकलो यह मायाजाल नष्ट होने वाला है अगर जल्दी हम यहां से नहीं निकले तो हमारी समाधी भी यही बन जाएगा, जल्दी से जैसीका को लेकर निकलो।"

प्रेम और दिव्या जैसिका के पास जाते हैं और उसे होश में लाते हैं।


जैसिका का दिमाग घूम रहा था वह बड़ी मुश्किल से बोली-" प्रेम तुम आ गए, हम यहां कैसे ?"

प्रेम- "ये बहुत लम्बी कहानी है रास्ते में बताउंगा।"

प्रेम जैसिका को गोद में उठाकर वहां से बाहर निकलने लगता है तभी वह मायाजाल नष्ट होने लगता है जैसे तैसे वे बाहर आते हैं।

जैसिका प्रेम को गले लगाकर - ओह प्रेम तुम आ गए

प्रेम- "मुझे तो आना ही था"

दिव्या वहां से जाने लगती है तभी,


प्रेम- "रूको दिव्या कहा जा रही हो"

दिव्या- "मेरे जाने का समय हो गया है प्रेम मुझे जाना होगा लेकिन जाने से पहले मुझसे एक वादा करोगे"

प्रेम- "हां ज़रूर बताओ"

दिव्या- "इस जनम में तो तुम इस चुड़ैल से शादी कर लो लेकिन बाकी जन्मो में तुम मेरे हो।"

प्रेम के आंखों से आँसू छलक ग‌ए- मैं वादा करता हूं"

दिव्या- "अच्छा प्रेम अपना ख्याल रखना"

तभी दिव्या एक प्रकाश पुंज बनकर ग़ायब हो गई,


प्रेम और जैसिका घर आ जाते हैं और सहस्त्रबाहु को सब बताते हैं

सहस्र बाहु- "अच्छा हुआ पाप और पुण्य के जंग में जीत सत्य का हुआ"

प्रेम - "अच्छा सर जी, मेरे मन में एक सवाल है क्या आपने वाकई उस गाँव वालों को और दिव्या और दृष्टि के माँ बाप को मारा है ??"

                               


क्या सचमुच सहस्त्रबाहु ने पूरे गाँव वालों को मौत के घाट उतार दिया क्या दृष्टि सच बोल रही है उसको जानने के लिए इंतजार करे 'दिव्य दृष्टि- एक रहस्य (कलंक)' का


क्रमशः


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