देह दीवार भी दरवाजा भी
देह दीवार भी दरवाजा भी
आज किसी मैगज़ीन में एक लेख की हैडलाइन में लिखा हुआ था,"देह दीवार भी और दरवाजा भी।"आगे पढ़ने पर लगा सच ही तो कह रहा है ये लेखक...
स्त्री की देह वाकई में दीवार ही लगती है कुछ लोगों को,जिसे वे फाँदना चाहते है या फिर फाँदने की इच्छा रखते हैं।
हाँ,और स्त्री को वही देह दरवाजे की तरह लगती हैं।बहुत बार 'किसी' एक की प्रतीक्षा में...
अस्सल में वह देह दरवाजा बन खुला रहता है 'किसी' के लिए और कभी बंद रहता है उसी के इंतजार में....
क्या यह सब देह की बात होती है या फिर स्त्री के मन की कोई भाषा होती है?
मैं भी क्या सोच कर यह सब लिख रही हूँ? पढ़ने वाले पाठक बोलेंगे सब बकवास है ये सब।देह,दीवार,दरवाजा,और स्त्री का मन वगैरा वगैरा।लेखकों का क्या वे तो कुछ भी लिखते रहते हैं।
स्त्री तो बस देह होती है.....