Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

Abstract

3.9  

Priyanka Shrivastava "शुभ्र"

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डायरी के पन्ने - डे सिक्स

डायरी के पन्ने - डे सिक्स

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कोरोना का भय चारो ओर व्याप्त है। यातायात के सारे साधन बन्द हैं। सड़के सूनी है। सभी अपने घर में है। आवश्यक सामग्री के लिए भी बाहर जाने से पहले चार बार सोच रहे हैं 

चारो ओर एक दहशत का माहौल छाया है। और कुछ हो न हो इस दहशत ने मन में अनेक शंकाएं उत्पन्न कर दी है। आदमी का एक दूसरे से विश्वास उठता जा रहा है। एक अपार्टमेंट में रहने वाले भी एक दूसरे को देख दरवाजा बंद कर ले रहे हैं। लगता है यदि कोई सामने पर गया तो  इंसान से नहीं साक्षात कोरोना से सामना हो जाएगा।

सरकार के आदेश की आड़ में सभी ने कामवालियों को अपार्टमेंट में ही आने से रोक दिया है। किसी के घर दाई, ड्राइवर, धोबी , पेपरवाला कोई नहीं आ रहा। कुछ लोगों को छोड़ दें तो कोरोना के भय से सभी के घरों के खिड़की दरवाजे बंद। शहर में कर्फ्यू हो न हो अपार्टमेंट में अवश्य है। 

कोरोना के फैलने से कुछ दिन पहले मेरे फ्लैट के सामने वाले फ्लैट में एक नई नवेली  जोड़ी रहने रहने आई। लड़का के माता-पिता भी साथ आए थे। वो लोग मुझसे मिलने आए। बहुत सज्जन व्यक्ति थे। बच्चे भी बड़े संस्कारी लग रहे थे। हम दोनों पति-पत्नी उनके माता-पिता को आश्वासन दिए कि आप निश्चिन्त होकर जाएँ। बच्चों को कोई परेशानी होगी तो हमलोग हैं। 

22 मार्च को जनता कर्फ्यू के दिन वे बच्चे अपने घर में ही रहे। थाली बजाने भी वे सामने नहीं निकले। शायद बालकनी से ही थाली बजाया हो। हम भी खुश थे बड़े अच्छे बच्चे हैं। एक दिन बाद जब 21दिन के बन्द की घोषणा हुई तो मैंने देखा शाम में दोनों बच्चे बाहर निकल कर कहीं जा रहे हैं। एक अच्छे पड़ोसी और उनके मम्मी डैडी को दिए वचनानुसार मैं तत्क्षण बाहर निकल कर उन्हें टोकी तो उन्होंने कहा - "अभी दवा लेने जा रहे है और सुबह हमलोग कार से बोकारो अपने घर चले जाएँगे। उन्हें ऐसा करने से मैंने मना किया।  मेरे मना करने का असर हो या बन्द का बच्चे नहीं गए। 

मैं सुबह उठ कर उनके बन्द दरवाजे को देख कर निश्चिन्त हो जाती। कल तक पूजा(सामने वाली लड़की) मुझे आवाज दे आने को कहती थी अब अपना दरवाजा तो छोड़ो खिड़की भी नहीं खोलती। मैं भी ठीक ही समझती। कल उसने बाहर से आवाज दिया, कॉल बेल को नहीं बजाई। उसे देख मन में दहशत भर गई क्योंकि शाम में दोनों बाहर गए थे। कब लौटे पता नहीं। कोरोना के भय ने कहा मैं दरवाजा खोली और कोरोना अंदर आया। पर सहमते हुए मैंने दरवाजा खोला और नकली हंसी से उसका स्वागत की। उसने सामने के लाइट की ओर इशारा कर के कहा आंटी सुबह से जल रहा था इसलिए आपको आवाज दी। वो भी डरी हुई थी कि मैं कहीं उसे अंदर आने को न कहूँ। इतना कह कर वह झट अपने घर की ओर मुड़ गई और उसके आशा के विपरीत मैं भी उसे कुछ न कह कर दरवाजा बंद कर राहत की सांस ली।

अब कर्तव्यवश मैं फोन से उसका हाल पूछ लेती हूँ और उसे घर से न निकलने की हिदायत भी।

फिलहाल अपार्टमेंट में मैं सबसे बड़ी हूँ अतः फोन से और व्हाट्स एप्प ग्रुप पर सबका हाल पूछ कर अपना कर्तव्य निभा लेती हूँ। मेरे साथ सभी यही काम कर रहे हैं। अपार्टमेंट के नीचे अकेला एक गॉर्ड और एक कुत्ता जो जन्म से यहीं का हो गया है रहता है।

ग्रुप में सभी हिदायतें देते रहते हैं किसी के घर नहीं आना जाना। अपने घर में रहना। सब्जी का ठेला आता है तो घर से कोई एक आदमी जाता है और दूसरे को बिना देखे या दिख जाने पर झट-पट हाल पूछ वापस आ जाता। यही माहौल हो गया है। 

आज उससे भी कुछ ज्यादा हो गया। मेरे एक पड़ोसी जो बैंक में हैं उनसे बैंक का कोई काम मैंने कहा था। उसे पूरा कर उसे देने वो  मेरे घर आए। दरवाजे पर आवाज दी। रात के आठ बजे रहे थे। डरना स्वाभाविक था। दरवाजा खोल कर कागज उनके हाथ से ली। साइन कर के वापस करना था। न वो अंदर आने को सोचे और  न मैं बुलाई, पर मेरे पति उन्हें अंदर बुलाया और बैठने का आग्रह किया। 

तत्क्षण मेरे मन ने कहा कोई बात नहीं कल सोफा का कवर धो लूंगी। उनसे बात के दरम्यान पता चला वो बैंक से घर आ कर सीधे बाथरूम में जाते हैं अच्छी तरह नहा कर ही बाहर निकलते हैं। उसके बाद ही बेटे को भी गोद लेते हैं।

अब मुझे उनपर तरस आ रही थी कि मेरे घर से जाने के बाद शायद एक बार फिर उन्हें कपड़ा बदलना पड़े या क्या पता नहाना ही पड़े।

हालात तो ये ही हैं कि कल तक जिसके साथ खाना खाने में भी परहेज नहीं था आज उसे देख दरवाजा खोलने और उन्हें अंदर आइए कहने में परहेज है।

सच इस कोरोना ने सामाजिक दूरियाँ बुरी तरह फैला दी है। एकाएक हम सभी असामाजिक हो गए हैं।



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