दान का अंदाज
दान का अंदाज
ऑफिस से घर आते ही नीलिमा अपने पति दिव्यांश से झल्लाते हुए बोली "ये हमारी सोसाइटी का गार्ड "शर्मा" खुद को समझता क्या है?
दिव्यांश ने कारण पूछा तो नीलिमा आंखें फैलाते हुए बोली "आज कार से उतरते हुए मेरे हाथ में थोड़ा ज्यादा सामान था, मैंने उससे कहा भैया थोड़ा मदद कर दो तो वहीं अपनी जगह खड़ा रहा फिर मैंने जोर से बोला तो कहता "ये हमारा काम नहीं है।"
"जैसे अपना सारा काम बड़ी ईमानदारी से करते हैं ये लोग!" नीलिमा बड़बड़ाई।
दिव्यांश ने मामले को समझते हुए रफा-दफा करने के अंदाज में कहा "छोड़ दो ऐसे लोगों के मुंह नहीं लगना चाहिए" दिव्यांश की बात सुन नीलिमा पैर पटकती हुई हुई अपने कमरे में चली गई।
तभी अचानक उसे कुछ याद आया और कमरे से बाहर आते हुए दिव्यांश से बोली " सुनो !,कल तो मां की बरसी है ना,? " दिव्यांश भी मानो नींद से जाग उठा "अरे हां !,देखो कल तक याद था मगर ऑफिस की भाग दौड़ के चलते हम दोनों ही भूल गये। आज दिन भर भी बिल्कुल याद नहीं रहा।"
"वो तो शुक्र है मैं पूजा का सामान , पंडित जी के लिए एक जोड़ी कपड़े, पंडिताइन की साड़ी, दान दक्षिणा का सारा सामान कल ही ले आई थी वर्ना आज तो मुश्किल हो जाती "।
कहते हुए नीलिमा ने अपनी तारीफ करते हुए थोड़ा मुस्कुरा दिया।
मगर दिव्यांश की समस्या अभी पूरी तरह खत्म नहीं हुई थी, और एक लंबी सांस लेते हो बोला "अरे दिन भर की भाग दौड़ में याद ही नहीं रहा, अब इतनी रात गए, कल सुबह आने के लिए किस पंडित जी को न्यौता दें? सुबह हम दोनों को ऑफिस भी तो जाना है!
तभी नीलिमा बोली "कोई बात नहीं, पंडित जी नहीं मिले तो रास्ते में किसी गरीब को ढूंढ कर उसे ही दे देंगे"
दिव्यांश ने नीलिमा की बात काटते हुए कहा
"ना ना, रास्ते भर किस गरीब को कहां ढूंढेंगे?
पूजा का काम है, सामान तो पंडित जी को ही देना होगा"
तभी दिव्यांश की आंखें चमकने लगी मानो उसे कोई हल सूझ गया हो।
जिज्ञासा वश नीलिमा ने पूछा "कोई हल मिला क्या?"
दिव्यांश थोड़ा हिचकते भी बोला "हां, लेकिन..." खैर जाने दो"। दिव्यांश ने बात बीच में ही रोकना चाहा
"लेकिन क्या?" नीलिमा ने उत्सुकता पूर्वक पूछा
"रहने दो" दिव्यांश ने बात बदलनी चाही।
मगर नीलिमा की जिज्ञासा और बढ़ गई, वह बोली "नहीं... नहीं.. बताओ जल्दी बताओ ज्यादा समय नहीं है अपने पास।"
दिव्यांश ने थोड़ा संभलते हुए कहा
" वह अपनी सोसाइटी का शर्मा गार्ड है ना, वह भी तो ब्राह्मण ही है ना!,"
और कहकर दिव्यांश रुक गया।
"गार्ड शर्मा " का नाम सुनते ही नीलिमा आपे से बाहर हो गई , और बोली
"तुम्हें समझ नहीं आती!, वो आदमी जो एक महिला की इज्जत करना नहीं जानता उस गार्ड को मां की बरसी का सामान तो दूर, एक फूटी कौड़ी भी ना दूंगी "
नीलिमा का गुस्सा अभी शांत नहीं हुआ था वो दिव्यांश पर भड़कते हुए बोली" जो आदमी मेरी एक छोटी सी मदद तक करने को तैयार नहीं, उसे मां की बरसी का इतना सारा सामान दे दूंगी! तुमने सोचा भी कैसे?"
"नीलिमा सुनो तो" दिव्यांश ने समझाते हुए कहा
"पूजा पाठ के मामले में ज्यादा गुस्सा नहीं करते। एक तो अपने पास ज्यादा समय भी नहीं है और काम भी ऐसा जिसे कल ही करना जरूरी है।
पूजा समय से होगी तो हम भी ऑफिस जा पाएंगे,"
नीलिमा अपनी मजबूरी को समझते हुए भी आज गार्ड द्वारा की गई बदतमीजी के चलते उसे माफ करने को तैयार ही न थी
की दिव्यांश ने अपने तर्क को आगे बढ़ाते हुए कहा
"ये लोग ऐसे ही होते हैं होली दीवाली इन्हें कुछ देते रहेंगे तो गाहे बगाहे अपना काम भी करते रहेंगे देखना कल पूजा का सामान लेने के बाद तुम्हारे साथ उसका व्यवहार ही बदल जाएगा। हमारी पूजा भी समय पर हो जाएगी और हम दोनों ऑफिस भी जा सकेंगे।"
नीलिमा का गुस्सा एक दम शांत हो गया, उसको दिव्यांश का दान देने का ये अंदाज एकदम भा गया था।