चोर..(लघुकथा)
चोर..(लघुकथा)
वह तीन दिनों से लगभग भूखा था। कई दिनों से कोई दांव हाथ नहीं लगा था। ऐसी स्थिति में, उस ट्रेन में, जा बैठा, निश्चय करके कि आज किसी ना किसी के पर्स पर हाथ साफ करके ही उतरूंगा। ट्रेन के जिस डब्बे में वह बैठा, सामने एक भरी-पूरी फैमिली बैठी थी।
वह गंभीर मुद्रा बनाकर और एक अंग्रेजी मैगजीन खोलकर सामने वाली सीट पर व्यस्त सा दिखता बैठ गया, और उस परिवार की टोह लेने लगा।
परिवार किसी शादी से लौटा था, सुनकर उसकी धड़कनें तेज हो गईं।
"आज तो मोटा हाथ लगेगा।"
गृहणी सुघड़ थी। करीने से सारे सामान को इस तरह जमाया था कि किसी का हाथ तक ना पहुंच सके। "कोई बात नहीं इनके सोने का इंतजार करता हूं"।
हालांकि, आज उससे सब्र नहीं हो रहा था।
पढ़ते-पढ़ते उसने आंखें बंद कर लीं और सोने का अभिनय करते-करते, कब उसे झपकी लग गई पता ही नहीं चला।
"भैया जी। भैया जी। " कहकर वह उसे उठा रही थी।
उसने अकबका कर आंखें खोलीं तो उसके सामने पेपर प्लेट में पूड़ी, आलू की सब्जी, आम का अचार और एक मिठाई का पीस भी था। देखते ही उसकी भूख जाग उठी।
"चलो भैया। आप भी खाना खा लो। "
"अरे। नहीं-नहीं बहन जी। आप परेशान ना हों। "
उसने औपचारिकता निभाई।
"अरे नहीं भैया। इसमें परेशानी की क्या बात है।
हम लोग तो, शादी से लौट रहे हैं। खूब खाना और मिठाई है।
ऐसा कैसे हो सकता है, कि आप सामने भूखे बैठे रहो और हम खाते रहें। "
"लीजिए-लीजिए। " कह कर उसने बड़े प्रेम से प्लेट उसके हाथ में रख दी।
अब उससे रहा नही गया और वो जल्दी-जल्दी खाना खाने लगा।
अभी आखिरी पूड़ी खत्म भी नहीं हुई थी कि गृहणी ने वापस उसकी प्लेट में ना-ना करते भी चार-छह पूड़ियां, ढेर सारी सब्जी और दो मिठाइयां रख दीं।
शायद उसके खाने के अंदाज को देखकर उसे उसकी भूख का अंदाजा हो गया था।
एक क्षण को उसके मस्तिष्क में मां का चेहरा कौंध गया।
खा पीकर उसका पेट भर गया।
उसने सुकून की सांस ली।
बड़े दिन बाद इतना स्वादिष्ट खाना स्नेह-प्रेम से मिला था।
अब उसने, ध्यान से, उस परिवार को देखा।
पति और दो खिलखिलाते बच्चों के साथ वो कितनी संतुष्ट थी।
आने वाली विपदा का उसे ज़रा भी एहसास ना था।
उसका दिल कांप उठा।
अगले स्टेशन पर गाड़ी धीमी होते ही वो उतर गया।