बेचारी..(लघुकथा)
बेचारी..(लघुकथा)
गर्मी की छुट्टियां आ गई थीं!
और आ गई थीं- तीनों ननदे, अपने बच्चों को लेकर!
वह सारा दिन रसोई में लगी रहती!
सबकी पसंद का नाश्ता, बच्चों की फरमाइशे, दिनभर की रेल पेल!
सासू मां जो कभी कभी उसकी मदद कर देती थी, अपनी बेटियों के साथ व्यस्त हो गईं! पर वो खुशी-खुशी सब कर रही थी!
वह भी तो अपने मायके जाकर कहां भाभी की मदद कर पाती थी!
फिर उसे तो शुरु से नई नई चीजें पकाने का शौक था, तो रोज एक से एक नए पकवान बनाती!
सब खुश होकर प्रशंसा करते और वह दूने उत्साह से काम करने लगती!
एक दिन जब गर्मी ज्यादा थी सब लोग कूलर वाले कमरे में दरवाजा बंद करके बैठे थे! रसोई में खाने की तैयारी पूरी करते-करते वह पसीने से लथपथ हो गई, सोचा ज्यादा गर्मी है, चलो सब के लिए ठंडी शिकंजी बना देती हूं! शिकंजी की ट्रे लेकर वह बंद दरवाजे को खोलने ही वाली थी कि अपना जिक्र सुनकर ठिठक गई- माँ! भाभी इतनी गर्मी में सारा दिन किचन में कैसे काम कर लेती हैं, मुझसे तो दस मिनट भी खड़ा नहीं हुआ जाता.. छोटी ननद कह रही थी... अरे! उसे कोई फर्क नहीं पड़ता! गरीब घर की है बेचारी! आदत है काम करने की! तुम फिकर ना करो! और फिर सब की हंसी गूँज गई! वो आंख में आंसू भरे हक्की-बक्की खड़ी रह गई!