छुईमुई सी मोहब्बत
छुईमुई सी मोहब्बत
मैं, अन्जान सामी। आप सब मुझसे खूब अच्छे से वाकिफ़ हो गए होंगें। होना लाज़मी भी है, क्योंकि हम इससे पहले दो बार मिल जो चुके हैं।
मोहब्बत के नाम पर मैं आधा अधूरा सा ही था। उम्र ही ऐसी थी। लड़कपन की। और तो औऱ जिस माहौल में मैं पला बड़ा हुआ था, वहाँ इस तरहा की बातें शर्मसाज़ मानी जाती थी। क्या करता? कैसे जान पाता कि प्यार किस चिड़िया का खूबसूरत सा या खौफ़नाक नाम है!?
पढ़ाई में अव्वल आना चाहता था लेकिन मुई उस अंग्रेज़ी भाषा ने मेरे नाक में दम करके रखा था। सारे पर्चे अच्छे जाते। पर, अंग्रेज़ी का पर्चा आते ही होश नौ दो ग्यारह हो जाते। जितना भी रातभर पढ़ा लिखा होता था क्वेश्चन पेपर को देख मानो यहाँ वहाँ चींटियाँ काटने को दौड़ती। वो भी लाल वाली। और क्यों न हो, आठवीं कक्षा से ही तो अंग्रेज़ी भाषा से पाला पड़ा था। वो भी अंग्रेज़ों की हुकूमत के बदौलत। दसवीं कक्षा में आते आते चारों खाने चित्त हो चुका था।
वो तो भला हो उस अंग्रेज़ी मैम का। उनके साथ दिल्ली से मनाली और उसके आगे हिमालय तक के सफर में काफी बातें सीखा दी थीं। बहुतायत चीज़े, व्याकरण से लेकर अंग्रेज़ी मुहावरे और कहावतें भी जान चूका था। अब तो यूँ लगता था कि मैं पूरे लखनऊ में एकमेव बन्दा हूँ जो इतनी फाडू अंग्रेज़ी लिख पाता हूँ। बोलने में थोड़ी दिक्कतें आती थी जो, उस मैम के कहे पर दसवीं की एक्जाम्स के तुरंत बाद दक्षिणी हिंदुस्तान की सैर के दौरान सीख ही लूँगा।
एक्जाम्स का दौर चल पड़ा। और मैं हिमालयन सैर को बीच मझधार छोड़ लखनऊ लौट आया। अंग्रेज़ी का क्वेशन पेपर बढ़िया तरीके से सॉल्व किया और खुशी खुशी लंदन वाली मैम को मिलने दौड़ पड़ा।
घरवाले शायद तभी से जान चूके थे कि, उनका बेटा अब उनका नहीं रहा। पराया हो चूका है।पर मैं, मैं तो नीले आसमान में उड़ रहा था। अव्वल आने के ख्वाब बून रहा था। डॉक्टरी जो पढ़नी थी मुझें। पर, ये न हो पाया।
प्यार ने निकम्मा बना दिया। डॉक्टरी छोड़ कुछ और करने की कभी नहीं सोची थीं। शायद किसीकी आह लग गई।
ये उन दिनों की बात है जब मैं चौथी या पाँचवीं कक्षा में पढ़ता था। और स्कूल आने जाने में लंबा रास्ता पैदल तय न करना पड़े इसलिए मामूजान ने अपनी पुरानी साइकिल से मुझे छोड़ने - लाने का काम अपने किसी दोस्त रहीम मामू को दे रखा था।
साइकिल की वो सवारी मुझे बहुत लुभाती भी थीं। कुछ महीने यूँही रूखे सूखे ही बीते। की एक दिन जोरों की बारिश के चलते रहीम मामू और मैं बस स्टैंड के पास आ कर खड़े होकर बारिश थमने के इंतज़ार में थे।
मैं बारिश की बूंदों को अपनी हथेली में अठखेलियाँ करते खेल रहा था कि मेरी ही कक्षा में पढ़ने वाली सायरा अपने हिजाब के ऊपर से ओस की बूंदों को झिटकते हुए कुछ गुनगुना रही थीं और तिरछी नज़र से मुझे बारिश में भीगने का न्यौता भी दे रही थी।
रहीम मामू की ओर पर्मिशन लेने के वास्ते एक नज़र डालूं तब तक तो वे मुझें खींचते हुए बीच रास्ते दीवानों की तरह नाच रहे थे और सायरा की मामी भी।
मैं भौंचक्का सा रह गया। सायरा ने मुझें अपनी ओर अग्रसर होने का इशारा किया। मैं भी झूम झूम कर नाचने लगा। पहली बारिश का लुत्फ़ उठाने में इतना मशरूफ़ था कि मुझें होश ही नहीं रहा कि मेरे आसपास क्या क्या घट रहा है।
और मामू और सायरा की मामीजान प्यार भरे गीत गाने में मशरूफ होने लगे।
"बरसात में तुमसे मिले हम सजन, हमसे मिले तुम सजन, बरसात में...
ताक धिना धिन..."
तब जाकर के मुझे पता लगा कि रहीम मामू की भांजी थी सायरा। और मामू और मामी का ही वो प्लान था मुझें सायरा से मिलवाने का। उसे पसंद करके ब्याह रचाने का!
सायरा, छुईमुई सी एक ओर मुझे टुकुर टुकुर देखे जा रही थी और मीठी सी मुस्कान किये चिढ़ा भी रही थी।
ये सिलसिला चार - छह साल तक चलता रहा। भला हो मामूजान और मेरे अब्बा जान का की उन्होंने पढ़ाई को हद से ज्यादा तवज्जो दी और मैं 'बालिकावधू' का शौहर बनने से बच गया। उस बात का ज़िक्र दसवीं कक्षा के इम्तहान आते आते मेरे सामने फिर एक बार दोहराया गया।बहरहाल, अब मेरी ज़ुबाँ भी मद्धम मद्धम खुल रही थीं। मैंने डॉक्टरी पढ़ने का बहाना आगे कर दिया और बात टल गई।पर, सायरा को वो गवारा न था। उसने सरेआम मिना बाज़ार में अपने बचपन के इश्क का इज़हार करते हुए बद्दुआएं दी,
न हो सके ग़र तुम अन्जान मेरे,
तड़पते रह जाओगे बेजान से।
चाहोगे जिसे, मिलेगी न कभी तुम्हें,
उल्फ़त का मज़ा लूटकर ठुकरायेगी वो तुम्हें!!*
दसवीं के इम्तेहान खत्म होते होते मैं अंग्रेज़ी मैम की मोहब्बत में दीवाना सा हो चूका था शायद से। ग़ौरतलब तब हुआ जबकि उनके एक के बाद एक लव लेटर्स होंठो की मोहरों के साथ मेरे नाम आने लगे। वर्ना, ये अन्जान सायरा की मोहब्बत की गिरफ्त का गुनहगार कबका हो चूका होता।
लेकिन, कहतें हैं ना कि, हर किसीको अपने हिस्से की खुशी और मोहब्बत पाने के लिए जी तोड़ मेहनत करनी पड़ती है। तभी जाके खुदा बंदगी कुबूल करता है। इश्क भी मुफ़्त में नहीं मिलता। उसकी बहोत बड़ी और भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है।इस मामले में मैं खुशनसीब था। अंग्रेज़ी मैम के फिर से मेरी ज़िंदगी मे आते ही बहार सी छा गई।
हम एक साथ फिर से दक्षिणी छोर की ओर घूमने निकले। इस बार मैं बग्गी के बाहरी हिस्से में कम और भीतरी हिस्से में ज़्यादा बतियाता था।और वो भी शायद यही चाहती थीं। लुत्फ़ उठाने का हर एक मौका वो अपने अंदाज में पा ही लेती थीं।कभी उर्दू सीखने के बहाने से मुझें उसके टैंट में बुलवा लेती। तो कभी झील की सैर करने के बहाने से मुझें छू लेती।
लेकिन मैं, बेतकल्लुफी करने से झिझकता, सिकुड़ता और लड़कपन की उस घबराहट में मेरी ज़ुबाँ लड़खड़ाने लगतीं। हाथ पैर थर थर काँपने लगते। पीलिया की तरह सारा बदन पिला पड़ जाता। दिल धड़कने लगता। धड़कने तेज़ हो जाती। मैं खुद अपनी इस बेवकूफ़ी से ख़फ़ा था। लेकिन, जवानी का शुरुर समझने में नाकामयाब रहा।
भीतर से खुद भी उसकी कम्पनी एन्जॉय करता था। चाहता था कि वो हमेशा के लिए मेरे इर्दगिर्द मँडराती रहे। लेकिन पता नहीं उसके आने से 440 वाल्ट का झटका सा लगता और मैं बेहोश!!
दसवीं कक्षा का वैकेशन खत्म होने को है। अब अगली छुट्टियों में मुलाक़ात होगी। इस दौरान ख़त का सिलसिला जारी रखने का वादा लेकर वो चली गई। फिर एक बार लंदन। मेरे हाथों पर अपने गुलाबी होंठों की लाली चिपकाकर।
शायद,
मुक़म्मल जहां ज़ीनत को मिलें, समझूँगा ज़न्नत मुझे जीते जी मिल गया।

