Turn the Page, Turn the Life | A Writer’s Battle for Survival | Help Her Win
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Vinayak Ranjan

Abstract Action

4.9  

Vinayak Ranjan

Abstract Action

चाईनिज बल्ब💡

चाईनिज बल्ब💡

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एक और अगस्त क्रान्ति मगर थोड़ा होमवर्क तो कर लें हजुर। इस इंटरनेट युग में तो आपने धमाल ही कर रखा है, अपने गलियों चौक चौराहे शहरों से निकल अब तो दुनियां के सोशल नेटवर्क में घर बैठे ही वे उड़ान भर लेते हैं चलंत सभा की भाषण दिया और अपने-अपने फेसबुक पेज पे पिक्चरों फोटो विडियोज चिपका दिया। वाह नेताजी वाह-वाह बहुत बढियान। ई देखिए कित्ते लाईक मिले देश-बिदेशो के लाईक। अरे वाह और फीडबैक-कमेंट की तो प्रिंट निकालो। फाईलिंग पुख्ता करो डेट के साथ। एन्ड्रोएड पे ब्लुटूथ से भेजो। नेताजी फिट, इण्डिया हिट!

"हजुर परणाम् जी हम्म् गणेशी! उ फरीदुआ बिहाने आएल रहे मचान से हजुर। मोबैले अपनै के फोटो दिखैले रहा हजुर। हजूर! एक ठो बात कहें ई बेर राजधानी से आईबे घङी एगो नैका टॉर्च लेबे आइएगा हजुर। राते गाँव में बङ दिक्कत होई बरसाते साँप-बिच्छू ढेर निकलल हजूर"

"अच्छा अच्छा मुनीरवा से पचास गो ले लेना आरो हटिया से एगो चायनीज टॉर्च खरीद लेना समझे!"

"जी हजूर।"

अब जाने ना ई ट्वीट ईण्डिया मूवमेंट बा क्वीट ईण्डिया मूवमेंट मेक इन ईण्डिया डीजीटल ईण्डिया से का होई जब एगो गाँव खातिर किफायती टॉर्च त देश मा ना बनी औरो उ दिवाली के भगजूगनी आरो बच्चा सब के खिलौना होली के पिचकारी सब ते चायनीजे मिलल ईहां त ईण्डिया मा का बनी!

बक्सर इंजीनियरिंग कॉलेज २०१३-१४ के दिनों में इस भोजपुरी चटनी का जायका पहली बार में मेरे मुँह लगा था। जो बहुत कुछ दिखा गया था, उस वक्त। कॉलेज के चारों ओर दूर दूर तक फैले उस हरे-भरे जंगलों वाले भूभाग में कुछ भी लेटेस्ट नहीं था, इंजीनियरिंग कॉलेज होने के बावजूद इलेक्ट्रिक कनेक्शन तक सरकार ने मुहैय्या नहीं करवाया था वहाँ। तीन-चार साल पहले खुला वो इंजीनियरिंग कॉलेज तब भी जेनरेटर सेट के भरोसे ही चल रहा था, और भूभागीय अक्खड़ सा परिदृश्य। चार-पाँच किलोमीटर दूर पटना-बनारस को जोड़ती रेलवे लाईन थी, और ग्रामीण सड़कों पे दौड़ते टेम्पो और जीप सवारी मोटरें। खेतों में ट्रेक्टर और सभों के पॉकेट में मोबाईल। इसके अलावे मॉडर्न कल्चर सा कुछ भी नहीं था, वहाँ के फैशन में। लेकिन रेलवे स्टेशन से सटे हाट-बजार में बिकते टॉर्च, इमरजेंसी लाईट, मोबाईल चार्जर, रेडियो वगैरह वगैरह जो भी थे, सभी चाईनिज थे और वे भी एक साधारण गाँव वाले पॉकेट के हिसाब से। इन सामानों का मेड इन इंडिया वर्जन कुछ भी न था, वहाँ और कुछ थे भी तो वो आम जनता के रेंज से बाहर। मानों हमारी इंजीनियरिंग आज भी मँहगी थी और हम उतने ही गरीब। हाँ, लाचार नहीं थे क्योकि वहाँ मेड इन चाईना जो था। और फिर मजबूरी का नाम गाँधी जी। हम तो आज भी उनके नाम की माला ही फेरते आ रहे थे।

सच में, उस वक्त मुझे बुरा कुछ भी नहीं लगा और फिर लगे भी क्युं! आखिर वो बेचने वाला भी तो हमारी ही सेवा कर रहा है। देश की सेवा कर रहा है। देश की जरुरतों को पूरा कर रहा है। सस्ती जरुरतें और मँहगी मशक्कत। विदेशी सामान बेच रहा है, और वो भी एक बीहड़ इलाके में। गुरु विश्वामित्र के इलाके में। वैश्विक मित्रता जो आज भी बची हुई है। मानों हम मौन समाधी में रमें हों, और फिर मित्र ही मित्र के काम आता है कि विवेचना। वो मित्र कितना अच्छा है, जिसने मित्र के दुख दर्द को समझा और उसकी जरुरतों को पूरा किया। सिर से लेकर पैर तक। मित्र! बस तुम मौन ही बने रहो, आँख मिचौली खेलते रहो। पीठ थपथपाते रहो। कभी-कभी आँख भी दिखाते रहो। मैं बुरा नहीं मानुंगा। तुम्हारी हर जरुरतों की चीज मुहैया करवाऊंगा। तुम बस इधर न पहुंचना, ना तो इन रास्तों को ही देखना। बस टकटकी बाँधे चाँद-तारों को ही देखना और नए-नए मिशन बनाना। तुम्हारी इंजीनियरिंग चाँद-नवग्रहों के रास्ते और मेरी इंजीनियरिंग तुम्हारे रास्ते। तुम वहाँ ट्यूबलाईट लगाना, और मैं तुम्हारे यहाँ बल्ब चायनीज बल्ब! हाँ, फिर ये सब हमने तो वसुधैव-कुटुम्बकम् परंपराओं से ही सीखा है, कि कुछ तुम मुझसे लेना और मैं तुमसे। मिलजुट कर खाना, हँसना-गाना और समय आऐ तो तालियां बजाना। मगर आज कम्प्यूटर के की-बोर्ड बज रहे थे तो कहीं सैटेलाइट चैनलों की खबरें।

कल तक जो भाई-भाई थे तो आज नवयुगी दुश्मन। माफ किजीऐगा आप आज जिस छाते में बारिश से बचकर या रेन-कोट पहने नए बनते समाचारों की रिपोर्टिंग कर रहे हैं ना, तो देख लें कही वो भी 'मेड इन आईना' नहीं। आईना का मतलब आपको या हमको हम सभी को आईना दिखाने वाला।

फिर भी हम सोऐ रहे। कुछ नहीं तो अनुशासित ही बन जाते। जिस देश ने अपनी संख्यात्मक बल का प्रयोग, विश्वभर की सारी की सारी जरुरतों के सामानों की सस्ती से सस्ती प्रोडक्ट मैन्युफैक्चरिंग में झोंक डाला तो हम बस उनके नामों की "मेड इन चाईना" फिल्म ही बनाते रहे या वर्ल्ड ट्रेवलर बने अपने "चाँदनी चौक टू चाईना" जाते आते रहे। ऐसे में भी हमने चाँद-मंगल पे जाने वाली डेमो वर्जन "मिशन मंगल" के सपने को पूरा किया अपने फिल्मी सफर में। भले ही ओरिजनल वर्जन की कसरतें हमें कुछ और ज्यादा करनी पड़े और फिर हमारा सिस्टम ही यही हैं,

भाषण दो पोस्टर चिपकाओ और अगले पाँच सालों के लिए सो जाओ। ऐसे भी यहाँ की स्ट्रैटेजिक योजनाऐं कुछ पंचवर्षीय जामों के साथ ही आती हैं, और हम अपने फरमानों में ही खूश रहते हैं। और फिर जिस कल्चर में सफेद खद्दरों को पहन सच बोलने और आगे ले चलने का ठेका मिला हो तो, बाकि चीजों से क्या मतलब। फिर भले ही किसी धन्ना सेठ ने अपने घर का कीमती झूमर या फर्निचर विदेश से खरीदा हो, लेकिन उस गरीब खेतिहर किसान का क्या दोष जो उसने टॉर्च चाईनिज खरीदी उसमें लगी बैट्री और चाईनिज बल्ब के साथ।

इंजीनियरिंग कॉलेज, डिपार्टमेंट अॉफ इलेक्ट्रॉनिक्स के लैब असिस्टेंट पाठक जी कहते हैं कि इंजीनियरिंग प्रोजेक्टों में लगने वाले कितने ही सेंसर जो आज भी चाईना से ही मँगाने पड़ते हैं ईण्डिया में कहीं भी नहीं आसानी से नहीं मिलता।

और फिर भी हम चाँद पे, पहुंचने की रट लगाए रहते हैं। अपनी जमीन को बंजर छोड़े, जहाँ भूख ही भूख मची रहती है चारों ओर तो आपके भावों का जखीरा जो बसता जाता है लिए यहाँ के मौजूदा अभियानों से दुरह होड़। संभवतः मैं पृथ्वी के उस भूभाग पे तो कतई नहीं था, जिसे पिछले कुछ सौ-पाँच सौ या हजार सालों से जाना पहचाना जा रहा हो या फिर अभी-अभी वहाँ सोने-हीरे व कोयले की कीमती खदानें हाथ लगी हों।

मैं बक्सर में था, हाँ थोड़ा अमीर था, मगर चाईना- अमेरिका में नहीं था। पास जो थे वो बिल्कुल वैसे ही जंगलों से भरे संसर्ग थे, जैसे इन्हीं जंगलों में कभी महर्षि विश्वामित्र व चौरासी हजार ऋषि मुनियों ने तप किया हो। फिर वो तो श्रेता युग भगवान राम-लक्ष्मण के दिनों की बात थी, और आज इन्हीं बीहड़ों में एक इंजीनियरिंग कॉलेज जो खुला पड़ा है कुछ सेवानिवृत्त वैज्ञानिकों के अथक प्रयास से। ये २०१२-१३ की बात थी, और मैं लगभग २०१५ तक उस संस्थान के साथ जुड़ा रह पाया था। लेकिन प्राप्त जानकारियों में आज उस संस्थान में भी ताला जड़ा है। जबकि उस भूभाग के मध्य व ग्रामीण पृष्ठभूमि से निकले बच्चे मानसिक व वैचारिक रुप से काफी समृद्ध थे, और फिर तमाम विपरीत रुझानों के बावजूद मेरा उस संस्थान से जुड़ाव उन बच्चों के कारण ही बन पाया था। वे आज की न्यू फैशन्ड सुविधाओं से कोसों दूर थे, मगर लगनशील व मेहनती थे, और फिर इन अनुसंशाओं की पुष्टि आज भी खूब दिखती है।

मुगल सल्तनत व ब्रिटिश राज में ये प्रक्षेत्र भोजपुर के नामी डुमरांव राज का हिस्सा था। जिसकी चौहद्दियां दूर मीलों तक पसरी थी। स्टेट जमींदारी व एग्रीकल्चर फिल्ड होने के बावजूद तीन-चार नामी कल-कारखाने यहाँ चला करते थे। जो आज वर्षों से बंद पड़े हैं। कहें तो किसी जमाने में इंडिया के औद्योगिक मानचित्र पर सबसे ऊपर रहे डुमरांव का औद्योगिक वजूद अब पूरी तरह मिट गया है।

जिस कारण यहाँ के हजारों श्रमिक बाहरी राज्यों में पलायन को मजबूर हुए, और फिर सरकारी उदासीनता से एक-एक कर बंद हुए यहाँ के कल-कारखाने आज तक किसी सरकारी डेवलपमेंट प्रोग्राम्स को अपनी ओर खींच नहीं पाऐ। १९७०-८० के दशक में जो डुमरांव एक औद्योगिक हब के रूप में उभरा था, और तब यहाँ डुमरांव टेक्सटाईल के साथ ही लालटेन फैक्ट्री, स्टील उद्योग, कोल्ड स्टोरेज जैसे बड़ी औद्योगिक इकाईयां थी। जहाँ हर दिन हजारों कामगार काम करते थे। तब इन बड़ी औद्योगिक इकाइयों के साथ डुमरांव में लघु व कुटीर उद्योग भी अपने चरम पर था जहा एक बड़ी आबादी को रोजी रोटी का जुगाड़ घर बैठे ही हो जाता था। यहाँ की तंग गलियों में कही भेड़ पालन व हस्तकरघा उद्योग चलाया जाता था तो प्रसिद्ध सिन्धोंरा उद्योग भी ख्याति अर्जित कर चुका था। इसके अलावे मोमबती, अगरबती सहित कई अन्य कुटीर उद्योग भी पनप रहे थे।

लेकिन बाद के दिनों में सरकारी उपेक्षा के कारण यहाँ के रोजगार लगातार बंद होते गए। यहाँ तक की वर्ष २००० तक डुमरांव में बिहार, उत्तर प्रदेश, बंगाल, उड़ीसा जैसे राज्यों के कोने कोने से सैकड़ों जन-मजदूर यहाँ आकर नौकरी करते थे, और यहाँ की फैक्ट्रियों के प्रोडक्ट पूरे देश में जाते थे तो इसके अलावे कृषि उत्पाद भी खेतीहर किसानों की आमदनी का एक बड़ा जरिया था। इस इलाके का दक्षिणी हिस्सा गन्ना तथा धान के उत्पादन में महत्वपर्ण था तो उत्तरी हिस्सा गेहूं के साथ ही मक्का की फसल के लिये जाना जाता था।

तब यहाँ एक ग्लेज्ड टाईल्स फैक्ट्री भी स्थापित हुई थी, लेकिन वो उदघाटन से पहले ही यह बंद हो गई। १९८० के दशक में जब यहाँ के समृद्ध उद्योग धंधों पर सरकारी व्यवस्था की उदासीनता के कारण सारे कल कारखाने एक-एक कर बंद होते चले गये, इन बड़े उद्योगो के बंद होने का असर लघु व कुटीर उद्योगो पर भी पड़ने लगा और फिर बारी-बारी से यहाँ के हस्तकरघा, अगरबती, मोमबती जैसे कुटीर उद्योग के साथ ही डुमरांव में बनने वाला हस्तनिर्मित सिंधोरा उद्योग भी चौपट हो गया। इन उद्योग धंधो के चौपट होने का सबसे बड़ा नुकसान यहां के मजदूरों को हुआ है, जो रोजगार की तलाश में दूसरे प्रदेशो में लगातार पलायन करने लगे और आज यहाँ कि ये हालत हैं कि इनके पॉकेट का ख्याल सस्ती चाईनिज सामानें ही रखती नजर आती हैं। देश भर में मोमबत्ती और लालटेन सप्लाई करने वाला जगह आज पचास रुपये के चाईनिज टॉर्च को खरीदता नजर आता है। विवशता जो चरम पे हैं, और आर्थिक नीतियां गौण।फिर जो मूल श्रमजीवी थे वे यहाँ से माईग्रेटेड हैं, और हम विदेशी श्रमजीवियों के पोषक बने हुए हैं।

मानों हमारी दिमागी बत्तियां भी चाईनिज बत्तियों की तरह जली पड़ी हैं, और हम कम दामी मजे ले रहे हैं।


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