अभिनय तो अभिनव है
अभिनय तो अभिनव है


वो बड़े से दो खाकी लिफाफे मेरे बिस्तर के नीचे ज्यों के त्यों ही पड़े रहे; जिन्हें सो कॉल्ड ‘प्रेस आयरन’ की सख्त आवश्यकता थी। आज वर्षों बाद भी ये लगता है कि समय रहते मैने सही निर्णय लिया था उस वक्त; और फिर ऐसा तब ही हो पाता है जब आपके मन का निर्देशक जाग जाता है। बात फाईनल ईयर इंजीनियरिंग की है। समय रहते मैने एफ टी आई आई पूणे और एन एस डी दिल्ली के एंट्रान्स एग्जामिनेशन वाले फॉर्म मँगा कर भर लिए थे। लिखे अनुसार उनके बैंक ड्राफ्ट्स भी बना कर उन्हें रिक्वायर्ड डॉक्युमेंट्स व सर्टिफिकेट के साथ अलग अलग दो बड़े से लिफाफों में भर कर पते के साथ सील्ड पैक कर चुका था।
अगले दिन जब उन दोनों लिफाफों को पोस्ट करने की बारी आयी तो मेरे कदम जकड़ से गए थे; और कल से आज तक का अपना निर्देशन अब उन लिफाफों को पोस्ट कर देने से साफ मना कर चुका था और मैने चुपचाप उन दोनों लिफाफों को अपने बिस्तर के नीचे रख दिया। उसके कुछ दिनों बाद ही इंजीनियरिंग फाईनल ईयर २००२ के एग्जाम चालु हुए थर्ड ईयर के भी तीन पेपर जो उस फाईनल ईयर एग्जाम के साथ ही देने थे।
जैसे ये एक अंतिम लड़ाई थी और मैं अपने मोर्चे पे तैयार खड़ा था। एक के बाद एक सारे पेपर खत्म हुए और फिर जुलाई में आऐ रिजल्ट में मैने फर्स्ट डिवीजन से इंजीनियरिंग पास की फाइनल ईयर के साथ थर्ड ईयर के भी सारे पेपर जैसे एक झटके में निकल गए। मैं खुद आश्चर्य में था कि आखिर ये सब हुआ कैसे फिर जो बात ध्यान में आयी वो ये कि अगर मैं एन एस डी और एफ टी आई आई के दोनों भरे लिफाफों को रजिस्टर्ड पोस्ट कर देता तो संभवतः फाईनल ईयर इंजीनियरिंग के ऐसे रिजल्ट मुझे कभी नहीं मिले होते; और फिर अब तो कोई मलाल रहा ही नहीं। कॉलेज लाईफ के तमाम सर्टिफिकेट्स के साथ मेरा फाइनल रिजल्ट भी अब मेरे पास ही था।
फिर ऐसा होता है; कि एक डायरेक्शन में आगे बढते बढते आपका दिली रुझान किसी नए डायरेक्शन में जाने की इच्छा जताने लगता है।
और फिर वो कुछ खासा ही दिलचस्प रोचक सा लगने लगता है; लेकिन आपका अभिनय जो किसी स्टेज पे पूरा हुआ ही नहीं तो दूसरी ओर बढ जाने की ये चाहत कैसी? याद है ये कॉलेज के गलियारों में मिली वो किऐ गए स्किट शो ड्रामा की सुर्खियों से बना अपना कंफीडेंस ही था जिसने इंजीनियरिंग लाईफ को और रोचक बनाने का काम किया था। फिर पढाई तो सभी किया करते हैं; और इस लिहाजन पढाई लिखाई के साथ मिले किसी भी अवसर को बटोर लेने की जद्दोजहद ही मन को खूश रखा करती थी। इंजीनियरिंग के बाद मैं पूणे फिर नई दिल्ली और फिर अहमदाबाद होते नवंबर २००३ की घर वापसी। नई दिल्ली में भी वर्ष २००३ एक मीडिया मैनेजमेंट एग्जाम दे आया था खैर २००४ मार्च पूर्णियाँ के ही एक इंजीनियरिंग कॉलेज में बतौर लेक्चरर का जॉब मिल पाया। ये बिल्कुल ही संतुष्ट करने जैसा था; और वो भी अपने शहर में। मेरे अभिनय का एक नया अभ्यारण्य मेरे शब्दों में कुछ ऐसा ही। फर्क बस इतना कि मेरे लेक्चर क्लासरुम्स ही मेरे नए स्टेज होते और सामने बैठे मेरे स्टूडेंट्स मेरे दर्शक; जैसे स्क्रिप्टिया नैरेशन तो हर दौर की बनी होती है जिसे हम जीते जाते हैं। फिर आपके भावों की सकारात्मकता जो एक नया उत्साह हमेशा बनाऐ रखती है और आपकी अभिव्यक्ति यूं ही निकलती बढती रौंधती चली जाती है जैसे हमारी नसों में दौड़ता खून।
मानों आपकी सचेष्ट अभिव्यक्ति ही जीवन है; जो कभी शुष्क ना पड़े किसी भी तरह के अवांछित बंधनों के बगैर बिल्कुल ही उन्मुक्त; बशर्ते की आपने अपने अनुभवों में क्या कुछ देख रखा है क्या कुछ सीख व समझ रखा है। जो भी हो आपके निष्कर्ष व निर्णयों के माध्यम तो वे ही बने दिखते हैं। नहीं तो हम सभों की प्रकृतियाँ कितनी ही भिन्न-भिन्न। जन्म से ही; और फिर सब के सब अपने ही ‘जीवंत-अभिनय’ से भरपूर अनूठे। इंग्लिश का एक ‘यूनिक’ वर्ड; ‘युनिवर्लिस्म’ से निकला और इसी ‘यूनिटी’ वाले अनूठे एकत्रित सांचे में ढला एकाकी या सम्यक।
आपकी कुशलता; जिन्हें आपके घर-आंगन; स्कूलों व कॉलेजों के गलियारों में भले ही खूब समर्थन मिलते दिखते हो लेकिन ऐसे समर्थनों का हर बार मिल पाना और वो भी जीवन के अति-प्रतियोगी ज्ञान कक्षाओं में तो ये सब कुछ बेईमानी सा ही है या फिर सिर्फ और सिर्फ अपनी बात मनवाने हेतु एक प्रकार का जिद्द! नहीं तो इन सभी बातों से अच्छा एक आम इंसान की तरह सभों के बीच खुशी बाँटते ही चला जाय; खुद को किऐ अपने अभिनव प्रयासों के बीच खुश रखकर। ये सबकुछ मानवीय अवस्थाओं की एक दूसरे से जुड़ी भावनात्मक श्रृंखलाऐं ही हैं;
जिन्हें आप जीवन कहते है मानों एक अद्भुत शक्तियों से भरा वन आपके अभिनव अभिनयों से सजा अभयारण्य। सभी जीव-जंतुओं इंसानों को प्रकृति के साथ जोड़े; एक ईश्वरीय निर्देशन।
और फिर हमारे महान ईश्वर जगत-निर्माता खुद दिखते भी कहाँ हैं; इन सभी बातों के बावजूद हम खोये रहते हैं अपने-अपने नैसर्गिक अभिनयों में उन्हें खोजते रहते हैं हर दिन श्रद्धा भक्ति के साथ खुद के आत्मिय अभिनव को जगाकर। मानों सबसे बड़ी संतुष्टि उनके ही समक्ष; फिर राह चलते जो मिल जाऐ मंदिर मस्जिद गिरजाघर या गुरुद्वारे; और आपका तत्क्षण अभिनय ही आपका धर्म।
फिर आपके जीवन के सभी सत्कर्मों में आत्म-संतुष्टि जी भर कर होनी चाहिए। चाहे आप जहाँ भी रहें। अच्छी बातों को जानने समझने पढने की स्थिति हमेशा अनुकूल ही बनी रहती है। घर परिवेश की सारी जवाबदेहियों व कर्तव्यों में जिस प्रकार किसी भी कृत्रिमता से आप बचे रहते हैं; अपने श्रद्धेय भावों को लिए; तो वही स्पष्ट अभिनय ही आपका मार्ग प्रशस्त करता है बाहरी दुनियां के लिए। बशर्ते की भिन्नताओं से भरे अभिन्न संसर्ग अवश्य मिला करेंगे; लेकिन उन्हें आत्मसात करने वाले अभिनव का निर्देशन आप स्वयं करते दिखेंगे व आपका अभिनय भी दिखेगा। यहाँ कुछ भी कमतर नहीं; हाँ एक कृत्रिम सा ‘रुपहला’ शब्द जो जरुर बनता दिखता है लेकिन वो क्षणिक व अस्थिर ही तो है।
‘रुपहला’ आपके रुपक से संचालित है और फिर इन्हें देखे परखे जाने वाले ज्ञान-कोष्ठ भिन्न-भिन्न मुद्राओं में; सभ्यता व अनुशासन में। ये कभी आपके मन-मुताबिक एक नहीं हो सकते; और रुपक संघर्ष करने लग जाता है। फिर आपके सामने आपके विद्यार्थी ही क्यों न हों। आपको देख पाने, सुन पाने व समझ पाने की इच्छाओं में सभों की श्रद्धा-शक्ति व गरिमा भिन्न प्राय ही तो होती है।
और इन्हीं अनुदेशों में गुरुत्व बल भी भटकने को बाध्य होता है अपने अभिनय के साथ। फिर वो तमाम कोशिशें जिन्हें आप स्थिर रख पाने की होड़ में लगे थे; प्राप्त मन:संदेशों के अभिनव में जीने लग जाते हैं। अवसर जो असीमित हैं; और आपकी इच्छा दूर वनों में भी जागृत हुए जाती है। वर्ष २०१२ दिसंबर शहरी वातावरण को छोड़ मैं सुदूर बक्सर जा पहुंचा था; एक अभिनय जो वहाँ भी जीवित मिला अभिनव श्रृंगार के साथ। नए शब्द भी फूटे तो नई संकल्पना भी बनती दिखी। जबकि सार-गर्भ का विशेषण भी साथ-साथ आत्मीय बना हुआ था। अभिनय जीवित था, तब भी अपने अभिनव के साथ संघर्ष जो तत्क्षण मौन था।