Bharat Bhushan Pathak

Tragedy Inspirational

3.3  

Bharat Bhushan Pathak

Tragedy Inspirational

चाॅकलेट्स

चाॅकलेट्स

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आज उसके चेहरे पर वो भाव, वो चमक नजर नहीं आ रहा था। पहले तो उसे देखते ही प्रतीत हो जाता था कि मानो आज फिर आतंकित हो जाएगा वो पानवाला। होता भी क्यों न उस बच्ची के आते ही अजीब सा समां बँध ही जाता था। मुकेश बाबू ने भी उसे देखा था जब वह पान का बीड़ा लगवा रहे थे।

आते ही उसने पानवाले से जब ये पूछा कि "चाचा चाॅकलेट्स दो न" और पानवाले ने जब उसे डाँटा था कि "चाॅकलेट्स नहीं मिलेगी", तब वह उदास होकर चुपचाप वहाँ से चली गयी थी। मुकेश बाबू और पानवाले सोच ही रहे थे कि खामखाँ बच्ची उदास हो गयी।

यह क्या तभी वो पूरे दम-खम के साथ लगभग दर्जनों भर बच्ची के साथ आई थी और आते ही एक योद्धा की भाँति अपने दल को इशारा करते हुए बोली, "आक्रमण "

इस पानवाले के सारे चाॅकलेट्स ले लो और सारे बच्चे दल के मुखिया की बातों को मानकर उस दुकान के अन्दर इस तरह जाने लगे थे जैसे वो दुकान नहीं दुश्मन का बंकर हो। बेचारा पानवाला हाय-तौबा मचाने लगा, पर लगता था उन्होंने पूरी तैयारी ही कर रखी थी एक डब्बा फेंका तो दूसरा झोला पकड़ता। देखते ही देखते सारे चाॅकलेट्स ग़ायब। ऐसी कमाल की टोली थी वो...

उनके जाने के बाद पानवाले ने मुकेश बाबू की तरफ देखकर मुस्कराते हुए पान पकड़ाते हुए कहा, "पता है बाबूजी मैं झूठ का नाटक कर रहा था। असल में मैं निरू बिटिया व अन्य बच्चों को इस प्रकार मेरे दुकान से चाॅकलेट्स ले जाते हुए देखता हूँ तो बड़ा सुकून मिलता है मुझ को।"

और वह पहले से दुकान में लगे अपनी चौकी के नीचे से सारा चाॅकलेट्स निकालकर अपने दुकान में सजाने लगता था। मुकेश बाबू ने सोचा कि अजीब आदमी है इतना नुकसान के बाद भी मुस्कुरा रहा है।

पर उन्हें बाद में सच्चाई पता लगी थी कि पानवाले का बड़ा ही खुश हाल परिवार था। बेटा, बहु, पोता, नाती व नतिनी। कितना खुश हाल परिवार था उसका। पर न जाने किसकी नजर लग गयी थी उसके परिवार को...

बेटा जो फौज में था दुश्मनों से लोहा लेते -लेते ही शहीद हो गया था। बहु अपने मायके चली गयी थी और बेटियाँ अपने ससुराल। सब कुछ अच्छा चल रहा था बेटियों के यहाँ, पर अचानक ही पानवाले को खबर मिली थी कि उसके दामाद, बेटियाँ, नाती और नतिनी सब एक सड़क दुर्घटना में काल के गाल में समा गए।

आज तो वह बच्ची बड़ी हो गयी थी, पहले की तरह ही उस दुकान में पहुँची थी फिर वह.....पर आज वह नादानियाँ, वो बदमाशियाँ कहाँ नज़र आ रही थी उसके चेहरे से। आते ही उसने बस इतना ही कहा था "चाचा चाॅकलेट्स देना।" उसका यह कहना पानवाले को उसकी बचपन की याद करा गयी थी, वह बोला भी था "शायद आज तुम्हारी बचपन की याद ताजा हो गयी निरू बिटिया", वह कुछ बोली नहीं और मुस्कुराने की कोशिश करती -सी आगे बढ़ने को हुई। पर उसके आँखों से आँसू छलकने को ही थे पर उन्हें लगभग पोंछती सी पानवाले को पैसे देते हुए वहाँ से चली गयी।

पानवाले का मन हुआ कि पूछे उससे कि "कैसी हो निरू बिटिया", पर वह हिम्मत न कर पाया। उसने देखा था मेजर रणधीर के पार्थिव शरीर को जब उन्हें तिरंगे में लपेट कर लाया गया था।

मेजर रणधीर अर्थात निरूपमा के पति जिन्होंने कश्मीर की घाटी में दुश्मनों को धूल चटा दिया था। साथ ही अन्त में एक मॉर्टार गन ने इस माँ के लाल को माँ के आँचल में चैन से लिटा दिया था।

पानवाले का भी बेटा फौज में था, परन्तु शायद मेजर रणधीर की शहादत ने फिर से उसके अन्दर के पिता को जगा दिया था। शायद मेजर रणधीर में उसे फिर से अपना बेटा दिखाई दे रहा था।

आज निरूपमा जब आई तो मन किया था उसका कि वह एक पिता की भाँति अपनी निरू बिटिया को अपने कलेजे से लगा ले और कह दे कि "बिटिया तुम घबराना नहीं, जानेवाली को कौन रोक सकता है।" परन्तु उसकी हिम्मत न हुई।

निरूपमा को देखते ही पानवाले को लगता था बच्ची फिर से आएगी और कहेगी कि "चाचा चाॅकलेट्स दो, नहीं तो तुम जानते ही हो।" पर निरूपमा यानि उसकी निरू बिटिया तो अब कहीं खो गयी थी और उसकी वो नादानियाँ तो पानवाले के ज़हन में रह गयी थी।



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