❤️बसंती बुरांश
❤️बसंती बुरांश
सुबह अपने पूरे यौवन के साथ मदमस्त चाल से पहाड़ों को गले लगाने के लिये दौड़ी चली जा रही थी , आसमान अलसाया या रोज़ की तरह अपनी नीली चादर बिछा के बैठा था।
कई महीनों से बर्फ़ से ढकी घास सूरज की रौशनी पाकर अपनी कमर सीधी करने लगी। पहाड़ों पर रौनक़ लौटने लगी। सर्दियाँ वापस लौट रही थी , और वसंत किलकारियाँ मार रहा था। जाड़ो के प्रकोप से बचने को मैदानों की तरफ प्रवास कर चुके पहाड़ी चरवाहे वापस अपने घर हिमालय लौट रहे थे। अपने घर यानि दूर हिमालय की गोद मे बसें एक छोटे से कस्बे चम्बा मे। जहाँ से शिव का कैलाश नज़र आता है। हल्की पगडंडियों से होकर गुज़रते गोल - गोल रास्ते। और चारों तरफ प्रकृति का ढेर सारा सोना। लम्बे - लम्बे देवदार , बांज , खरस्यू के पेड़ों से छन - छन कर आती हवाओं का संगीत घोषणा कर रहा है कि लौट जाओ शिशिर वसंत आया है !
महीनों से बंद पड़ी चाय की , कपड़ों की ,गिफ़्टस और अनाज की दुकानों के शटर अब उठने लगेव्यापारी अपनी - अपनी दुकानों पर पड़ी धूल को झाड़कर साफ कर रहे थे। और साथ ही माँ चम्बा से प्रार्थना कर रहे थे कि इसबार बहुत अच्छा रहे सीजन। और फ़िर से सैलानियों की आवाजाही से चम्बा गुलज़ार होने लगा था।
"बसंत। बसंत। बसंत !!! अरे भाई कहाँ मर गया ?"
चाचा फूलती हुई साँसों के साथ दौड़े - दौड़े गौशाला की तरफ आ रहे थे और लगातार बसंत को आवाज़ मार रहे थे। बसंत यहीं कोई 20-22 साल का गोरा चिट्टा पहाड़ी लड़का था।
माँ बाबा तो बहुत साल पहले ही मर गए थे। अपना कोई था नहीं तो चाचा और चाची ने ही पाल पोछ कर बड़ा किया था। चाची के ख़ुद के भी दो बच्चे थे गोपाल और गीता। गोपाल को पढ़ा लिखा के अफसर बनाने के लिये शहर भेज दिया था और गीता गाँव के ही स्कूल मे 11 वी कक्षा मे पढ़ती थी।
बहुत साल पहले जब यहाँ अंग्रेज साहब का समय था तब चम्बा मे गोरे साहब लोगों ने डाक बंगला बनाया था। खूबसूरत विक्टोरिया स्टाइल मे बनाया गया बंगला। बँगले मे देवदार और अखरोट की लकड़ी से बेहतरीन नक़्क़ाशी की गई थी। मुख्य सड़क से एक पतला सा ईंटो का बना खड़ंजा बँगले की तरफ जाता था। अंदर जाने के लिये एक पुराना टूटा हुआ गेट था। बँगले के सामने हरी घांस का खूबसूरत लोन बना हुआ था। जिस पर बांस के बने पुराने कुर्सी मेज डाले हुए थे। लोन मे बैठ कर नज़र डालो तो दूर - दूर तक फैला विशालकाय बुरांश के फूलों का जंगल नज़र आता था। जिसके आगे अंतहीन हिमालय सदियों से बैठ कर मौन साधना कर रहा है। उस महाशक्ति की।
अरे कहाँ मर गया रे बसंत ?
बसंत गौशाला मे गोबर निकाल रहा था। चाचा की आवाज़ सुनकर बाहर दौड़ा चला आया। उसकी पैंट घुटनों से ऊपर तक मुड़ी हुई थी। हाथ और पैरों मे गोबर लगा हुआ था। जिसकी बदबू चाचा के नथुनों को छिल रही थी।
" उम्म्म हम्म्म्म। क्या गन्दी बदबू आ रही है तुझ से। अरे बैल बुद्धि गोबर तो साफ कर के आता। " नाक पर रुमाल रखते हुए चाचा ने मुँह बनाया।
" अरे चाचा गोबर ही तो है। और गोबर से खुशबू आती है बदबू नहीं जरा सूंघ कर तो देखो ?"
और हँसते हुए बसंत ने अपना हाथ चाचा की तरफ कर दिया। वो अकसर चाचा को छेड़ता रहता है। चाचा गलियाते हैं फ़िर भी कोई फ़र्क नहीं पड़ता चाचा एकदम से दो कदम और पीछे हो गए।
" अरे राम राम। राम। दूर हट पापी। अभी नहा कर आया हूँ। तू जल्दी से नहा धो कर अच्छे कपड़े पहनकर सीधा डाक बँगले पहुँच जा "
ज़्यादा यहाँ वहाँ की बातों मे समय बर्बाद न करते हुए चाचा मुख्य बात पर आ गए। असल मे आजकल डाक बंगला फॉरेस्ट डिपार्टमेंट के अंदर आता था और उन्होंने बँगले की देखभाल के लिये चाचा को केयर टेकर के रूप मे रखा था। एक तो चाचा वही के स्थानीय निवासी ऊपर से उनकी चापलूसी ने उन्हें ये नौकरी दिलवाई थी।
महीनें की हर 10 तारीख़ को चाचा की तनख्वाह यानि 500 रुपये पोस्ट ऑफिस के माध्यम से सीधा घर आ जाती थी।
"500 रुपये मे कहाँ गुज़ारा होता है आजकल। मन करता है कि बँगले की ये नौकरी छोड़ दूँ "
ऐसा चाचा अकसर कहते हैं। पर छोड़ नहीं पाते क्योंकि इन 500 रुपियों के साथ ही आउट हाउस के 6 कमरे भी मिले थे ऊपर से पानी बिजली फ्री। और बँगले से सटे आठ दस खेत जिन पर चाचा ने सेब ,आड़ू के पेड़ लगाए थे वो अलग थे। और कभी कोई साहब आ गया तो टिप के साथ ही खाने पीने के इंतज़ाम के नाम पर हज़ार दो हज़ार रुपये सो अलग। बाक़ी बांस डंडो से एक गौशाला भी बना ली थी जिसमे 2-3 भैंसे और एक गाय पाली थी।
बसंत नहा धोकर डाक बँगले पहुँच गया।
चाची ने उसे झाड़ू पकड़ा दिया।
" तू यहाँ साफ सफाई कर ,मैं ज़रा रसोई मे देखती हूँ क्या है ? ये साहब लोग भी ना बताते नहीं हैं टाइम से। अचानक आ जाते हैं। "
बड़बड़ाते हुए चाची रसोई मे चली गई। बसंत फटाफट काम करने लगा 10 मिनट मे उसने पूरा झाड़ू झाड़ लिया। बैड शीट बदल दी ,नए फूल लगा दिये कमरों मे ख़ुशबू छिड़क दी। सब कुछ अपनी जगह पर रख दिया गया।
बसंत काम के मामले मे बहुत ही कुशल है खाना बनाने से लेकर ,गाय दुहने तक ,लकड़ियों को छिल कर अलग - अलग कलाकृति बनाना हर काम मे एक्सपर्ट।
शाम घिर आयी थी चाचा मेहमानों को लेने चले गए।
"चाची कौन आ रहा है आज ?"
बसंत ने उत्साह से चाची से सवाल किया।
"अरे है कोई जंगल का बड़ा अफसर। डेफो (DFO)"
बसंत को बड़ा अच्छा लगता है जब कोई बँगले मे आता है। उसे मेहमानों से बात करने मे उनकी सेवा करने मे बड़ा आनंद आता है। साथ ही बहुत सी चीज़े सीखने और सुनने को भी मिलती हैं। मेहमानों से।
नीचे सड़क पर हॉर्न बजा। ये बसंत के लिये सिग्नल था कि जल्दी नीचे आओ मेहमान आ गए हैं।
क्रमशः