ब्रह्मराक्षस
ब्रह्मराक्षस
केरल के कोट्टायम नामक जगह पर एक कुलीन घराने में एक बुद्धीमान बालक ने जन्म लिया। उसका नाम भीमाविक्रा रखा गया। नाम के अनुरूप वह बालक बहुत मेधावी और बलशाली निकला। बचपन से ही उसे कुश्ती का शौक चर्राया। उसके पिता ने उसके लिये, अपने महलनुमा कोठी में एक पहलवान का प्रबंध कर दिया। भीमाविक्रा, दुध-घी पीता और खुब दंड पेलता। युवावस्था तक पहुँचते-पहुँचते वह एक नामांकित पहलवान बन चुका था। धीरे-धीरे उसके नाम की किर्ती चहुँओर पसरने लगी। वह अपने बल और बुद्धी पर इतराने लगा। जब तब वह किसी निर्दोष को उठा कर पटक देता और जोर-जोर से हँसता। उसकी शिकायते उसके पिता तक पहुँचने लगी। किंतु वृद्ध पिता की वह एक ना सुनता। उलटा कभी-कभी वह उन्हें मारने को दौडता। इस प्रकार वह किसी बिगडैल सांड की तरह इधर से उधर भटकते रहता।
जब कभी भूख लगती तो वह किसी के खेत में घुस जाता और जो भी हाथ लगे, उसे खाता जाता। मुर्गीयों को तो वह कच्चा चबा जाता। उस पर राक्षसी प्रवृत्तीयाँ प्रबल होने लगी थी। अब तो वह किसी का कत्ल भी सहज ही कर देता था।
राजा के सिपाही भी उसे पकडने में असफल थे। सभी उससे भयभीत रहने लगे थे। कुछ लोग तो अपना खेत खलिहान घरबार सब छोड कर भाग खडे हुए। धीरे-धीरे गाँव खाली होने लगा। भीमाविक्रा को खाने के लाले पडने लगे। पशु भी अब उसकी पकड के बाहर हो गये थे। वह मरणासन्न अवस्था में अपनी मौत की प्रतिक्षा करने लगा। कुछ ही दिनों के बाद उसकी मौत हो गयी और उसके कुकर्मों की सजा के रूप में उसे ब्रह्मराक्षस की योनी में जन्म प्राप्त हुआ। वह अब और अधिक उग्र और बेचैन रहने लगा। उसने कई पुराणों का अध्ययन किया और अपने भुख को ज्ञान के माध्यम से बुझाने लगा। उसे अपने पुर्व कर्मों का ज्ञान था। वह प्रायश्चित करने लगा। अब वह अपने ही राज्य के किसी गरीब के घर भेस बदल कर रहता और उसके काम कर देता। काम करते रहने से उसे अपने पुराने दिन भुलने में मदद मिलती। लोग उस भलेमानस को दुआए देते। इस प्रकार वह प्रायश्चित करते हुए अपने पापों को काट रहा था।
एक दिन वह भेस बदल कर एक मंदिर के पुजारी के घर काम करने पहुँचा। वह भगवान कृष्ण का मंदिर था। वहाँ उसने देखा कि वह पुजारी मंदिर के सारे काम खुद ही किया करता रहा था। सुबह मंदिर की सफाई फिर नहा धो कर भगवान का स्नान, पुजा अर्चना करता।
तब घर जाकर खाना बनाता और दोपहर से पहले भगवान को भोग लगाता। तब जाकर खुद खाना खाता। दोपहर को जरा देर सो जाता तब संध्या इत्यादी से निवृत होकर, फिर से भगवान की आरती आराधना करता। रात को खाने का भोग लगाने के बाद भगवत गीता का पठन करता। उसे सुनने के लिये गाँव से बडे बुजूर्ग आया करते थे। पुजारी बडे मन से श्लोकों का स्पष्ठ उच्चारण करता हुआ उनका अर्थ भी समझा कर बताता। भीमाविक्रा के कानों में ही गीता के श्लोकों पडने लगे। जैसे जैसे वह उन श्लोकों को सुनने लगा वह ब्रह्मराक्षस की योनी से मुक्त होने लगा। उसके पाप पुरी तरह से कट गये थे। अतः अब उसकी मुक्ती निश्चित थी। किंतु वह सम्पुर्ण गीता को अपने कानों से सुनना चाहता था। उसने भगवान कृष्ण से प्रार्थना की कि मुक्ति के पहले वह संपुर्ण भगवत गीता का पाठ सुनना चाहता है। भगवान ने हँसते हुए उसकी इच्छा पुर्ण की। भीमाविक्रा रोज शाम को अनवरत गीता का पाठ सुनने लगा। और फिर वह दिन भी आ पहुँचा जिस दिन गीता का अंतिम अध्याय पुरा हुआ और भगवान के कथनानुसार उसकी ब्रह्मराक्षस की योनी से पुर्णतः मुक्ति हो गयी। उसने प्रण लिया कि वह भगवान के श्री चरणों रह कर पुजा पाठ करता रहेगा। अनेक वर्षों तक उसने पूजा अर्चना की और वह ऋषीतुल्य बन गया।
