Sandeep Murarka

Classics Inspirational

4.0  

Sandeep Murarka

Classics Inspirational

बिरसा मुण्डा

बिरसा मुण्डा

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जन्म : 15 नवम्बर 1875

जन्म स्थान: उलीहातू गाँव, राँची, झारखण्ड

निधन: 9 जून 1900

मृत्यु स्थल : राँची कारागार

पिता : सुगना मुंडा

माता : करमी हटू

जीवन परिचय - बिरसा मुंडा का जन्म छोटानागपुर पठार के जजातीय मुंडा परिवार में हुआ था। बिरसा का बचपन एक सामान्य वनवासी बालक की तरह घोर दरिद्रता में, जंगलों में घूमते और बकरियां चराते हुए ही बीता। मिशनरीज की सेवा, चिकित्सा और शिक्षा से प्रभावित होकर धर्मपरिवर्तन का दौर चल रहा था, गरीबी और भुखमरी से तंग आकर सुगना मुण्डा ने भी अपने पुत्र बिरसा सहित ईसाई धर्म अपना लिया। साल्गा गाँव में प्रारम्भिक पढ़ाई के बाद बिरसा को चाईबासा के लूथर मिशन स्कूल में नामांकन करवा दिया गया, किन्तु वहाँ का रंगभेद व जातीय भेदभाव उनके मन को कचोटता रहता और उनके हृदय में अंदर ही अंदर एक आक्रोश पलने लगा । विद्यालय में रहकर बिरसा ने अंग्रेजों के कुचक्रों को समझा और विद्यालय छोड़ कर घर लौट आए।

उन्होने ईसाई धर्म त्याग दिया , 1891 में एक वैष्णव आनन्द पाण्डे के सम्पर्क में आकर आयुर्वेद, पुराण, रामायण, महाभारत सहित वैदिक साहित्य का अध्ययन किया किन्तु बिरसा संतुष्ट नहीं हुए, वे भीषण भुखमरी और विपन्नता से घिरे ट्राइबल्स समुदाय पर होते अत्याचारों को देखकर चिंतित रहते । एक बार इसी चिन्ता में बारह-तेरह दिन वे भूखे-प्यासे जंगल में भटकते रहे। कहा जाता है कि इसी एकान्तवास में उन्हें परमसत्ता सिंङबोंगा से साक्षात्कार हुआ या यूँ कहें कि आत्मसाक्षात्कार हुआ । बिरसा मुण्डा अब धरती आबा बन चुके थे , धरती के भगवान । 1894 में पड़े भयंकर अकाल और महामारी में धरती आबा बिरसा ने गाँव में पूरे मनोयोग से ट्राइबल्स की सेवा की थी ।

स्वतंत्रता संग्राम में योगदान- बिरसा मुण्डा ने वर्ष 1895 में चालकाड़ में यह उद्घोष किया ' "अब वह दिन दूर नहीं जब अंग्रेज हमारे चरणों पर गिरकर अपने प्राणों की भीख मांगेंगे। आओ, हम एकजुट हों, अब हमारा राज्य आने वाला है।" अबुआ: दिशोम रे अबुआ: राज अर्थात अपने देश में अपना शासन ।

इसी के साथ बिरसा ने अंग्रेजों के खिलाफ उलगुलान की घोषणा करते हुए फसल बोने से ट्राइबल्स को रोक दिया ।इस विरोध की खबर मिलने पर अंग्रेज पुलिस 8 अगस्त, 1895 को बिरसा को पकड़ने चालकाड़ आई पर ट्राइबल्स के भीषण सशस्त्र प्रतिरोध के आगे वह बिरसा को छू तक न सकी। 23 अगस्त, 1895 को अंग्रेज पुलिस आयुक्त ने बिरसा और उसके आन्दोलन को कुचलने का आदेश दिया। इस बार रात के समय चुपके से पूरे गांव को घेर लिया गया और बिरसा को सोते हुए पकड़ कर रांची जेल में बन्द कर दिया गया। 19 नवम्बर, 1895 को बिरसा को दो वर्ष के कठोर कारावास और पचास रुपये जुर्माने की सजा सुना दी गई। 30 नवम्बर, 1897 को बिरसा को जेल से रिहा हुए ।

रिहाई के बाद बिरसा ने अंग्रेजों के साथ मुकाबला करने के लिए ट्राइबल सेना संगठित की, जिसका मुख्य केन्द्र खूंटी बनाया गया। 25 दिसम्बर, 1899 को बिरसा सेना ने सखादाग मिशन हाथे पर चढ़ाई कर दी। मिशन का परिसर जला दिया गया। दूसरी बार बिरसा ने अपनी सेना को कई टुकड़ियों में बांटकर पुलिस थानों पर हमला करने के आदेश दिए। बिरसा ने तीर कमानों से लैस चार सौ ट्राइबल वीरों के साथ खूँटी थाने पर धावा बोल दिया। तांगा नदी के किनारे उनकी भिड़ंत अंग्रेज सेना से हुई , उनकी जीत भी हुई लेकिन कई ट्राइबल्स की गिरफ़्तारियां हो गई। बिरसा और उनके आन्दोलन को कुचलने के लिए अंग्रेज फौज खूंटी और डुम्बारी की पहाड़ियों की ओर कूच कर गई, पर उन्हें पकड़ने में अंग्रेज असफल रहे।

इसके बाद बिरसा दुगने उत्साह से ट्राइबल्स को संगठित कर जंगल पर दावेदारी के लिए गोलबंद करने लगे। इस उलगुलान से महाजन, जमींदार और सामंत ही नहीं अंग्रेज अफसर भी भय से कांपने लगे। अंग्रेज सरकार ने उलगुलान को दबाने का हर संभव प्रयास किया , लेकिन ट्राइबल्स के गुरिल्ला युद्ध के समक्ष अंग्रेज असफल रहे। धरती आबा बिरसा का एक ही लक्ष्य था - “महारानी राज तुंदु जाना ओरो अबुआ राज एते जाना” यानी कि ‘ ब्रिटिश महारानी का राज खत्म हो और हमारा राज स्थापित हो।'

25 जनवरी 1900 में उलिहातू के समीप डोमबाड़ी पहाड़ी पर अंग्रेजों और सूदखोरों के विरुद्ध आयोजित एक जनसभा में बिरसा ट्राइबल्स को सम्बोधित कर रहे थे कि अचानक अंग्रेज सैनिकों ने हमला कर दिया, दोनोँ पक्षों मे जमकर संघर्ष हुआ, ट्राइबल्स के हाथों में तीर धनुष, भाला, कुल्हाड़ी, टंगीया इत्यादि थे, परन्तु दुश्मन की बंदूक-तोप का सामना पारंपरिक हथियार भला कब तक कर पाते, अंततः लगभग 400 लोग मारे गए, जिनमें औरतें और बच्चे भी थे । कई लोग गिरफ्तार कर लिए गए । बिरसा की गिरफ्तारी का वारंट जारी हो गया, उनपर रुपए 500/- का इनाम घोषित हुआ ।

बिरसा छिपते हुए अपने लोगों से मिलते मिलाते उलगुलान का प्रसार प्रचार करते हुए चक्रधरपुर पहुँचे, तारीख थी 3 मार्च 1900, अगली रणनीति पर चर्चा चल रही थी, रात हो चली थी, धरती आबा ने 'जम्कोपाई' जंगल में रात बिताने का निर्णय लिया, देर रात जब सबलोग सो रहे थे, किसी अपने ने ही धोखा किया और बिरसा को उनके 460 साथियों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया ।

बिरसा को खाट सहित बांध दिया गया था, भोर हो चली थी, बंदगांव के रास्ते उन्हें राँची जेल ले जाया जाय़ा गया, उस वक्त अपने उलगुलान को जिन्दा रखने के लिए धरती आबा ने जो शब्द कहे, उन्हे कागज पर उकेरा "अश्विन कुमार पंकज" ने - “मैं तुम्हें अपने शब्द दिये जा रहा हूं, उसे फेंक मत देना, अपने घर या आंगन में उसे संजोकर रखना। मेरा कहा कभी नहीं मरेगा। उलगुलान ! उलगुलान! और ये शब्द मिटाए न जा सकेंगे। ये बढ़ते जाएंगे। बरसात में बढ़ने वाले घास की तरह बढ़ेंगे। तुम सब कभी हिम्मत मत हारना। उलगुलान जारी है।”

अदालत में बैरिस्टर जैकब ने बिरसा की ओर से बहस की किन्तु पूर्वाग्रह से ग्रसित अंग्रेज जज ने सजा सुना दी । बिरसा राँची जेल में कैद थे किन्तु उनके द्वारा छेड़े गए उलगुलान से अंग्रेज अब भी भयभीत थे । कुनीति में माहिर अंग्रेजों ने यह अफवाह फैला दी कि धरती आबा को हैजा हो गया है जबकि उन्हें खाने में प्रतिदिन धीमा जहर दिया जाने लगा । 9 जून 1900 को धरती आबा बिरसा मुण्डा के शरीर का अन्त हुआ । किन्तु भगवान मरा नहीं करते, इस दृष्टिकोण से वे आज भी जीवित हैं और इस धरती के अन्त होने तक जीवित रहेंगे, इसीलिए साहित्यकार हरीराम मीणा लिखते हैं-

"मैं केवल देह नहीं 

मैं जंगल का पुश्तैनी दावेदार हूँ,

पुश्तें और उनके दावे मरते नहीं

मैं भी मर नहीं सकता,

मुझे कोई भी जंगलों से बेदखल नहीं कर सकता ।

उलगुलान !

उलगुलान !!

उलगुलान !!! ’’

सम्मान - 16 अक्टूबर 1989 को संसद के केंद्रीय हॉल में बिरसा के चित्र का अनावरण तत्कालीन लोकसभा अध्यक्ष बलराम जाखड़ ने किया। 1988 में भारत सरकार द्वारा बिरसा मुंडा पर 60 पैसे की डाक टिकट जारी की गई । दिनांक 28 अगस्त 1998 को संसद परिसर में मूर्तिकार बी सी मोहंती द्वारा निर्मित 14 फीट की प्रतिमा का अनावरण राष्ट्रपति के आर नारायणन ने किया गया । झारखण्ड की राजधानी राँची के एयरपोर्ट का नाम बिरसा मुंडा विमानक्षेत्र है । 1 अप्रेल 2017 को गुजरात के नर्मदा जिले में बिरसा मुण्डा ट्राइबल यूनिवर्सिटी की स्थापना की गई है , वहीँ राँची में बिरसा कृषि विश्वविद्यालय की स्थापना 26 जून 1981 को की गयी थी । झारखण्ड के बुंडू, सिंदरी, सरगरिया, बलियापुर, बोकारो, हरचंदा , चंदरा, सराईकेला, राँची, बेको, बालसोकडा, जमशेदपुर, धनबाद, गोड्डा, बिजुपाड़ा, धौनसर, बासदेवपुर, ओड़िशा के राउलकेला, पश्चिम बंगाल के गमारकुमरी, कानपुर इत्यादि स्थानो पर बिरसा के नाम पर विभिन्न विद्यालय संचालित हैं । रांची खेल परिसर में बिरसा मुण्डा एथेलेटिक्स स्टेडियम बना हुआ है , वहीँ चाईबासा, सराईकेला एवं चांडिल के छोटालाखा में बिरसा मुण्डा के नाम पर स्टेडियम बने हुए हैं । विभिन्न स्थानो पर कई अस्पताल एवं पार्क का नामकरण बिरसा मुण्डा के नाम पर हुआ है । उनकी जन्मस्थली अड़की प्रखंड के उलिहातू गांव में बिरसा स्मारक स्थल (बिरसा ओड़ा) है । बिहार, बंगाल, ओड़िशा और झारखण्ड में हजार से ज्यादा बिरसा की प्रतिमाएँ स्थापित है, सबसे बड़ी बात कि धरती आबा यहाँ के लोगों के दिल में अंकित हैं ।


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