पद्मश्री जल पुरुष सिमोन उरांव
पद्मश्री जल पुरुष सिमोन उरांव


जीवन परिचय - झारखण्ड की राजधानी राँची के सुदूर गांव खक्सी टोला में जनजातीय परिवार में सिमोन बाबा के नाम से लोकप्रिय सिमोन उरांव मिंज का जन्म हुआ था। पिता तीन भाई थे, एक चाचा फौज में भी गए और द्वितीय विश्वयुद्ध में लड़े, उस समय सैनिक की जान की कीमत पाँच रुपए मासिक हुआ करती थी। पिता कृषि की आजीविका से जुड़े थे, किन्तु सिंचाई की असुविधा के कारण गांव में कृषि नगण्य हो गई थी, वर्ष में चार माह जमकर बारिश हुआ करती थी, पर जल सरंक्षण की कोई सुविधा तो थी नहीँ, ना ही छोटे मोटे बाँध मूसलाधार बारिश में टीक पाते थे, सो गांव के लोगों की आजीविका अब कृषि नहीँ बल्कि पेड़ों की लकड़ियाँ बेचना हो चला था। पिता ने जैसे तैसे सोमेन को चौथी कक्षा तक पढ़ाया या यूँ कहें कि अक्षर ज्ञान करवाया। सूखे ने घर को सूखा दिया, गरीबी ऐसी बढ़ी कि जमीन की मालगुजारी के चालीस रुपए बकाया हो गए, पिताजी चुका ना सके, सो एक खेत नीलाम हो गया। सात साल की उम्र में सोमेन बकरी चराने लगे। परिवार की गरीबी का आलम यह था कि मडुआ का रोटी और सरई का फल खाकर गुजर बसर होती। इसी गरीबी में 1955 में विवाह भी हो गया, एक तो गरीबी, ऊपर से घर में नए सदस्य का प्रवेश । गांव में किसी से पता चला कि लगभग 50 किलोमीटर दूर चुटिया में सिविल कंस्ट्रक्शन का कार्य हो रहा है, पर जाते कैसे, कोई साधन तो था नहीँ, लेकिन भूख को चाहिए था भोजन और भोजन के लिए जरूरी था रोजगार। सोमेन प्रतिदिन भोर में पाँच बजे ही चुटिया के लिए निकल पड़ते और देर रात लौटते, प्रतिदिन 50 किलोमीटर पैदल जाना, वहाँ पसीना बहाना और फिर 50 किलोमीटर वापस आना। यह संघर्ष उन युवाओ के लिए प्रेरक है जो कम पॉकेट मनी मिलने पर यदि अपनी जरूरत पूरा करने के लिए ट्यूशन भी कर लेते हैँ, तो उसे संघर्ष का नाम देते हैँ।
सोमेन को तीन पुत्र हुए , जोसेफ, सुधीर और आनन्द। जिनमें आनन्द का निधन 2013 में हो गया। सोमेन का परिवार कैथोलिक धर्म का भी अनुयायी है। सोमेन बाबा जतरा टाना भगत को अपना आदर्श मानते हैँ।
योगदान - सोमेन ही नहीँ गांव के कई अन्य लोग भी रोजगार की आस में चुटिया जाने लगे। सोमेन तो प्रतिदिन रात को लौट आते थे, परन्तु उनके कई साथी वहीँ रहने लगे, यानी गांव से पलायन आरम्भ हो गया। एक ओर गांव की गरीबी, दूसरी ओर बेरोजगारी और अब पलायन की एक नई समस्या, सिमोन को यह सब कचोटने लगा।
सोमेन के गांव में छः झरने थे, सघन बारिश भी हुआ करती थी, किन्तु सिंचाई की व्यवस्था नहीँ थी, सोमेन ने ग्रामीणों को बांध बनाने का प्रस्ताव दिया किन्तु सहयोग नहीँ मिला। कुछ ग्रामीण तो इस प्रस्ताव पर हँस पड़े कि यह उनके बस का नहीँ। कुछ को अपनी जमीन जाने का भय सताने लगा। आत्मविश्वास से लबरेज सोमेन ने हार नहीँ मानी। 1961 में कुदाल लेकर अकेले निकल पड़े। धीरे-धीरे ग्रामीणों का साथ मिलने लगा। गांव के झरिया नाला के गायघाट के पास नरपतना में 45 फिट का बांध बनाया गया। किन्तु अगले ही मानसून के दौरान तेज बारिश में बांध बह गया।
उसी वर्ष उन्होनें गांव के पास पहाड़ियों की तलहटी में एक जलाशय बनाने के लिए ग्रमीणों को प्रेरित किया। इसका लाभ यह हुआ कि गांव में सब्जियों की भरपूर पैदावार हुई। अगले वर्ष नरपतना के बांध का मरम्मतीकरण एवं सुदृढ़ीकरण किया गया। सोमेन ने खक्सी टोला के निकट छोटा झरिया नाला में 1975 में दूसरे नए बाँध का निर्माण किया। 1980 के आसपास सिमोन के प्रयास से लघु सिंचाई योजना के अन्तर्गत हरिहरपुर जामटोली के निकट देशवाली बाँध का निर्माण हुआ। साथ ही अगले कुछ वर्षों में अलग अलग प्रयासों में अंतबलु, खरवागढ़ा व अन्य कई स्थानों में चेकडैम बने। सोमेन ने ग्रामीणों की मदद से साढ़े पाँच हजार फीट लम्बी कच्ची नहर निकाली। आज इन्हीं बांधों से सरकार द्वारा हजारों फिट पक्की नहर निकालकर खेतों तक पानी पहुंचाया जा रहा है। सिमोन बड़े बांधो के खिलाफ हैँ, इनका मानना है कि छोटे छोटे बांध बनने चाहिए, क्योंकि ये पर्यावरण को नुकसान नहीँ पहुँचाते।
बांध के अलावा सोमेन ने अधिक से अधिक तालाब खुदवाने पर जोर दिया। हरिहरपुर जामटोली, बिलति, भस्नांडा, बारीडीह, बोदा, महरू, हुटार, हरहंजी आदि गाँवों में कई तालाबों का निर्माण हुआ। हर टोले में पीने के पानी के लिए कुएँ खुदवाए।
सोमेन ने कहा कि बरसात का पानी नालों और नदियों से होता हुआ, समुद्र में चला जाता है, इसे रोको। यानी जल संग्रहण पर जोर दिया। उन्होंने कहा कि नलकूप जमीन के नीचे के पानी को को सोख लेते हैँ, इसलिए नलकूप की जगह कुएँ और तालाब खोदे जाएं, यानी जल संरक्षण पर जोर दिया।
सोमेन के प्रयासों से 2000 एकड़ से अधिक भूमि पर खेती होने लगी है। जहॉ साल में एक फसल नहीँ होती थी, वहीँ सिंचाई की व्यवस्था हो जाने पर कई योग्य कृषक एक से ज्यादा फसल कर रहे हैँ। विशेषकर उस क्षेत्र मे सब्जियों की पैदावार में काफी वृद्धि हुई है। बेड़ो ब्लॉक की सब्जियाँ राँची, जमशेदपुर, बोकारो व कोलकत्ता तक जातीं हैँ।
उरांव जनजाति में गांव समाज का संचालन स्वशासन प्रणाली के अन्तर्गत किया जाता है। गांव के धार्मिक क्रिया कलाप 'पाहन' द्वारा संचालित किए जाते हैँ। पाँच से ज्यादा गांवो के संगठन को 'पड़हा' कहते हैँ और इसका प्रमुख 'पड़हा राजा' कहलाता है। 1964 में सोमेन को बारह गांवो का पड़हा राजा चुन लिया गया। आज सोमेन वहाँ के 51 गांवो के पड़हा राजा हैँ।
1967 में भारी आकाल पड़ा, लोग दाने दाने को मोहताज हो रहे थे। ऐसे में सिमोन ने सामूहिक खेती पर बल दिया। गांव में जो भी खेती से सम्बन्धित हल, बैल,पम्प,मशीनरी, इक्यूपमेंट इत्यादि थे, वे सब एक जगह एकत्रित किए गए। प्रतिदिन किसी एक कृषक के खेत को तैयार किया जाता और सभी मिलकर उसपर काम करते। धीरे धीरे गांव के सभी खेतों में जोताई और बुआई हो गई। करीब करीब 250 एकड़ खेतों में मुख्यतः गेहूँ बोया गया। दैवीय कृपा से फसल भी अच्छी हुई। आज के गावों में पारिवारिक हिस्सों में बंटे छोटे छोटे खेतों के लिए इस प्रकार की सामूहिक खेती की अपार संभावनाएँ हैँ।
सोमेन की समाजसेवा की यात्रा यहीं नहीँ रुकी। उन्होंने 1976 में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम शुरू किया। स्वयं प्रतिवर्ष 1000 वृक्षारोपण का लक्ष्य निर्धारित किया, साथ ही ग्रामीणों को वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया। अपने जल अभियान से जोड़ते हुए उन्होंने प्रचारित किया कि वृक्ष जल संसाधनों के क्षरण को रोकने
में सहायक हैँ। लोगों प्रोत्साहित हुए, उनके गांवो में आजतक जामुन, आम, साल, कटहल के लगभग 50 हजार से ज्यादा वृक्ष लगाए जा चुके हैँ। सिमोन पेडों की कटाई के कट्टर विरुद्ध हैँ, जंगल माफियाओं का विरोध करने पर इन्हें जेलयात्रा भी करनी पड़ी है।
सोमेन ने प्रत्येक गांव में 25 सदस्यीय ग्राम समिति का गठन किया। जो जल संरक्षण, जल संग्रहण, वृक्षारोपण, सामूहिक खेती, सब्जियों की मार्केटिंग को प्रोत्साहित करती है और पेड़ों की अवैध कटाई को रोकती है। प्रत्येक सप्ताह बृहस्पतिवार को इन ग्राम समितियों की बैठक होती है। किसी ना किसी एक समिति की बैठक में सोमेन बाबा स्वयं भी उपस्थित रहते हैँ। यदि गांव में कोई छोटा मोटा विवाद होता है तो ग्रामीण उसकी पंचायती करवाने सोमेन बाबा के पास आते हैँ। सोमेन उन्हें एक बात अवश्य समझाते हैँ कि 'आदमी से नहीं, जमीन से लड़ो, उसपर अन्न का कारखाना तैयार करो, विकास होगा, तुम्हारा भी, गांव का भी। अगर विनाश करना है तो आदमी से लड़ो।'
बहुमुखी प्रतिभा के धनी सोमेन का फूस और टीन से बना घर छोटे बड़े कई थैलों से भरा पड़ा है, जिनमें कई प्रकार की जड़ी बूटियाँ हैँ। क्योंकि सोमेन बाबा लोगों का देशी इलाज भी करते हैँ, जड़ी बूटी से दवा बनाते हैँ, अनपढ़ सोमेन आयुर्वेदिक चिकित्सक भी हैँ।
वर्ष 2009 में बारिश न होने के कारण सूखे की मार खेल रहे झारखंड को आधिकारिक रूप से सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया था। वैसी विपरीत परिस्थितियों में भी बेड़ो ब्लॉक के कई गांवो में अच्छी फसल हुई, जिसका सम्पूर्ण श्रेय सोमेन उरांव के जल संग्रहण अभियान को जाता है।
भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलो के रूप वर्ष 2012-14 के लिए सोमेन बाबा का चयन किया गया। सोमेन उरांव जलछाजन विभाग, झारखण्ड सरकार के ब्रांड एम्बेसडर हैँ।
सोमेन बाबा की सादगी का आलम यह है कि सम्मान के क्रम में आजतक उन्हें जो फूलमाला पहनाई गई या गुलदस्ता दिया गया, बाबा ने उन्हें फेंका नहीँ, बल्कि अपने के घर में रखा हुआ है।
सम्मान - झारखण्ड के जल पुरुष के नाम से लोकप्रिय पर्यावरणविद पड़ाह राजा सोमेन उराँव मिंज उर्फ सोमेन बाबा को जल संरक्षण, जल संग्रहण, वन एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में उनके अतुलनीय योगदान के लिए 2016 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। वर्ष 2012 में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर विकास भारती विशुनपुर ने सोमेन को जल मित्र सम्मान प्रदान किया।
नमन फाऊंडेशन ने सोमेन बाबा को नमन झारखण्ड गौरव सम्मान से सम्मानित किया। कई संस्थानों द्वारा सोमेन को उनके अविस्मरणीय योगदान के लिए सम्मानित किया गया।
वर्ष 2002 में अमेरिका के जैविक संस्थान के अध्यक्ष जे। एम। वैन्सिन ने सोमेन की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। ग्रेट ब्रिटेन के नॉटिंघम यूनिवर्सिटी की शोधार्थी सारा जेविट ने काफी दिन सोमेन बाबा के गांव में बिताया और अपनी पीएचडी थीसिस में उनकी सक्सेस स्टोरी लिखी।
वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता एवं पहले ट्राइबल फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो ने सोमेन उरांव की जीवन यात्रा पर 28 मिनट की फिल्म 'झरिया' का निर्माण किया है।