Sandeep Murarka

Inspirational Others

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पद्मश्री जल पुरुष सिमोन उरांव

पद्मश्री जल पुरुष सिमोन उरांव

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नाम : बाबा श्री सिमोन उरांव मिंज
पदक, वर्ष व क्षेत्र : पद्मश्री, 2016, पर्यावरण के क्षेत्र में
जन्म तिथि : 1932
जन्म स्थान : खक्सी टोली, गांव हरिहरपुर जामटोली, ब्लॉक बेड़ो, जिला रांची, झारखंड
जनजाति : उरांव
संपर्क : साई ग्राम रोड़, बेड़ो बाजार, जिला मुख्यालय से लगभग 45 किमी, जिला रांची, झारखंड
पिता : बोरा उरांव
माता : बुधनी उरांव
पत्नी : बिरजिनिया उरांव 

जीवन परिचय - प्राकृतिक सौंदर्य से भरपूर राज्य झारखंड एक ओर हुंडरू, जोन्हा, दशम और पंचघाघ जैसे जल प्रपात हैं। वहीं शिमला की खुबसूरत वादियों और घुमावदार सड़कों को याद दिलाती पतरातू वैली है। झारखंड में 700 छोटे बड़े पर्वतों से घिरा एक गहन सारंडा वन है, जिसके कुछ हिस्से इतने घने हैं कि वहां सूर्य का प्रकाश भी नहीं पहुंचता है। झारखंड का लंदन कहा जाने वाला कस्बा 'मैक्लुस्कीगंज' पर्यटकों को आकर्षित करता है। आज भी वहां एंग्लोइंडियन समुदाय के काफी लोग निवास करते हैं, जो भारतीय संस्कृति में घुलमिल गए हैं। वहां के यूरोपियन शैली की कोठियां सैलानियों के ठहरने की पसंदीदा जगह हैं। वरिष्ठ पत्रकार व लेखक विकास कुमार झा के उपन्यास 'मैक्लुस्कीगंज' के कवर पेज पर एक एंग्लो इंडियन महिला केटी टेक्सरा की तस्वीर प्रकाशित हुई थी, जिन्हें स्थानीय लोग किटी मेम साहब के नाम से जानते हैं। मैक्लुस्कीगंज में फिल्म की शूटिंग करने आए विभिन्न निर्देशकों ने केटी टेक्सरा को किसी न किसी किरदार के रूप में शूट किया। किटी मेमसाब ने आदिवासी युवक रमेश मुंडा से प्रेम विवाह किया और यहीं की होकर रह गई। वे समान रुप से अंग्रेजी, हिंदी, नागपुरी और मुंडारी भाषाओं में बात करती हैं। यहां मंदिर, गुरुद्वारा और मस्जिद एक ही स्थान पर अवस्थित है, यानी मैक्लुस्कीगंज में सांप्रदायिक सौहार्द का भी अद्भुत उदाहरण देखने को मिलता है।

झारखंड राज्य की राजधानी रांची ऐसी कई खूबसूरतियों से लबरेज है। कहते हैं कि रांची शब्द उरांव भाषा के 'रअयची' शब्द का अपभ्रंश है। इसी रांची जिला के बेड़ो प्रखंड के एक उरांव आदिवासी ने कुछ ऐसा कर दिखाया कि उन्हें राष्ट्रपति भवन में आमंत्रित कर पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया।

रांची के सुदूर गांव खक्सी टोला के जनजातीय किसान परिवार में सिमोन उरांव मिंज का जन्म हुआ था। पिता तीन भाई थे। उनके एक चाचा फौज में थे, उन्होंने द्वितीय विश्वयुद्ध में भाग लिया। उस समय एक सैनिक के जान की कीमत महज पांच रुपए मासिक हुआ करती थी। पिता कृषक थे, किंतु सिंचाई की असुविधा के कारण गांव में कृषि नगण्य हो गई थी। वर्ष में चार माह जमकर बारिश हुआ करती थी, पर जल सरंक्षण की कोई सुविधा नहीं थी। छोटे मोटे बांध यदि तैयार भी किये जाते, तो वे मूसलाधार बारिश में टीक नहीं पाते थे। सो गांव के लोगों की आजीविका अब कृषि नहीं बल्कि पेड़ों की लकड़ियां बेचना हो चला था। पिता ने जैसे तैसे बालक सिमोन को चौथी कक्षा तक पढ़ाया या यूँ कहें कि अक्षर ज्ञान करवाया। सूखे ने घर को सूखा दिया, गरीबी ऐसी बढ़ी कि जमीन की मालगुजारी के चालीस रुपए बकाया हो गए, पिताजी चुका ना सके, सो एक खेत नीलाम हो गया। सात साल की उम्र में सिमोन बकरी चराने लगे। परिवार की गरीबी का आलम यह था कि मडुआ का रोटी और सरई का फल खाकर गुजर बसर होती। इसी गरीबी में वर्ष 1955 में युवा होते सिमोन का विवाह हो गया। एक तो गरीबी, ऊपर से घर में नए सदस्य का आगमन!

जिंदगी की जद्दोजहद से लड़ रहे सिमोन को गांव में किसी से पता चला कि लगभग 50 किलोमीटर दूर चुटिया में सिविल कंस्ट्रक्शन का कार्य हो रहा है। पर वे जाते कैसे, कोई साधन तो था नहीं! लेकिन भूख को चाहिए होता है भोजन और भोजन के लिए जरूरी होता है रोजगार। मेहनतकश सिमोन प्रतिदिन भोर में पांच बजे चुटिया के लिए निकल पड़ते और देर रात लौटते। वे प्रतिदिन 50 किलोमीटर पैदल जाते और वहां आठ घंटे पसीना बहा कर पुनः 50 किलोमीटर पैदल लौटते। यह संघर्ष उन युवाओ के लिए प्रेरक है, जो कम पॉकेट मनी मिलने पर अपनी अतिरिक्त जरूरतें पूरा करने के लिए ट्यूशन पढ़ाते हैं और  उसे संघर्ष का नाम देते हैं।

इसी फक्कडी़ में सिमोन उरांव को तीन पुत्र हुए - जोसेफ, सुधीर और आनंद, जिनमें तीसरे पुत्र आनंद का निधन वर्ष 2013 में हो गया। सिमोन मिंज का परिवार कैथोलिक धर्म का भी अनुयायी है। वे जतरा टाना भगत को अपना आदर्श मानते हैं।

योगदान - अब केवल सिमोन उरांव ही नहीं गांव के अन्य कई लोग भी रोजगार की आस में चुटिया जाने लगे। सिमोन तो प्रतिदिन रात को लौट आते थे, परंतु उनके कई साथी वहीं चुटिया में रहने लगे। यानी गांव से पलायन आरंभ हो गया। एक ओर गांव में गरीबी, दूसरी ओर बेरोजगारी और तीसरी ओर पलायन की नई समस्या, समय की मार झेल समझदार हो चले सिमोन को यह सब कचोटने लगा।

सिमोन उरांव के गांव में छः झरने थे, सघन बारिश भी हुआ करती थी, किंतु सिंचाई की व्यवस्था नहीं थी। सिमोन ने ग्रामीणों को बांध बनाने का प्रस्ताव दिया किन्तु अपेक्षित सहयोग नहीं मिला। कुछ ग्रामीणों ने तो उनके प्रस्ताव पर जमकर मजाक उड़ाया और कुछ को अपनी जमीन जाने का भय सताने लगा। किंतु आत्मविश्वास से लबरेज सिमोन उरांव ने हार नहीं मानी। वे वर्ष 1961 में कुदाल लेकर अकेले निकल पड़े। धीरे-धीरे कुछ ग्रामीणों का साथ मिलने लगा। गांव के झरिया नाला के गायघाट के पास नरपतना में 45 फिट का बांध बनाया गया। किंतु यह बांध अगले ही मानसून के दौरान तेज बारिश में बह गया।

पर चट्टानी हौसलों वाले सिमोन विचलित नहीं हुये। उन्होनें गांव के पास पहाड़ियों की तलहटी में एक जलाशय बनाने के लिए ग्रामीणों को प्रेरित किया। जलाशय निर्माण का लाभ हुआ कि गांव में सब्जियों की भरपूर पैदावार होने लगी। अगले वर्ष नरपतना के बांध का मरम्मतीकरण एवं सुदृढ़ीकरण किया गया। वर्ष 1975 में सिमोन उरांव ने खक्सी टोला के निकट छोटा झरिया नाला में दूसरे नए बांध का निर्माण किया। पुनः वर्ष 1980 में सिमोन के प्रयास से लघु सिंचाई योजना के अंतर्गत हरिहरपुर जामटोली के निकट देशवाली बांध का निर्माण हुआ। अगले कुछ वर्षों में उनके प्रयासों से अंतबलु, खरवागढ़ा व अन्य कई स्थानों में चेकडैम बने। बाबा सिमोन ने ग्रामीणों की मदद से साढ़े पांच हजार फीट लंबी कच्ची नहर निकाली। आज उन्हीं बांधों से सरकार द्वारा हजारों फिट पक्की नहर निकालकर खेतों तक पानी पहुंचाया जा रहा है। बाबा सिमोन बड़े बांधो के निर्माण के खिलाफ हैं। उनका मानना है कि छोटे छोटे बांध बनने चाहिए, क्योंकि ये पर्यावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते हैं।

जल पुरुष बाबा सिमोन उरांव ने अधिक से अधिक तालाब खुदवाने पर जोर दिया। हरिहरपुर जामटोली, बिलति, भस्नांडा, बारीडीह, बोदा, महरू, हुटार, हरहंजी आदि गांवों में कई तालाबों का निर्माण हुआ। कई पुराने तालाबों का जीर्णोद्धार का श्रेय जल पुरुष सिमोन उरांव को जाता है। उनकी प्रेरणा से हर टोले में पीने के पानी के लिए कुएं खोदे गये।

जल संग्रहण पर जोर देते हुये बाबा सिमोन उरांव कहते हैं कि 'बरसात का पानी नालों और नदियों से होता हुआ समुद्र में चला जाता है, इसे रोको।' दूरदर्शी सिमोन उरांव कहते हैं कि 'नलकूप जमीन के नीचे के पानी को को सोख लेते हैं, इसलिए नलकूप की जगह कुएं और तालाब खोदे जाएं।'

बाबा सिमोन उरांव के प्रयासों का ही नतीजा है कि आज 2000 एकड़ से ज्यादा भूमि पर खेती होने लगी है। जहां साल में एक फसल नहीं होती थी, वहां सिंचाई की व्यवस्था हो जाने पर कई योग्य कृषक एक से ज्यादा फसल की पैदावार कर रहे हैं। विशेषकर उस क्षेत्र में सब्जियों के उत्पादन में काफी वृद्धि हुई है। बेड़ो ब्लॉक की सब्जियां रांची, जमशेदपुर, बोकारो व कोलकत्ता तक जा रही हैं।

उरांव जनजाति में गांव समाज का संचालन स्वशासन प्रणाली के अंतर्गत किया जाता है। गांव के धार्मिक क्रिया कलाप 'पाहन' द्वारा संचालित किए जाते हैं। पांच से ज्यादा गांवो के संगठन को 'पड़हा' कहते हैं और इसका प्रमुख 'पड़हा राजा' कहलाता है। वर्ष 1964 में बाबा सिमोन उरांव को बारह गांवो का पड़हा राजा चुन लिया गया। वर्तमान में वे 51 गांवो के पड़हा राजा हैं।

वर्ष 1967 में भारी आकाल पड़ा, लोग दाने दाने को मोहताज होने लगे। ऐसे में बाबा सिमोन ने सामूहिक खेती पर बल दिया। बाबा ने गांववासियों की बैठक आहूत की और कहा कि 'गांव में खेती से संबंधित जितने भी हल, बैल,पम्प,मशीनरी, इक्यूपमेंट इत्यादि हैं, सभी एक जगह एकत्रित किए जाएं, हमलोग सामूहिक खेती करेंगे।' उसके बाद प्रतिदिन किसी एक कृषक के खेत को तैयार किया जाता और सभी ग्रामवासी मिलकर उसपर काम करते। धीरे धीरे गांव के सभी खेतों में जोताई और बुआई संपन्न हो गई। करीब करीब 250 एकड़ खेतों में मुख्यतः गेहूं बोया गया। दैवीय कृपा से इतनी अच्छी फसल हुई कि आकाल पर जीत पा ली गई। आकाल और सूखे से जूझते उस गांव का समय चक्र पलट गया। आज के गावों के लिये यह यह कहानी प्रेरणाप्रद व अनुकरणीय है कि 'पारिवारिक हिस्सों में बंटे छोटे छोटे खेतों में सामूहिक खेती के माध्यम से अपार पैदावार की जा सकती है।'

बाबा सिमोन उरांव द्वारा प्रारंभ समाजसेवा की यात्रा यहीं नहीं रुकी। उन्होंने वर्ष 1976 में सामाजिक वानिकी कार्यक्रम शुरू किया। स्वयं प्रतिवर्ष 1000 वृक्षारोपण का लक्ष्य निर्धारित किया, साथ ही ग्रामीणों को वृक्ष लगाने के लिए प्रोत्साहित किया। जल अभियान से जोड़ते हुए उन्होंने प्रचारित किया कि वृक्ष जल संसाधनों के क्षरण को रोकने में सहायक हैं। वृक्षारोपण अभियान में ग्रामीणों का भरपूर सहयोग प्राप्त हुआ। आज उनके गांवों में जामुन, आम, साल, कटहल के लगभग 50 हजार से ज्यादा वृक्ष आसमान से सीना चीरते खड़े हैं। जब पेड़ तैयार होने लगे, तो लकड़ी माफिया भी जुटने लगे, बाबा सिमोन उरांव ने पेड़ों की कटाई का विरोध किया, नतीजन उन्हें जेलयात्रा भी करनी पड़ी।

बाबा सिमोन ने प्रत्येक गांव में 25 सदस्यीय ग्राम समिति का गठन किया। ये समितियां जल संरक्षण, जल संग्रहण, वृक्षारोपण, सामूहिक खेती, सब्जियों की मार्केटिंग को प्रोत्साहित करती है और पेड़ों की अवैध कटाई को रोकती है। प्रत्येक गुरुवार को इन ग्राम समितियों की बैठक होती है। किसी ना किसी समिति की बैठक में सिमोन बाबा स्वयं भी उपस्थित रहते हैं। यदि गांव में कोई छोटा मोटा विवाद होता है तो ग्रामीण पंचायती करवाने सिमोन बाबा के पास आते हैं। बाबा उन्हें एक बात अवश्य समझाते हैं कि 'आदमी से नहीं, जमीन से लड़ो, उसपर अन्न का कारखाना तैयार करो, विकास होगा, तुम्हारा भी, गांव का भी और यदि विनाश चाहते हो तो आदमी से लड़ो।'

बहुमुखी प्रतिभा के धनी सिमोन उरांव का घर फूस और टीन से बना हुआ है। वह घर कई छोटे बड़े थैलों से भरा पड़ा है।उन थैलों में भरी हैं जड़ी बूटियां या यूं कह लें कि बाबा सिमोन ने उन थैलों में पारंपरिक आयुर्वेदिक ज्ञान को सहेज रखा है। सिमोन बाबा ग्रामीणों के मध्य पारंपरिक दवाईयों का वितरण करते हैं और उन्हें आयुर्वेदिक दवाईयां के प्रति प्रेरित भी करते हैं। कहा जा सकता है कि अनपढ़ सिमोन बाबा आयुर्वेदिक चिकित्सक भी हैं और आयुर्वेद के प्रचारक भी।

वर्ष 2009 में बारिश न होने के कारण सूखे की मार झेल  रहे झारखंड को आधिकारिक रूप से सूखाग्रस्त घोषित कर दिया गया था। वैसी विपरीत परिस्थितियों में भी बेड़ो ब्लॉक के कई गांवो में अच्छी फसल हुई, जिसका सम्पूर्ण श्रेय बाबा सिमोन उरांव के जल संग्रहण अभियान को जाता है।

सिमोन बाबा की सादगी का आलम यह है कि सम्मान के क्रम में आजतक उन्हें जो फूलमाला पहनाई गई या फूलों के गुलदस्ते दिये गए, बाबा ने उन सूखे फूलों को फेंका नहीं,  बल्कि बतौर स्मृति सहेज कर रखा हुआ है।

हास्य ही हास्य में बाबा सिमोन उरांव धनलोलुप समाज को आईना दिखाते हुये कहते हैं कि 'दो व्यक्तियों को अलग अलग कमरे में बंद कर दो। एक कमरे में तीस लाख रुपए और दूसरे कमरे में तीस किलो चावल रख दो। तीस दिन बाद दरवाजे खोलने पर कौन जिंदा बचेगा ? जिसके कमरे में रुपये होंगे या जिसके कमरे में चावल ?'

उनपर बनी फिल्म - वर्ष 2018 में राष्ट्रीय पुरस्कार विजेता एवं ट्राइबल फिल्म निर्माता बीजू टोप्पो ने पद्मश्री सिमोन उरांव के योगदान पर 28 मिनट की फिल्म 'झरिया' का निर्माण किया है।

अन्यान्य - भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय द्वारा प्रधानमंत्री ग्रामीण विकास फेलो के रूप वर्ष 2012-14 के लिए बाबा सिमोन उरांव का चयन किया गया। वे जलछाजन विभाग, झारखंड सरकार के ब्रांड एंबेसडर हैं।

वर्ष 2002 में अमेरिका के एक जैविक संस्थान के अध्यक्ष जे. एम. वैन्सिन ने सिमोन उरांव की भूरि-भूरि प्रशंसा की थी। ग्रेट ब्रिटेन के नॉटिंघम यूनिवर्सिटी की शोधार्थी सारा जेविट काफी दिनों तक सिमोन बाबा के गांव रहीं, उनकी कार्यशैली को नजदीक से देखा और अपनी पीएचडी थीसिस में उनकी सक्सेस स्टोरी लिखी।

सम्मान एवं पुरस्कार - जल पुरुष के नाम से विख्यात  पर्यावरणविद पड़हा राजा बाबा सिमोन उरांव मिंज को जल संरक्षण, जल संग्रहण, वन एवं पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में अतुलनीय योगदान के लिए वर्ष 2016 में देश के चौथे सर्वोच्च पुरस्कार पद्मश्री से सम्मानित किया गया। वर्ष 2012 में विश्व पर्यावरण दिवस के अवसर पर विकास भारती विशुनपुर ने सिमोन बाबा को जल मित्र सम्मान प्रदान किया। नमन फाऊंडेशन ने उनको झारखंड गौरव सम्मान से अलंकृत किया। विभिन्न शैक्षणिक एवं समाजिक संस्थानो द्वारा उन्हें  समय समय पर कई सम्मान प्रदान किये जा चुके हैं।

संदर्भ -
i. News 18 Jharkhand Bihar _9 May, 2017
ii. www.thebetterindia.com_29 March, 2016
iii. www.outlookindia.com_23 Aug, 2022


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