पद्मश्री चित्तू टुडू, बिहार
पद्मश्री चित्तू टुडू, बिहार


जन्म : 31 दिसम्बर ' 1929
जन्म स्थान : साहूपोखर, पोस्ट श्याम बाजार, प्रखण्ड बौंसी, जिला बांका, बिहार - 813104
निधन: 13 जुलाई ' 2016
मृत्यु स्थल : गांव के अपने घर में
पत्नी : रानी सोरेन
जीवन परिचय - झारखण्ड बिहार के भागलपुर प्रमण्डल के बौंसी गांव के एक ट्राइबल परिवार में चित्तू टुडू का जन्म हुआ। गांव में स्कूली शिक्षा हुई, चित्तू की पहचान एक योग्य व अनुशासित छात्र की रही। चित्तू ने ब्रिटिश शासन में मैट्रिक की परीक्षा पास की। देश में स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था, हर युवा आजादी के यज्ञ में अपनी आहुति देना चाहता था। चित्तू के मन भी से देश के लिए कुछ करने का एक जज्बा हिलोरे ले रहा था। चित्तू ने अपनी भूमिका तय की और कूद पड़े। वे संथाल परगना कांग्रेस कमेटी से जुड़ गए। उसी क्रम में उनका सम्पर्क स्वतंत्रता सेनानी लाल बाबा से हुआ। चित्तू को स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं की जन सभा में दुभाषिये के रूप में कार्य करने का दायित्व दिया गया । चित्तू ट्राइब्ल्स बहुल क्षेत्रों में जाकर जनसम्पर्क करते एवं स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश जनजातीय समुदाय तक पहुँचाते।
आजादी के बाद वर्ष 1950 में सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग में प्रचार संगठनकर्ता के रूप में सरकारी नौकरी में उनकी नियुक्ति हो गई। सूचना एवं जन-सम्पर्क विभाग में गीत नाट्य शाखा के संथाली भाषा के संगठनकर्ता, 1958 में अपर जिला जन-सम्पर्क पदाधिकारी, 1959 में जिला जनसम्पर्क पदाधिकारी, 1977 में उप जनसम्पर्क निदेशक और 1984 में संयुक्त निदेशक के पद पर प्रोन्नत हुए। अपने परिश्रम, व्यवहार व योग्यता के बल पर पदोन्नति प्राप्त करते हुए चित्तू अपनी सेवावधि में पाकुड़, चाईबासा, डाल्टनगंज, राँची और भागलपुर में कार्य किया तथा 1990 में संयुक्त निदेशक के पद से सेवानिवृत हुए। सफल वैवाहिक जीवन जीने वाले चित्तू को एकमात्र सन्तान हुई हीरामनी टूडू।
योगदान - सरकारी सेवा में रहते हुए ही चित्तू संथाली लोक गीत लिखने लगे। विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में उनकी रचनाएँ प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित होने लगी। इनके संथाली लोक गीतों का संग्रह 'जवांय धुती' काफी लोकप्रिय कृति है। इस पुस्तक के कई गीत सिदो कान्हु यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल हैँ। उन्होंने कई जीवनियों एवं नाटकों का संथाली में अनुवाद किया।
इनकी पुस्तक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' आज भी साहित्यप्रेमियों की पसंद बनी हुई है और अमेजॉन पर उपलब्ध है। झारखण्ड में तेजी से बदलते सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में संथालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती जा रही है। आज की बदली हुई स्थिति में संथाल ट्राइबल्स के सामाजिक-सांस्कृतिक जीवन के विभिन्न पहलुओं पर गहन शोध एवं अध्ययन की आवश्यकता प्रबल होती जा रही है। संथाल समुदाय में प्रत्येक मौसम, त्योहार और अवसरों के लिए अलग-अलग गीतों के विधान हैं। दोङ अर्थात् विवाह गीतों के अतिरिक्त सोहराय, दुरूमजाक्, बाहा, लांगड़े रिजां मतवार, डान्टा और कराम प्रमुख संथाली लोकगीत हैं। बापला अर्थात् विवाह संथालों के लिए मात्र एक रस्म ही नहीं, वरन् एक वृहत् सामाजिक उत्सव की तरह है जिसका वे पूरा-पूरा आनन्द उठाते है। इसके हर विधि-विधान में मार्मिक गीतों का समावेश है। इन गीतों में जहाँ एक ओर ट्राइबल्स जीवन की सहजता, सरलता, उत्फुल्लता तथा नैसर्गिकता आदि की झलकें मिलेंगी, वहीं दूसरी ओर उनके जीवन-दर्शन, सामाजिक सोच, मान्यता, जिजीविषा तथा अदम्य आतंरिक शक्ति से भी अनायास साक्षात्कार हो जाएगा। विविधताओं से परिपूर्ण परम्परागत संथाली जीवन की झलक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया ' में है। इसके अलावा इन्होंने संथाल में प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की जीवनी लिखी।
रास बिहारी लाल के हिन्दी नाटक ’’नए-नए रास्ते ’’ का संथाली भाषा में अनुवाद किया।
बिहार सरकार के सूचना एवं जनसम्पर्क विभाग ने चित्तू टुडू द्वारा रचित संथाली लोक गीतों का उनके ही कंठ स्वर और संगीत निर्देशन में ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार कराकर ट्राइबल क्षेत्रों में वितरण करवाया। संथाली लोक गीतों की संरचना और नृत्य संगीत निर्देशन, कोरियोग्राफी में उनकी दक्षता, प्रवीणता और पांडित्य को देखते हुए बिहार सरकार ने उनके नेतृत्व और निर्देशन में 1976 से 1986 तक प्रतिवर्ष गणतंत्र दिवस के समारोह पर लाल किला दिल्ली में होनेवाले आयोजन में ट्राइबल नर्तक दल को भेजा।
चित्तू को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सानिध्य का अवसर भी प्राप्त हुआ। चित्तू साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहते। वे विभिन्न संस्थानों से जीवनपर्यंत जुड़े रहे। चित्तू संथाली सांस्कृतिक सोसाइटी, रांची के संस्थापक उपाध्यक्ष तथा संथाली साहित्य परिषद, दुमका के अध्यक्ष रहे। टुडू नई दिल्ली स्थित नृत्य कला अकादमी के सदस्य भी रहे। 1970 के दशक में होड़ संवाद नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था। चित्तू इसके सम्पादक मंडल में सदस्य रहे।
यत्र-तत्र बिखरे आदिवासी लोक नर्तकों की खोज कर उन्हें संगठित करने, संरक्षण देने और उनको मंच प्रदान करने की दिशा में चित्तू ने अहम् भूमिका निभायी। शिक्षा के पैरोकार चित्तू चाहते थे कि हर ट्राइबल बच्चा शिक्षित हो और इसके लिए हर गांव में एक स्कूल हो। अपने पैतृक गाँव बौंसी में छात्रावास एवं विद्यालय निर्माण हेतू चित्तू ने पाँच एकड़ भूमि दान की।
टुडू बहुमुखी प्रतिभा के धनी थे। साहित्यकार , नर्तक , गायक , वादक , समाज सुधारक औऱ इन सबसे बढ़कर एक महान इंसान।
पुरस्कार एवं सम्मान - सामाजिक कार्यों एवं आदिवासी लोक संस्कृति के क्षेत्र में महत्वपूर्ण योगदान के लिए 6 अप्रैल 1993 को चित्तू टुडू को पद्मश्री सम्मान से सम्मानित किया गया। वे पूरे भारत में दूसरे ट्राइबल थे, जिन्हें पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया। वर्ष 1986 में इनको बिहार राजभाषा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया।