Sandeep Murarka

Inspirational Others

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Sandeep Murarka

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पद्मश्री चित्तू टुडू, बिहार

पद्मश्री चित्तू टुडू, बिहार

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7. नाम : चित्तू टुडू
पदक, वर्ष व क्षेत्र : पद्मश्री, 1992, कला
जन्म तिथि : 31 दिसंबर,1929
जन्म स्थान : गांव - साहूपोखर, भागलपुर- दुमका रोड,
पोस्ट - श्याम बाजार, प्रखंड- बौंसी, जिला-बांका, बिहार - 813104
जनजाति : संताल
निधन : 13 जुलाई, 2016
निधन स्थल :
पिता : ढेना टुडू
माता : तालो सोरेन 
पत्नी : रानी सोरेन

जीवन परिचय - हमारे देश की सभ्यता और संस्कृति हजारों वर्ष पुरानी है। समय और काल के अनुसार राज्यों की चौहद्दियों में बदलाव होते रहे। शहर बढ़ते चले गए, जंगल सिमटते चले गए। खनीज संपदा लूटती रही, राजे रजवाड़े मिटते रहे। हर राज्य की विधानसभा में कोई ना कोई दो तीन विधायक ऐसे मिलेंगे, जिनके हाथ खून या भ्रष्ट्राचार से रंगे हुये हैं। वहीं देश के लिये मर मिट जाने वाले शहीद क्रांतिकारी मूर्तियों में सिसक रहे हैं। पुरातनकाल से लेकर आज तक हुये इन बदलावों के मूक गवाह रहे हैं पर्वत और नदियां, जो स्वयं भी तथाकथित विकास का दंश झेल रहे हैं। इन्हीं में एक है बिहार के बांका जिला में अवस्थित मंदराचल पर्वत, जो पुराणों की रचना से लेकर आजतक के हर बदलाव का साक्षी है। कहते हैं देवताओं और दानवों ने जब समुद्र मंथन किया तो इसी मंदराचल पर्वत को मथनी बनाया।

पौराणिक कथाओं के अनुसार जब स्वर्ग का राज्य धन, ऐश्वर्य और वैभव से हीन हो गया। तब सभी देवतागण भगवान विष्णु की शरण में पहुंचे। विष्णु ने उन्हें उपाय बतलाते हुए दैत्यों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने  एवं अमृत कलश प्राप्त करने का सुझाव दिया। उन दिनों दैत्यों के राजा थे बलि, जो स्वयं विष्णु के अनन्य भक्त थे।
देवताओं ने राजा बलि के समक्ष समुंद मंथन का प्रस्ताव रखा तो उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया। तब वासुकी नाग को नेती (रस्सी) बनाया गया और मंदराचल पर्वत को मथनी बनाकर समुद्र मंथन किया गया। समुद्र मंथन से कालकूट विष, दिव्य कामधेनु गाय, उच्चैश्रवा घोड़ाऐरावत हाथी, कौस्तुभ मणि, कल्पवृक्ष, रंभा तारा आदि अप्सराएं, माता लक्ष्मी, वारुणी, चंद्रमा, पांचजन्य शंख, पारिजात वृक्ष सहित 14 बहुमूल्य रत्नों की प्राप्ति हुई। मंथन के अंत में भगवान धनवंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। माना जाता है कि वह मंथन कई युगों तक चला था।

दैनिक भास्कर में प्रकाशित एक आलेख के अनुसार समुद्र मंथन की कहानी जीवन प्रबंधन सिखलाती है। समुद्र मंथन कहानी की सीख ये है कि मंथन करना यानी लगातार काम करना। जब कोई काम बड़ा हो तो उसकी शुरुआत में कई दिक्कतें आती हैं। छोटे-छोटे पड़ावों में रत्न यानी छोटी-छोटी सफलताएं मिलती हैं और अंत में अमृत यानी बड़ी सफलता मिलती है।

इस कथा की एक सीख हमारे मन से जुड़ी है। मन के बुरे विचारों को दूर करने के लिए हमें अपने मन को मथना यानी ध्यान करना चाहिए। जब हम मन का मंथन करते हैं, ध्यान करते हैं तो सबसे पहले हलाहल विष के जैसी बुराइयां दूर होती हैं। शिव जी ने हलाहल विष अपने कंठ में धारण किया, उसे पेट में नहीं उतरने दिया था। इसकी सीख ये है कि हमें भी बुरी बातों को मन में नहीं उतरने देना चाहिए। बुराइयों को जल्दी से जल्दी बाहर कर देंगे तो जीवन सुधर जाएगा।

समुंद्र मंथन की इस आलौकिक कथा का साक्षी रहा मंदराचल पर्वत वर्तमान में मधुसूदन धाम के नाम से प्रसिद्ध है। मंदार पर्वत के नीचे पूरब की ओर एक पापहारिणी नामक सरोवर है। मंदार पर्वत पर आरोहण के लिए सीढ़ियां बनी हुई हैं। पर्वत के मध्य में भगवान नरसिंह की गुफा है। इस पर्वत पर दुर्गा, काली, सूर्य, महाकाल भैरव, गणेश, बासुकी नाग का रज्जू-चिन्ह, त्रिशिरा मंदिर का भग्नावशेष, दो ब्राह्मी-लिपि का शिलालेख, सीता कुंड, शंख कुंड, आकाश गंगा, हिरण्यकश्यपु गुफा, पाताल का प्रवेश द्वार, मधु का मस्तक, सीता वाटिका, शिवकुंड, सौभाग्य कुंड, धारापतन तीर्थ, कामाख्या-योनि कुंड, कामदेव गुफा, अर्जुन गुफा, शुकदेव मुनि गुफा, परशुराम गुफा, काशी विश्वनाथ लिंग, राम-झरोखा, प्राचीन मधुसूदन मंदिर, व्यास गुफा, गौतम गुफा आदि कई मंदिर व स्थान हैं, जो हिंदू आस्था से जुड़े हैं।

मंदार पर्वत से जैन धर्मावलंबियों की आस्था भी जुड़ी है। वहां जैन धर्म के 12 वें तीर्थंकर वासुपूज्य का मंदिर है। इस मंदिर में करीब 3 सहस्र साल पुरानी चरण पादुका मौजूद है।

मंदार पर्वत जनजातीय समुदाय की भी आस्था का केंद्र है। प्रत्येक वर्ष मकर संक्रांति के अवसर पर जनवरी माह में आदिवासी समाज के लोग मंदार पहाड़ पर जुटते हैं, वे पर्वत का वंदन करते हैं और पापहारिणी सरोवर में स्नान करते हैं।पिछले कुछ वर्षों से जिला प्रशासन की ओर से इस अवसर पर भव्य 'मंदार महोत्सव सह राजकीय बौंसी मेला' का आयोजन किया जाता है। मंदार पहाड़ से सटे सबलपुर ग्राम में जन्मे स्वामी चंदर दास ने वर्ष 1939 में सफाधर्म की नींव रखी थी। दुनिया को नशामुक्त बनाने के संकल्प के साथ प्रारंभ हुआ यह सफाधर्म देशभर के जनजातीय समुदायों में काफी लोकप्रिय हो चुका है। दुनिया भर में सफा धर्म के अनुयायी हैं, जिनकी आस्था मंदार पर्वत से जुड़ी है।

हिंदू, जैन एवं आदिवासी मान्यताओं से जुड़ा यह मंदार पर्वत
जिस बौंसी प्रखंड में अवस्थित है। उस बौंसी की पुण्य भूमि ने एक और रत्न को जन्म दिया चित्तू टुडू, वे संताल समुदाय के दूसरे शख्स थे, जिनको पद्मश्री सम्मान से नवाजा गया।

चित्तू टुडू की स्कूली शिक्षा गांव में हुई। उनकी पहचान एक योग्य व अनुशासित छात्र की रही। चित्तू ने ब्रिटिश शासन में मैट्रिक की परीक्षा पास की। उन दिनों देश में स्वतंत्रता आंदोलन जोरों पर था। देश का हर युवा आजादी के लड़ाई में योगदान देना चाहता था। युवा चित्तू के मन भी से देश के लिए कुछ करने का एक जज्बा हिलोरे ले रहा था। चित्तू ने आजादी के यज्ञ में अपनी भूमिका तय की और आहुति देने कूद पड़े। वे संथाल परगना कांग्रेस कमेटी से जुड़ गए। उसी क्रम में उनका संपर्क स्वतंत्रता सेनानी लाल बाबा से हुआ।चित्तू को स्वतंत्रता आंदोलन के बड़े नेताओं की जन सभा में दुभाषिये के रूप में कार्य करने का दायित्व दिया गया। चित्तू टुडू आदिवासी बहुल क्षेत्रों में जाकर स्वतंत्रता सेनानियों के संदेश संताली व अन्य देशज भाषाओं में अनुवादित कर जनजातीय समुदाय तक पहुंचाने लगे।

आजादी के बाद वर्ष 1950 में चित्तू टुडू की नियुक्ति सूचना एवं जनसंपर्क विभाग में प्रचार संगठनकर्ता के रूप में हो गई। वे सूचना एवं जन संपर्क विभाग में गीत नाट्य शाखा की संताली भाषा के संगठनकर्ता रहे। समय के साथ उनकी प्रोन्नति होती चली गई। वे वर्ष 1958 में अपर जिला जन-संपर्क पदाधिकारी, 1959 में जिला जन संपर्क  पदाधिकारी, 1977 में उप जन संपर्क निदेशक और 1984 में संयुक्त निदेशक के पद पर प्रोन्नत हुए। अपने परिश्रम, व्यवहार व योग्यता के बल पर पदोन्नति प्राप्त करने  वाले चित्तू टुडू अपनी सेवावधि में पाकुड़, चाईबासा, डाल्टनगंज, रांची और भागलपुर में पदस्थापित रहे।

योगदान - साहित्यमनीषी चित्तू टुडू सरकारी सेवा में रहते हुए भी अपनी भाषा और संस्कृति के प्रति सजग बने रहे। उन्होंने कई मायनों में संताली भाषा की सच्ची सेवा की। संताली लोक गीत परंपरागत पुरखों से सुने जाते थे, हर पर्व त्योहार में गाये जाते थे, किंतु कहीं लिखीत में उपलब्ध नहीं थे। दूरदर्शी कलमकार चित्तू टुडू ने वैसे पारंपरिक संताली लोक गीतों को संताली व हिंदी में लिखना आरंभ किया। ताकि आने पीढ़ी को अपनी सांस्कृतिक विरासत सौंपी जा सके।

उनके द्वारा संकलित गीत विभिन्न पत्र–पत्रिकाओं में प्रकाशित और आकाशवाणी से प्रसारित होने लगे। अपनी संस्कृति, पुरातन सभ्यता और पुरखों के गीत संतालों को ही नहीं अन्य पाठकों को भी लुभाने लगे। उनके द्वारा लिखे गए संताली लोक गीतों का एक संग्रह प्रकाशित हुआ 'जवांय धुती', जो काफी लोकप्रिय हुआ। उस पुस्तक के कई गीत सिदो कान्हो यूनिवर्सिटी के पाठ्यक्रम में शामिल हैं। उन्होंने कई जीवनियों एवं नाटकों का संताली में अनुवाद किया।

संताल समुदाय में प्रत्येक मौसम, त्योहार और अवसरों के लिए अलग-अलग गीतों का विधान हैं। दोङ अर्थात् विवाह गीतों के अतिरिक्त सोहराय, दुरूमजाक्, बाहा, लांगड़े रिजां मतवार, डांटा और कराम प्रमुख संताली लोकगीत हैं। संताल समुदाय के लिए विवाह यानी बापला महज एक रस्म नहीं है, वरन् एक वृहत् सामाजिक उत्सव की तरह है, जिसका वे पूरा आनंद उठाते है। संताल समुदाय के हर विधि-विधान में मार्मिक गीतों का समावेश है। इन गीतों में जहां एक ओर आदिवासी जीवन की सहजता, सरलता, उत्फुल्लता तथा नैसर्गिकता की झलक मिलती है। वहीं दूसरी ओर उनके जीवन-दर्शन, सामाजिक सोच, मान्यता, जिजीविषा तथा अदम्य आतंरिक शक्ति से भी अनायास साक्षात्कार होता है। प्रख्यात पुस्तक 'सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया' में गीतकार चित्तू टुडू विविधताओं से परिपूर्ण संताली जीवन से परिचय करवाते हैं।

उनकी कृतियां -
सोने की सिकड़ी - रुपा की नथिया (सोना रेयाग सिकड़ी रूपा रेयाग माकड़ी)
पंडित जवाहरलाल नेहरू की जीवनी - संताली भाषा
जावांय बाहू होरोक सेरेंज
संताली लोक गीतों में मंदार पर्वत
मिलवा गाते पॉकेट पुथी (दोंग सेरेंज)

बिहार सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग ने अप्रतिम कलाकार चित्तू टुडू द्वारा रचित संताली लोक गीतों का उनके ही कंठ स्वर और संगीत निर्देशन में ग्रामोफोन रिकार्ड तैयार करवाया और जनजातीय बहुल क्षेत्रों में वितरण किया। चित्तू टुडू एक अच्छे गीतकार होने के साथ साथ बेहतरीन गायक, नर्तक एवं वादक भी थे। संताली लोक गीतों की संरचना, नृत्य संगीत निर्देशन और कोरियोग्राफी में उनकी प्रवीणता थी। गणतंत्र दिवस के अवसर पर लाल किला दिल्ली में होनेवाले समारोह में बिहार सरकार की ओर से जनजातीय समुदाय का नर्तक दल सम्मिलित होता था। वर्ष 1976 से 1986 तक इस दल के नेतृत्व व निर्देशन चित्तू टुडू ने किया।
जनजातीय समुदाय के सांस्कृतिक व आर्थिक उत्थान के प्रति कृतसंकल्पित चित्तू टुडू ने यत्र-तत्र बिखरे आदिवासी लोक नर्तकों की खोज कर उन्हें संगठित करने, संरक्षण देने और मंच प्रदान करने की दिशा में अहम् भूमिका निभायी।

अन्यान्य - अपने समाज के प्रति समर्पित चित्तू टुडू विभिन्न संस्थानों से भी जुड़े रहे। वे संताली सांस्कृतिक सोसाइटी, रांची के संस्थापक उपाध्यक्ष तथा संताली साहित्य परिषद, दुमका के अध्यक्ष रहे। वे नई दिल्ली स्थित नृत्य कला अकादमी के सदस्य भी रहे। वर्ष 1970 के दशक में होड़ संवाद नामक साप्ताहिक पत्रिका का प्रकाशन होता था, लेखक चित्तू टुडू उस पत्रिका के संपादक मंडल में शामिल थे। वे जीवनपर्यंत साहित्यिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों सक्रिय रहे।

बहुमुखी प्रतिभा के धनी चित्तू टुडू को राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के सानिध्य का अवसर भी प्राप्त हुआ। शिक्षा के पैरोकार चित्तू टुडू चाहते थे कि हर जनजातीय बच्चा शिक्षित हो और इसके लिए हर गांव में एक स्कूल हो। उन्होंने अपने पैतृक गांव बौंसी में छात्रावास एवं विद्यालय निर्माण हेतू पांच एकड़ भूमि दान में दी।

सम्मान एवं पुरस्कार - वर्ष 1992 में आदिवासी लोक संस्कृति व कला के क्षेत्र में अविस्मरणीय अवदान के लिए चित्तू टुडू को पद्मश्री सम्मान से अलंकृत किया गया। वर्ष 1986 में उनको बिहार राजभाषा विभाग द्वारा सम्मानित किया गया। बिहार सरकार के राजभाषा विभाग ने साहित्यकार चित्तू टुडू को संताली भाषा में जवाहर लाल नेहरू की जीवनी लेखन के लिए चार हजार रूपये नगद तथा प्रशस्ति पत्र देकर सम्मानित किया। 

राष्ट्रीय फलक पर अपनी पहचान कायम करने वाले चित्तू टुडू की जीवनी यह अहसास दिलाती है कि देश के बदलते  सामाजिक, आर्थिक और सांस्कृतिक परिदृश्य में आदिवासियों विशेष कर संतालों की भूमिका महत्त्वपूर्ण हो चुकी है। तेजी से बदली हुई इन परिस्थितियों में संताल जनजाति के विभिन्न पहलुओं पर गहन शोध एवं अध्ययन की आवश्यकता है।

खरसावां शहीद दिवस की 75वीं वर्षगांठ के अवसर पर डॉ. राममनोहर लोहिया रिसर्च फाउंडेशन, नई दिल्ली द्वारा रांची में 16 -17 दिसंबर, 2023 को चतुर्थ राष्ट्रीय विचार मंथन आयोजित हुआ था। इस सम्मेलन में गोवा से 14 विद्वान प्रतिनिधियों ने हिस्सा लिया। उस सम्मेलन के विभिन्न सत्रों में एक विषय था - 'गोवा और झारखंड के आदिवासियों के बीच अंतर्संबंध', पिछले दिनों गोवा के लोकप्रिय अंग्रेजी दैनिक नवहिंद टाइम्स में वरिष्ठ पत्रकार संदेश प्रभुदेसाई का एक रोचक आलेख इसी विषय पर प्रकाशित हुआ। वे गोवा और झारखंड के आदिवासियों के बीच अंतर्संबंध की तलाश शिद्दत से कर रहे हैं। यह एक अकाट्य सत्य है कि झारखंड के जनजातीय समुदायों की जड़े बहुत गहरी व प्राचीन हैं और उनकी शाखाएं दुनिया भर में फैली हुई है।

संदर्भ -
i. दैनिक भास्कर
ii. abplive.com
iii. साहित्य अकादमी पुरस्कार विजेता चंद्र मोहन किस्कू का आलेख 


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