Sandeep Murarka

Tragedy

4  

Sandeep Murarka

Tragedy

बाल श्रमिक चिंटू

बाल श्रमिक चिंटू

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"बाबू ! कुछ खाने के लिए दो ना..... भूख लगी है।" फटेहाल कपड़े पहने नौ बरस का एक लड़का कचहरी के पास वाली होटल के मालिक को कह रहा था। होटल मालिक ने कहा -" काम करेगा ?" "हाँ बाबू "- बच्चे ने जवाब दिया। होटल मालिक ने फिर कहा - "पढ़ाई करेगा ? "

बच्चे ने आश्चर्य से देखा, मानो कानों ने क्या सुन लिया। किन्तु गरीबी कम उम्र में समझदार बना देती है। बच्चे ने तपाक से जवाब दिया - "हाँ बाबू ।"

होटल मालिक ने एक प्लेट में चावल, गरम दाल, परवल की भुजिया डाली और बच्चे की तरफ बढ़ा दी। बच्चा वहीं पड़ी एक बैंच पर बैठकर खाने लगा, मानो उसे पकवान मिल गया। होटल मालिक ने उसकी प्लेट में प्याज के दो टुकड़े रखते हुए बातचीत के दौर को आगे बढ़ाते हुए फिर पूछा - "नाम क्या है तेरा ?" खाते खाते बच्चे ने जवाब दिया -" चिंटू ।" "और कौन कौन है तेरे घर में, कहाँ रहता है तू "? मानों चिंटू को इन सवालों की उम्मीद नहीं थी, या उसने चुप रहना ही बेहतर समझा। वैसे भी गैरों के साथ दर्द नहीं बाँटे जाते।

चिंटू ने भरपेट खाना खाया। मानों उतनी ही देर में आँखो ही आँखो से दोनों ने एक दूसरे को समझ लिया। होटल मालिक शाम की दुकानदारी की तैयारी में लग गया। शाम को कचहरी से लौटते समय टाइपिस्ट और कोर्ट के बाबू लकड़ी की बैंच पर बैठकर दिनभर की गप्पें लगाया करते। चिंटू की उम्र के चार लड़के दौड़ दौड़ कर उन्हें काँच के गिलास में चाय और पत्तों के दोने में पकौड़ीयाँ पकड़ा रहे थे।

सात बजते बजते होटल में सिवाय एक वकील साहब के कोई ग्राहक नहीं रहता था, क्योंकि शाम को कचहरी बन्द हो जाती है। सात बजते ही होटल मालिक दिनभर के हिसाब किताब में लग जाता, उसे कल के खरीददारी की लिस्ट भी बनानी होती थी। इधर सारे लड़के उन्हीं बैंचो पर पढ़ने बैठ जाया करते और वही वकील साहब उन बच्चों को पढ़ाया करते। प्रतिदिन शाम की चाय का अन्तिम गिलास वकील साहब का होता। होटल मालिक वकील साहब से चाय के पैसे नहीं लेता था और वकील साहब बच्चों को निःशुल्क पढ़ाया करते थे। बल्कि कभी कभी तो होटल मालिक उनके लिए नॉन वेज पार्सल पैक करवा दिया करता और कहता कि वकील साहब इन बच्चों को ऐसा पढ़ाओ कि ये बड़े होकर वकील नहीं जज बन सकें। मेरा अपना तो कोई बच्चा है नहीं, जो उसे पढ़ा सकूँ, पत्नी की मौत के बाद यही बच्चे मेरा परिवार हैं।

कुल मिलाकर लड़के दिन में उसी होटल में काम करते, वहीं खाते, शाम को वहीं पढ़ते और रात को वहीं सोते। आज से एक और बच्चा उस बैंच पर बैठ कर पढ़ने लगा- चिंटू। हर तरह के ग्राहक उस होटल में दोपहर का खाना खाने या चाय की चुस्कियां लेने आया करते। क्या पुलिस क्या मुजरिम, मुलाजिम, कर्मचारी, अधिकारी और व्यापारी। कचहरी आने वाले लगभग सभी तो आया करते थे।

एक दिन करीब ग्यारह बजे होंगे, सफेद शर्ट पैन्ट पहने एक साहब होटल में आए। जिस टेबल पर वो बैठे वहाँ पहले से चाय के दो खाली गिलास रखे थे। चिंटू दौड़ता हुआ आया, खाली गिलास उठाए और कंधे पर रखे गमछे से टेबल पर पोंछा मारने लगा। खाली गिलास में चाय की कुछ जूठी बूंदें बची हुई थी, ना जाने किस प्रकार छिटक कर साहब के कपड़ों पर जा गिरी। साहब हड़बड़ा कर खड़े हो गए।

गुस्से से भरे हुए, तिलमिलाए, ना जाने कितना बड़ा पहाड़ टूट पड़ा था। आव देखा ना ताव, बिना कुछ समझे, बिना कुछ कहे, चिंटू को एक करारा तमाचा जड़ दिया। तड़ाक! सब उधर ही देखने लगे।

चिंटू की आँखो में आँसू आए कि नहीं आए, पता नहीं उसे कितनी जोर की लगी, पर होटल मालिक के दिल पर जोर की लगी, वह तिलमिला उठा। उसने आकर साहब को पकड़ लिया और कहा कि बच्चे से माफी मांगो। होटल में बैठे कुछ और ग्राहकों ने भी होटल मालिक की बात का समर्थन किया। साहब ने धमकी भरे लहजे में कहा कि तुम्हें बहुत महँगा पड़ेगा।

होटल मालिक ने कहा कि सस्ता महँगा बाद में देखा जाएगा, फिलहाल तो माफी मांगो। अब तक हल्ला सुनकर कुछ और लोग भी जुट चले थे, बात को बढ़ती देख साहब ने धीरे से माफी मांगी और गुस्से से मुँह फुलाए पाँव पटकते चल दिए।

धीरे धीरे सब समान्य हो गया, ग्राहक अपनी अपनी टेबल पर लौट गए। होटल मालिक ने चिंटू के सर के बालों पर हाथ फेरकर दुलारा और वो भी काम पर लग गया। शाम को वकील साहब भी आए, पढ़ाई बदस्तूर जारी रही।

घटना के चौथे दिन सब कुछ सामान्य था, डाकिया पंजीकृत डाक लेकर पहुँचा। शायद कोई सरकारी पत्र था। होटल मालिक ने हस्ताक्षर कर लिफाफा ले लिया किन्तु खोला नहीं, क्योंकि कई बार वकील साहब के पत्र इसी पते पर आया करते थे। शाम को वकील साहब जब बच्चों को पढ़ा रहे थे, तो होटल मालिक ने उनको लिफाफा थमाया। वकील साहब ने लिफाफा खोलकर पत्र देखा - यह तो श्रम विभाग द्वारा "बालश्रम निषेध व नियमन कानून 1986" के अन्तर्गत भेजी गई नोटिस है। जिसमें लिखा है कि होटल में बालश्रम कानून का उल्लंघन हो रहा है, बाल मजदूरों से काम लिया जा रहा है।

वकील साहब के माथे पर चिंता की लकीरें स्पष्ट दिख रही थीं, चिंटू आदि बच्चे यह समझने की कोशिश कर रहे थे कि कुछ तो गड़बड़ है। वकील साहब ने जब होटल मालिक को यह बात बताई तो वो जिरह करने लगा - "वकील साहब, बच्चे जब टेलिविजन पर होने वाले टैलेन्ट शो में भाग ले सकते हैं, कुकिंग शो कर सकते हैं, हनुमान से लेकर अकबर तक हर पात्र के बचपन का रोल बच्चे ही तो अदा करते हैं, बच्चे जब बाल स्टार बन सकते हैं, टप्पु सेना के बच्चे जब तारक मेहता सीरियल की टीआरपी बढ़ा सकते हैं, जब वो बच्चे लाखों कमा सकते हैं तो क्या अपना पेट भरने व पढ़ने के लिए चिंटू,भीका, लादू, शामू और वीनू ग्राहकों को चाय नहीं पकड़ा सकते ?"

वकील साहब होटल मालिक की भावनाओं को देखकर सवेंदनशील तो हुए लेकिन कानून की बारीकियों को समझते हुए कहा कि 17 सितम्बर की तारीख है, पक्ष रखने चलना तो पड़ेगा ही।

खैर देखते देखते 17 तारीख भी आ गई, वकील साहब सोच रहे थे कि जवाब क्या देना है। एक रास्ता है कि इन बच्चों को काम से हटा दिया जाए एवं शपथ पत्र दाखिल कर भविष्य में गलती ना दोहराने की बात कही जाए। परन्तु वैसे में इन बच्चों का क्या होगा? वे खाएंगे क्या? वे रहेंगे कहाँ? वे पढेंगे कैसे?

बिना काम करवाए होटल मालिक की भी तो इतनी हैसियत नहीं कि वो उन्हें रख सके। एक तरफ कुँआ दूसरी तरफ खाई। सोचते सोचते वे लोग श्रम विभाग के कार्यालय तक पहुँच गए। "चलो देखा जाए, आज अगली तारीख ले लूँगा, अगली तारीख तक इस मसले का कोई उपाय ढूँढते हैं।" विचारों के बादलों को चीरते हुए वकील साहब होटल मालिक के साथ श्रम कार्यालय की सीढ़ियाँ चढ़ते हुए श्रम प्रवर्तन पदाधिकारी के कक्ष के सामने पहुँच गए।

वकील साहब ने दरवाजे के बाहर खड़े चपरासी को उपस्तिथि अर्जी के साथ बीस का नोट थमा दिया। कुछ ही मिनटों के इंतजार के बाद उन्हें भीतर जाने की इजाजत मिल गई। परदा हटाकर भीतर प्रवेश करते ही वकील साहब ने हुजूर को सर झुकाकर अभिवादन किया। किन्तु श्रम प्रवर्तन पदाधिकारी पर नजर पड़ते ही होटल मालिक चौंक पड़ा, क्योंकि ये वही हुजूर थे, जिन्होंने चार दिन पहले "बाल श्रमिक चिंटू" को थप्पड़ मारा था।



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