Rubita Arora

Abstract

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Rubita Arora

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बिल्कुल माँ जैसी दिखने लगी हूँ

बिल्कुल माँ जैसी दिखने लगी हूँ

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आज सुधा का पैतालिसवां जन्मदिन था। बच्चो ने सुबह सुबह बधाई के साथ साथ सख्त हिदायत भी दी,"माँ! आज हम आपको कोई काम नही करने देंगे। आपका नाश्ता,लंच सब हम बनाएंगे वो भी आपकी पसंद का। रोज आप हमारे लिए इतना कुछ करते हो आज हमारी बारी है। आप बस अपने कमरे में जाकर अच्छे से तैयार होना और फिर दिन भर आराम करना।" बच्चो की बात मान सुधा अपने कमरे में आ गई। आज उसके पास खुला समय था ठीक से तैयार होने का। शीशे के सामने बैठ खुद को निहारने लगी। पूरे पैंतालीस की हो गई थी आज तो बढती उम्र के साथ-साथ चेहरे पर भी कई लकीरे उभर आई थी,साथ ही आगे के बालों में सफेदी भी साफ झलकने लगी थी। आंखो के सामने अपनी माँ का चेहरा झलकने लगा और यकायक कह उठी देखो न माँ, अब में भी बिल्कुल आप जैसी दिखने लगी हुँ। वही चेहरा,वही जिंदगीभर का तजुर्बा, वही अहसास कुछ भी तो अलग नही है माँ तुमसे। कल तक तुम्हारी जिन आदतों से मुझे चिढ़ थी अब न जाने कब से वही आदते मै भी अपना चुकी हूं और अब मेरी बेटी मुझे टोकती है। तुम्हारे टेडे मेढे नाखून, फ़टी एड़ियां, बिखरे-उलझे बाल,सब अब मेरी अपनी निशानियाँ बन चुके है। ना जाने कितने पल शीशे के सामने खड़े होकर बिताने वाली लड़की अब ठीक से शीशे में खुद को निहारना कब का भूल चुकी है। अब मै आधुनिक कपड़े न पहनकर बस सलवार कमीज पहनती हूँ जिनमें मुझे आराम मिलता है और मेरी बेटी बिल्कुल वैसे ही बोलती है जैसे कभी मै आपको बोला करती थी। आपको बिल्कुल भी ड्रेसिंग सेंस नही है। ऊंची एड़ी की सैंडिल पहनना कब का छोड़ चुकी हूं। मेकअप के नाम पर सिर्फ बिंदी, लिपस्टिक लगा लिया करती हूं। अब गीले बालों को सुखाने की चिंता नही होती बल्कि परिवार को समय पर खाना देना ज्यादा महत्वपूर्ण लगता है। पार्लर जाकर खुद को चमकाने की नही सोचती पर दिन भर मेरे घर का हर कोना चमकता रहे बस यही फिक्र करती हूं। रोज बर्तन घिसते घिसते देखो मेरे हाथ भी पूरे घिस चुके हैं। धुले हुए उजले कपड़ों को देखकर अपने आप पर इतरा लेती हूं पर आँखों के नीचे पडे काले घेरे कभी न देख पाई। परिवार की जरूरतों को पूरा करते-करते अपनी जरूरतों को भूलना भी सीख गई हूँ। पति अपना मन लगाकर काम कर सके बस इसीलिए परिवार की न जाने कितनी जिम्मेदारियों के बोझ तले खुद दबी जा रही हूं। सच बताऊँ वो मस्त मौजी सी तुम्हारी बेटी अब न जाने कहीं खो गई है और सामने खडी है ये पैंतालीस साल की एक औरत जो बिल्कुल तुम्हारे जैसी दिखती हैं।

बस अपने इन्ही विचोरो में खोई हुई थी तभी बेटी ने आकर दरवाजे पर दस्तक दी। माँ मुझे आपकी पसंद का खाना बनाना था पर पता ही नही आपको खाने में क्या पसंद है क्या बनाऊँ आपके लिए?सुधा एकटक बेटी का मुँह देखते हुए फिर से सोचने लगी 'मेरी पसंद है क्या?' इतने समय से पूरे परिवार की पसंद का बनाने के चक्कर में मुझे तो खुद ख्याल नही रहा आखिर मेरी पसंद है क्या? शाम को बेटी बोली,चलो माँ मार्केट चलते हैं, आपकी पसंद के कलर का सूट खरीदेंगे। सुधा फिर से परेशान आखिर मेरी पसंद का कलर कौन सा है। सच माँ इतने सालों से माँ का फर्ज निभाते निभाते देखो न मै अपने आपको बिल्कुल भूल गई हूँ। 

ऐसा वाकया केवल एक सुधा के साथ ही नहीं हम मे से अधिकांश औरतों के साथ होता है। आखिर क्यों हम पारिवारिक जिम्मेदाइयाँ निभाते हुए भूल जाते हैं कि हमारी खुद अपने प्रति भी कुछ जिम्मेदाइयाँ है?? क्यों हम अपनी सारी इच्छाओं का गला घोंट कर खुद को पूरी तरह परिवार के प्रति समर्पित कर देते है??आखिर हम भी तो ईश्वर की सर्वोत्तम रचना इंसान ही है। हमारे भी कुछ सपने है, कुछ इच्छाएं है, जिन्हें समय रहते पूरा करना अति आवश्यक है। मन से खुश रहेंगे तभी तो अपने आसपास भी खुशियां फैलाएंगे।


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