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Ira Johri

Abstract

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Ira Johri

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भवसागर के पार

भवसागर के पार

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  "जल्दी करो जल्दी!" सब उसे स्ट्रेचर पर रख कर भागे जा रहे थे। वो बेबस सा अपनी पत्नी और बेटों को देख रहा था। अटक अटक कर फंसी हुई सांसें देख लगता था कि रुकी जा रहीं हों।

आंख मुंदने सी लगीं थी।तभी चेहरे पर मास्क और पी पी ई किट पहने हुये हाथों ने सुरक्षा के साथ अपनें घेरे में ले लिया।तभी बेटों की आवाज कानों में गूंजी "पापा हम आपको कुछ नहीं होंने देंगे।"साथ ही पत्नी का स्वर कानों में पड़ा वो बेटों से कह रही थी।"बेटा यह कहाँ ले आये हो हमारे पास तो इतना पैसा है नहीं कि यहाँ इलाज करा सकें।" तभी बेटे का उत्तर सुनाई दिया "पैसा तो आना जाना है। बस पापा ठीक है जायें।"

सब सुनते हुये नींद के इंजेक्शन के असर से धीरे धीरे आँख बन्द होती चली गयी और जब खुली तो खुद को काली प्लास्टिक में लिपटा ,मजबूती से जकड़ा व गहन अंधकार में डूबा हुआ पाया।जहाँ हाथ को कुछ सूझ ही नहीं रहा था। तभी पास ही मैदान में खड़े बेटों, भाई भाभी व पत्नी की गमगीन आवाजें सुनाई पड़ी। पर यह क्या सामने मृत माँ पापा बड़े भाई भाभी भी खड़े नजर आ रहे हैं।

जो अपने साथ चलने के लिये कह रहें है।यह मुझे क्या हो रहा है मैं चाह कर भी रुक नहीं पा रहा हूँ। सब छूटता जा रहा है।अहा !अब आनन्द आ रहा है। नीला समन्दर ! लगता है यही भव सागर है और सबको इसे पार कर के जाना है। 


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