Prabha Gawande

Abstract

4.9  

Prabha Gawande

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बेवा

बेवा

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आज फिर उसका दिल जोर जोर से धड़क रहा है। काँपते हाथों से मोबाइल उठाते हुए पता नही क्या क्या सोच लिया उसने। कान तक मोबाइल पहुँचते पहुँचते जाने कैसे कैसे चित्र आँखों में उभरने लगे। लाख दिमाग को झटकती पर सब वैसा ही।

हैलो, उधर से आवाज़ आई, लाँसनायक अमरसिंह शहीद हो गए। अश्विनी के पाँव काँपने लगे, आवाज़ गले में फँस गई, अभी चार दिन हुए हैं अमर को ड्यूटी पर गए। उसे खुद पर भरोसा न रहा शायद गलत सुन लिया। उसने फिर से उसी नंबर पर फोन लगाया, फिर वही शब्द उधर से दोहराए गए। वह पत्थर बन ग ई।

बीस साल पहले भी यही समाचार उसे खून के आँसू रूला गया था, उसकी दुनिया उजाड़ गया था, जब अमर के पापा दो आतंकवादियों को मारकर खुद उनकी गोली का शिकार हो ग ए थे। तब नन्हें अमर को सीने से भींचते हुए, बहुत रोई थी वह। और आज बेटे अमर को तिरंगे में लिपटकर आता देख वह पत्थर बन गई थी

उसके आँसू सूख चुके थे, वह किसी को नही पहचानती, अपना नाम तक भूल चुकी है। बस एक ही नाम सूरज की बेवा, और क्या रहा अब जीवन में। लोग कहते बेटे की अर्थी देखकर भी रोई नही पत्थर दिल है। कुछ कहते पागल हो ग ई है, दो दो मौतें देखकर।

मगर अश्विनी ने संकल्प लिया था, वो नही रोएगी। सूरज की बेवा कहलाते हुए ही, और अमर तैयार करेगी, गरीब बच्चों को पढ़ाकर उनकी हर संभव सहायता करके, उनमें जोश भरेगी, माँ भारती पर न्यौछावर होने का जज्ब़ा पैदा करेगी।



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