मनहूस
मनहूस
मिन्नी की बड़ी बड़ी आँखें भर आई थीं। दुर्गा माँ की पूजा उसे बहुत भाती थी, सारा-सारा दिन दादी के साथ तैयारी करवाती, जाने कहाँ कहाँ से फूल तोड़कर लाती, हार बनाती और दादी कहतींं तो दूब, बेलपत्र, और तुलसी सब इकट्ठा करती।
पूरी तैयारी करके मिन्नी दादी को बुलाने ऊपर के कमरे में गई। दादी तैयारी हो गई, आप देख लो एक बार। हाँ चल आ रही हूँ, सब मुझे ही तो करना है, जा मानसी को बुला ला।
मानसी चाची के आते ही पूजा शुरू हुई। तबतक मिन्नी भोग तैयार कर लाई। पूजा के कमरे में उसे सबसे पीछे बैठना होता था। मगर आज मन हुआ दादी के पास बैठूँ। मिन्नी थोडा खिसककर दादी के पास बैठने लगी तो चाची ने झिड़क दिया, अरे मिन्नी वहीं बैठो, सब जगह मनहूसियत फैलाती रहती हो। मिन्नी पूछना चाहती थी कैसे, मगर चुप रही उसे पता था, अभी बोलने लगेंगी, पैदा होते ही माँ बाप चले गए, इतनी मनहूस है तू।
आँखे भरकर वह पीछे बैठ गई, और दुर्गा माँ से प्रार्थना करने लगी, हे ईश्वर मनहूस का दाग मिटा दे और शायद कान्हा को दया आ गई।
सुबह के अखबार में बारह वीं के रिजल्ट के साथ उसकी फोटो थी। मैरिट में पहला न.। उसे विश्वास न हुआ मगर आँगन में बैठे दादाजी ने जब उसे बाँहों में भर खूब दुलार किया और कहा तूने मेरे खानदान का नाम रोशन किया है, आज तक इस घर से कोई मैरिट में नहीं आया, मिन्नी को लगा मानों खुशी के आँसुंओं से उस पर लगा मनहूस का दाग धुल गया।
दादाजी ने उसका एडमिशन एक बहुत प्रतिष्ठित कॉलेज में करवा दिया और आज शहर जाते वक्त मिन्नी सबसे विदा ले रही है। आज चाची की आँखों में भी पश्चाताप के आँसू हैं।