बेटियाँ और भय
बेटियाँ और भय
रोजाना की तरह आज भी मुझे ड्यूटी से घर आने में थोड़ी देर हो गयी, उजले दिनों में तो यह देर कुछ खास मायने नहीं रखती पर शीत काल में सात बजे के बाद तो मानो ऐसा लगता है जैसे आधी रात हो चली हो। ऊपर से हमारी बस्ती की ओर जाता यह सुनसान रास्ता डर, खौफ, और भय की कुछ अजीब ही दास्ताँ बयाँ करता है। शादी से पहले 25 की उम्र तक तो डर को खुद मुझसे डर लगता था पर ज्यों ज्यों मेरी उम्र बड़ रही थी और परिवार बढ़ रहा था , डर एक बीमारी की तरह मेरे दिमाग में अपना डेरा जमा रहा था। मेरी उम्र 55 वर्ष हो चली है , और इस उम्र में ऐसे सुनसान रास्तों पर जाते समय हमेशा भय बना रहता है, कहीं कोई लूट ना ले, या फिर अन्धेरा होने के कारण किसी अनजान से गड्डे या नाली में गिर ना जायें। डर के कारण मैं उस सुनसान रास्ते पर तब तक आगे ना बढ़ता था जब तक कि कोई साथ में जाने वाला ना मिल जाये , पर कभी - कभी तो आधा - आधा घन्टा खड़ा रहने पर भी कोई साथ में जाने वाला नहीं मिलता था।
आठ बज चुके थे और सर्दियों में इस समय लोग कम ही बाहर निकलते हैं , हाँ उस सुनसान रास्ते से पहले एक दुकान थी जिस कारण वहाँ कोई ना कोई तो जरूर मिल ही जाता था। उस सुनसान रास्ते से मैं अभी बीस कदम दूर था , मेरे मन में चल रहा था कि आज ना जाने कितनी देर यहाँ खड़ा रहना पड़ेगा। पर वहाँ पहुँचने पर मैंने देखा कि आज तो मुझसे पहले ही वहाँ कोई है , पास जाकर देखा तो एक नौ साल की बच्ची वहाँ खड़ी थी। मेरे कुछ कहने से पहले ही उसने मुझसे पूँछ लिया - अंकल क्या तुम बस्ती की तरफ जा रहे हो ?
मैंने कहा - हाँ बेटी।
वो बोली अकंल - मुझे भी बस्ती में जाना है।
मैंने कहा - चलो।
फिर मैंने उससे कहा - बेटी इतनी रात में बाहर नहीं निकलते हैं।
वो बोली - हाँ अंकल मुझे पता है मैं तो दिन में भी यहाँ से नहीं निकलती हूँ। चूल्हा जलाने को माचिस ना थी , पास वाली आण्टी से माचिस माँगी तो उन्होंने दुत्कार दिया , इसलिये इतनी रात मे मुझे यहाँ आना पड़ा।
वो बच्ची बहुत बातूनी थी, लगातार या तो वो मुझसे कुछ ना कुछ पूँछ रही थी या फिर मुझे कुछ ना कुछ बता रही थी। पर उस बच्ची की बातों को नजरंदाज कर मैं इस समय सोच रहा था कि मुझे तो इन चोर और मवालियों से डर लगता है, पर इस छोटी सी बच्ची को आखिर किस चीज से डर लग रहा है। भूत से या फिर तन के भूखे भेड़ियों से, क्या यह बच्ची इतनी सी उम्र में वाकिफ है हमारे घिनौने आज से , जहाँ कहीं भी , कभी भी , कोई भी जाहिल मासूम बच्चियों को अपनी हवस का शिकार बना रहा है जिसमें हर उम्र की लड़की में मर्दों को सिर्फ उमराव जान नजर आती है , हर अबला को अपनी आबरू लुट जाने का भय रहता है। कभी कभी तो ऐसा लगता है जैसे महिलाओं की इज्जत की चाभी खुद महिलाओं के नहीं आदमियों के हाथों में है अगर ताला खुला तो खुला नहीं तो तोड़ दिया। आज हम इनसानों से ज्यादा जानवर मर्यादाओं में रहना जानते हैं। आज हर उम्र की लड़की को अपनी पढ़ाई, अपनी शादी, अपने परिवार, और अपने भविष्य से ज्यादा चिन्ता अपनी आबरू को बचाये रखने की होती हैं। संकरी गलियों से गुजरते वक्त, बस और ट्रेनों में अकेले सफर करते वक्त, रात में कहीं भी आते जाते वक्त लड़कियाँ हमेशा डरी सी , सहमी सी रहती हैं। पर आखिर इस डर की वजह का कारण क्या है हमारी सभ्यता तो इतनी बुरी नहीं है तो क्या हमारा समाज , हमारी सोच , और हमारी सरकार, इतनी नपुंसक है जो छोटी छोटी बच्चियों की इज्जत भी बचाने सक्षम नहीं , अगर नहीं है तो दुत्कार है ऐसे समाज, सोच और सरकार पर।
सुनसान रास्ता 300 मिटर लम्बा था और इस बीच वो अनजान सी लड़की बेझिझक मुझसे बाते करती हुई मेरे साथ उस सुनसान रास्ते से अपने घर को आ गयी क्योंकि उसे मुझमें कोई अपना सा दिखा, और उस लड़की की तरह हर लड़की हम मर्दों में अपने भाई को, अपने बाप को, अपने दोस्त को , या फिर अपने चाचा, मामा, या ताऊ को खोज ही लेती है, पर आज कल के जाहिल लोग तो हर नारी में बस एक ही चीज ढूंढते है, और हर नारी को एक ही निगाह से देखते है, वो चीज और वो निगाह क्या है हम सब अच्छी तरह से जानते हैं , वो है तन और तन की भूख। मैं अपनी विचारो और उस बच्ची की बातों में इतना खो गया कि वो मुझे अपनी सी बेटी सी प्रतीत होने लगी।