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AMIT SAGAR

Tragedy

4.8  

AMIT SAGAR

Tragedy

ग़म की मिठाई

ग़म की मिठाई

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ज्येष्ठ का महीना शुरू हो चुका था, हर साल की तरह इस साल भी गर्मी अपना रुद्ररूप धारण करने को मचल रही थी। वैसे तो कोई भी मौसम किसी का सगा नहीं होता पर गरीबों का तो हर मौसम मानो जानी दुश्मन होता है खासकर गर्मी। गर्मी आते ही लोग अपना A.C, पंखा और कुलर को टिप टोप कर लेते हैं। पर कुछ ऐसे भी है जिनके घर में पंखा है ही नहीं।

ऐसे ही एक गरीब परिवार में में चार साल का सोनू माँ से जिद कर रहा था - माँ पंखा कब लाओगी सबके घर में तो है तुम भी ले आओ ना, पर माँ के कान में तो मानो आवाज आयी ही ना हो, पर सोनू बहुत जिद्दी था, और पंखे के लिये लगातार जिद कर रहा था, यही जिद पिछले साल रोहित और उससे पहले राहुल और उससे पहले रजनी करती थी। अजी बस यूँ समझ लो कि मीरा काकी के छः बच्चे थे, और इन सभी ने साल दर साल बारी बारी माँ के सामने पंखे के लियें फरियादे, प्रार्थना, गुहार सभी करके देख ली पर आज तक एक पंखा नसीब नहीं हुआ, और हो भी कैसे नौ लोगों के परिवार में सिर्फ एक कमाने वाला है वो भी कोई डिप्टी कलेक्टर नहीं एक बैलदार है, जिसे कभी काम मिलता है कभी नहीं। जिस दिन काम मिलता है, उस दि‌न चैन वाली रोटी जिस दिन नहीं मिलता उस दि‌न बनिये के कर्जेवाली रोटी। पर बच्चे इन सब बातों को कहाँ समझते हैं उनके लिये तो चाँद भी सड़क पर लगे बल्ब के सामान हैं जिसे आसमान से लाकर अपने घर में लगाने की जिद वो अपने पिता से करते हैं, और ऐसे ही बच्चे पंखे की जिस दिन ज्यादा जिद किया करते थे, माँ कह देती थी जाओ नल पे नहाने चला जाओ, नल पर नहाने का नाम सुनकर बच्चे गर्मी और पंखे को भूल जाते थे, और ऐसे खुश होते जैसे बिना होली, दीवाली के ही घर में पकवान बन रहें हों। मजबूर माँ के लिये उनकी यह खुशी एक ब्रह्ममास्त्र बन चुकी था, क्योंकि रात को जब बच्चे पंखे की ज्यादा जिद करते थे तो माँ कहती थी अगर जिद करोगे तो कल नल पर नहाने के लिये ना जाने दूंगी।

अभी तक तो यूँ ही चल रहा था पर यह छोटा वाला सोनू कुछ ज्यादा ही जिद्दी था, उसकी ख्वाहिश पूरी ना होने पर वो घण्टों रोता था, बड़ी बहनों से उसके आंसू देखे ना जाते, पर बेचारी बहनों के बस में कुछ ना था, क्योंकि पुरानी बस्तियों में जहाँ कोई मजबूर लड़की घर से बाहर काम को निकली वहाँ मुंह जुड़ने शुरू हो जाते हैं, पर अबकी बार सबने ठान लिया था चाहे कुछ भी हो जाये पंखा जरूर लेना है, अरे कल को अगर बड़ी बेटी के देखने वाले आयेंगे तो गर्मी में थोड़ी ही ना बैठायेंगे उन्हें। पर इस बैरी पंखे को लाने के लिये किससे कर्जा लिया जाये। बनिये से, राशन वाले से, दूध वाले से, रिश्तेदारों से, पड़ोसियों से यहाँ तक कि मुहल्ले के कुत्ते बिल्लियों तक से कर्जा ले रखा है। दिन भर में गली से अगर दस लोग गुजरते हैं, तो उनमें से आठ लोग मीरा काकी से कर्जा माँगने वाले होते हैं। पर मीरा काकी को उसकी चिन्ता ना थी क्योंकि यह सब तो अब दिनचर्या का हिस्सा बन चुका था।

पर मीरा काकी और उनकी बेटियाँ अबकी मन में ठान चुकी थी और मन में अगर सच्ची लगन हो तो कोई ना कोई राह दिखाने के लिये आ ही जाता है। पास में ही अशोक नाम के एक सज्जन रहते थे, मीरा काकी के बच्चे जिन्हें चाचा -चाचा कहते थे, साथ ही वो मीरा काकी के बच्चों को वो काफी चाहते भी थे। मीरा काकी के घर की कहानी उनसे छुपी ना थी, वक्त - वक्त पर वो मीरा काकी को सही सलाह दे दिया करते थे, जो हमेशा उनके लिये मददगार ही साबित होती थी।

मीरा काकी ने जब पंखे के जिद वाली बात उनको बतायी तो उन्होंने कहा सड़क के किनारे घर से 50 मिटर आगे चौराहे पर एक नया कारखाना खुला है जहाँ बच्चों के खाने की टॉफीयाँ और कई तरह के पैकेट वाले सामान बनते हैं, जिसकी पैंकिग वो मजदूरी पर कराते हैं, अगर तुम कहो तो मैं वहाँ कारखाने में तुम्हारी बात करवा देता हूँ। मीरा काकी को इन सबकी अधिक जानकारी ना थी, वो बोली - अरे तुम्हारे भैय्या कहाँ जाने देंगे, और अगर जैसे तैसे तुम्हारे भैय्या मान भी गये तो भी इन मोहल्ले वालों के ताने हमसे ना सुने जायेंगे।

तब अशोक बोले - अरे भाभी वहाँ किसी को जाने की जरूरत नहीं है, मैं राहुल को कल कारखाने से कुछ पैकिंग का सामान उठवा दूंगा, तुम सभी मिलके उसको पैक करवा देना, और तुरन्त ही तुम्हें उसके पैसे भी मिल जायेंगे।

मीरा काकी को अशोक की बात समझ में आ गयी और उन्होंने कारखाने राहुल को उनके साथ भेज दिया। सामान लाने पर घर के सभी लोग टॉफियाँ पैक करने के लिये बैठ गये, और देर रात तक जैसे जैसे जिसको नींद आती रही वो सोता रहा, अंत में मीरा काकी और रजनी की कमर के दर्द ने भी जवाब दे दिया, पर मासूम सोनू के रोते बिलखते चेहरे की परछाइयों ने मानो उस दर्द को ठोकर मारकर कहीं दूर भगा दिया हो। पर धीरे धीरे वो परछाइयाँ ओझल होती गयी और दोनों वही सिरहाने कोहनी रखकर सो गयी। अगले दिन जो भी टॉफियाँ पैक हुई उनको लेने के लिये कारखाने से एक आदमी मीरा काकी के घर आ गया जिसकी आंखों में मीरा काकी की लड़कियों के लिये हैवानियत साफ झलक रही थी। किसी बहाने से उस कारखाने वाले ने मीरा काकी की बड़ी लड़की रजनी को छूने की कोशिश की, पर रजनी ने उससे यह मौका अपना हाथ बचाकर छीन लिया। मीरा काकी सबकुछ देख रही थीं, पर वो चाहकर भी कुछ नहीं कर सकती थीं, क्योंकि वक्त ने उनके हाथ में बेबसी की हथकड़ियाँ डाल रखी थीं, पर उस नामुराद को इन बाह्मयाद हरकतों का जरूरत से ज्यादा ही तजुर्बा था, और इसी तजुर्बे को लेकर उसने पैसे देने के बहाने एक बार फिर रजनी को छूने की कौशिश की, लेकिन रजनी ने अपनी माँ को पैसे लेने के लिये आगे कर दिया। रजनी की चतुरता के कारण उस दुष्ट कारखाने वाले के मन की मनसा उसके मन में ही रह गयी। पूरा दिन और आधी रात टॉफियाँ भरने के बाद मीरा काकी के हाथ में 100 रुपये आये, जिनमें नन्हे सोनू सहित  चार ओर लोगों की मेहनत थी। पर उस दुष्ट कारखाने वाले के दुर्व्यवहार के कारण मीरा काकी को अपने बच्चों की मेहनत भी हराम नजर आ रही थी। मीरा काकी यह काम और नहीं करना चाहती थी, क्योंकि ले- दे के उनके पास अपनी बेटियों की इज्जत ही तो थी, जिसे उन्होंने कारखानेदार जैसे बगडुल्लो से बचाकर रखा था, और अपने परिवार की इस बची हुई इज्जत को मीरा काकी खोना नहीं चाहती थीं। पर नन्हे सोनू की खुशियों की खातिर मीरा काकी सबकुछ नजर- अन्दाज कर देती हैं। और पंखा आने तक उस दुष्ट कारखानेदार की सारी हरकतें बर्दाश्त करने का मन बना लेती है।

आज मिले पैसो से मीरा काकी पंखा आने का हिसाब लगाने लगती है, पंखा 2500 का आना था, और 100 रुपये रोज के हिसाब से उनको अभी 25 दिन और टॉफियाँ भरनी थीं, और हर रोज मीरा काकी को उस दुष्ट कारखानेदार की बुरी नजर से अपनी बेटियों को बचाये रखना था।

खैर, एक- एक करके दिन गुजरने लगे, और हर गुजरते दिन और पंखे के लिये बढ़ते पैसो को देखकर परिवार के

सभी लोगों के चेहरे पर खुशियों की झलक साफ दिख रही थी। बीसवें दिन वो कारखानेदार मन में सोचकर आया था कि आज चाहे कुछ भी हो जाये रजनी को एक बार छूना जरूर है, हमेशा वो टॉफियोँ को दो बोरों में भरकर ले जाता था, जिसे मीरा काकी एक - एक करके उठवा दिया करती थी। पर आज उस कारखानेदार ने एक चाल चली वो कारखाने से एक ही बोरा लेकर आया था, और सारी टॉफियाँ उसी बोरे में भर दी , जिसको उठवाना मीरा काकी के बस में ना था। हारकर रजनी को ही बोरा उठवाना पड़ता है, और इसी का फायदा उठाते हुए उसने रजनी के हाथ को स्पर्श कर दिया। रजनी ने उसका हाथ झटक दिया, वो इस बात का ववंडर नहीं काटना चाहती थी, पर उसके भाई राहुल ने यह सब देख लिया और उसने कारखानेदार को गालियाँ बकनी शुरु कर दी, घर के सभी लोग उसे रोक रहे थे, पर इस समय उसका गुस्सा सातवें आसमान पर था और हो भी क्यों ना कोई भी भाई यह हरगिज बर्दाश्त नहीं करेगा कि उसकी बहन को कोई बुरी निगाह से देखे या स्पर्श करे। खूब शोर शराबा और हल्ला - गुल्ला होने के बाद मीरा काकी और रजनी को जिसका डर था वही हुआ, कारखानेदार ने मीरा काकी को काम देना बन्द कर दिया।

अगले दिन सभी ठन्डे चूल्हे बैठे थे, पंखे के लिये दो हजार रुपये इकट्ठा हो चुके थे, पर अभी पाँच सो रुपये कम थे। घर के सभी लोगो को अपने बीस दिन की मेहनत मिट्टी में मिलती नजर आ रही थी, पंखा आने में केवल पाँच दिन शेष रह गये थे, छोटे सोनू ने तो कई दिन से पंखे का एहसास भी लेना शुरु कर दिया था, १और अपने नन्हे दोस्तों से क्या क्या शेखी बघारनी है यह भी सोचना शुरु कर दिया था। पर उस नीच कारखानेदार की नीचता के कारण नन्हे सोनू के सारे अरमानों पर पानी सा फिर गया। मीरा काकी और रजनी एक दूसरे का मुँह निहार रही थीं, कि कैंसे बाकी के पाँच सौ रुपये का इन्तजाम किया जाये। रजनी के पिता इतना ही कमा पाते थे जितने में बच्चों का पेट भर जाये। जब मीरा काकी को कोई युक्ति नहीं सूझी तो उन्होंने फिर से कर्जा लेने की बात मन में सोची, पर यह कर्जा लिया किससे जाये, क्योंकि मीरा काकी को तो अब कोई कर्जा देता नहीं है। इसलिये अबकी बार उन्होंने अपनी बहन का सहारा लिया जो कि पास में ही रहती है। बहन को साथ ले जाकर मीरा काकी ने पाँच सो रुपये बहन के नाम में ही बनिये से ले लिये क्योंकि उसका हाथ साफ था। बस फिर क्या था पंखे के लिये अब 2500 सौ रुपये पूरे हो चुके थे, अब तो इन्तजार था कल सुबह दुकान खुलने का क्योंकि आज रात एक आखिरी मशवरा पंखे को लेकर घर के सभी सदस्यों में होना था कि उधारी के पाँच सौ रुपये कैसे चुकायेंगे। और वो आखिरी मशवरा भी हो गया कि वो पैसे राहुल को किसी दुकान पर काम करने से चुकाये जायेंगे।

आज रात सभी के मन में एक अजीब सी हलचल और व्याकुलता थी क्योंकि कल घर मे पंखा आने वाला था। नन्हे सोनू को तो आज सपने में भी पंखा ही दिखाई दिया था। रजनी और मीरा काकी को रात भर नींद नहीं आयी, उनको ऐसा लग रहा था जैसे यह रात उनके दुखो की आखिरी रात है, और कल पंखा आते ही उनके आधे कष्ट मिट जायेंगे। सुबह होते ही नन्हे सोनू ने मीरा काकी को आवाज लगानी शुरू कर दी - माँ उठो पंखा लेकर आओ। नन्हे सोनू की मीठि बात सुनकर मीरा काकी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है और वो कहती हैं - अभी दुकान तो खुलने दे मेरे नन्हे खसम।

अभी सात ही बजे थे और दुकाने नो बजे खुलती हैं, पर सोनू ने जिद पकड़ ली कि जल्दी से पंखा लेकर आओ वरना वो चाय नहीं पियेगा। मीरा काकी ने जैसे तैसे नन्हे सोनू को बातो मे लगाकर सवा घण्टा तो बिता दिया लेकिन जिद के कारण मीरा काकी को पोना घण्टे पहले ही दुकान पर जाना पड़ा। बन्द दुकान के आगे मीरा काकी सोनू को लेकर बैठ गयी, मन में गुस्सा था पर पंखा आने की खुशी में वो गुस्सा बार बार दब रहा था। खैर नौ बजे दुकान खुलती है, और मौल भाव करके मीरा काकी 2500रुपये वाला पंखा  2450 रुपये में ही खरीद लेती हैं, क्योंकि सुबह -सुबह दुकानदार बोहनी खराब नहीं करना चाहता था। बचे हुए पचास रुपयों से पंखा आने की खुशी में मीरा काकी उन पैसे की घर को मिठाई ले जाती है। सोनू उस मिठाई में से एक लड्डू लेने की जिद करता है, पर मीरा काकी उसको समझा देती है की पंखे की पूजा होगी तब यह मिठाई मिलेगी। पंखा आते देख रजनी के चेहरे पर मुस्कुराहट आ जाती है, कि आज से हम भी पंखे वाले हो गये। अब रात दिन घण्टों घण्टों बीजना ना झलना पड़ेगा। मीरा काकी पंखा राहुल को देती है और कहती है - ले भइया जल्दी लगा दे इसको छत पर, ऐसा लगता है गर्मी आज अपनी चरम सीमा पर है। इधर छोटा सोनू पंखा छोड़कर माँ से फिर लड्डू के लिये कहता है। मीरा काकी कहती है - बस बेटा कुछ देर और रुक जा, पंखा चालू होते ही लड्डू ले लेना। राहुल छोटे भाई की जिद देख तेज हाथ पाँव से पंखा छत पर लगा देता है। पर ना जाने कैसे बनिये को यह बात पता चल जाती है कि मीरा काकी के घर आज नया पंखा आया है।

राहुल पंखे को चलाने ही वाला होता है, तभी मीरा काकी के घर बनिया आ जाता है और घर में नये पंखे को देखकर आग बबूला हो जाता है , और जोर जोर से चिल्लाने लगता है - उधारी का पैसा देने का नाम नहीं और यहाँ मजे से पंखे की हवा खायी जा रही है, कर्जा लो और भूल जाओ। पर मैं अपनी मेहनत की कमाई से तुम्हें मजे लेने नहीं दूंगा। वो अपने साथ दो तगादिये भी लाता है और उन दोनों तगादियों को पंखा उतारने के लिये कहता है।

दोनों तगादिये हट्टे कट्टे पहलवान से होते हैं, वैसे तो कर्जा लेने वालों का लहजा़ नर्म ही रहता है, पर इन पहलवानों को देखकर बची खुची आवाज भी निकलनी बन्द हो जाती है। लेकिन फिर भी मीरा काकी एक लाचारी भरी गुहार उन तगादियों से लगाती है, और कहती है बेटा कुछ दिन और रुक जाते तो बच्चों की गर्मियाँ चैन से कट जाती, और तुम्हारी उधारी भी चुकता हो जाती। तगादियें कहते हैं काकी हमारे वश में कुछ नहीं है हम तो गुलाम ‌हैं, मालिक कहे पंखा उठा लो तो पंखा उठा लें, मालिक कहे लड़की उठा लो तो लड़की उठा लें। तगादियों की यह बात सुनकर सभी भयभीत हो जाते हैं, और ख़ामोशी से पंखा और घर की इज्जत उतरते हुए देखते हैं, और घर के सभी सदस्य एक -दूसरे के चेहरे पर अलग अलग तरह का गुस्सा, शिकायत, फरियाद, उदासी, लाचारी , साफ साफ देख रहे थे। छोटा वाला सोनू सिसक रहा था, और होंठ लटकाये पंखा उतरते बाहर से ही देख रहा था। सोनू से बड़ा रोहित अब थोड़ा समझदार हो चुका था, वो कहता है चुप हो जा भइया यह पंखा तो छि छी का है, हवा भी नहीं देता है, पापा कल को नया पंखा लायेंगे। रोहित का छोटे भाई के प्रति प्यार देखकर बड़ी बहन रजनी की आँख से आंसू छलक आते हैं।

तगादिये पंखा उतारकर ले जाते हैं। मीरा काकी रजनी से बीजना माँगती है और खुद की हवा करने लगती हैं, उनके मुँह से हल्की सी हुंकार और छटाक भर होंठों पर तिरछी हँसी आती है, पर अन्दर से दिल दहाड़े मार मार कर रो रहा था। पिछले 20 दिन की मेहनत और 500 रुपये की उधारी होने के बाद अब घर में सिर्फ 50 रुपये की मिठाई बची थी, जो खुशी की थी या गम की पता ही नहीं। 



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