बच्चे मस्त, बुजुर्ग पस्त
बच्चे मस्त, बुजुर्ग पस्त


माता- पिता अपने बच्चों को आसानी / कठिनाई से पाल-पोस कर काबिल बनाने में अपनी पूरी जिंदगी स्वाहा कर देते है और बच्चे अपने बूढ़े माता पिता की अर्थी को कंधा देने में हिचकिचाते है। जिन्होंने जीवन का सर्वोत्तम समय अपने बच्चों की अच्छी परवरिश के लिए न्यौछावर कर दिया, वही बच्चें उनकी आत्मा की शांति के लिए सिर्फ कुछ दिन शांति से नहीं रहते। अगर कही पिता ने अच्छी जमा-पूंजी छोड़ दी, तो समझो फिर शुरू कभी खत्म न होने वाला बखेडा। कभी मां पिता ने अपनी वृद्धावस्था में इस बात का प्रतिरोध भी किया, तो बच्चों की यह बात कि 'तुमने हमको पाल कर कोई अहसान नहीं किया बल्कि अपना फर्ज ही निभाया' सुनकर माता पिता निष्प्राण हो जाते हैं। अब सवाल यहां उठता है कि जब उन्होंने अपना फर्ज निभाया तो क्या बच्चों का उनके प्रति कोई फर्ज नहीं है। भगवान से भी सर्वोत्तम माँ पिता जो हर पल हैरान व सहमे हुए होते है। कितने गणितज्ञ व शोधकर्ता आए और गए पर एक मां पिता के जज्बात व उनके दिल में उठने वाली तरंगों को न समझ पाए। सृष्टि के निर्माता ब्रह्मा माने गए है, पर उनका दर्जा भी मां पिता से ऊंचा नहीं हो सकता। वह मां जो अपने बच्चे को लेकर हर पल सहमी रहती है, बच्चा जरा खांसा तो मां की नींद हराम, जरा सा रोया तो मां बेहाल। बच्चे की हर शरारत पर मां और पिता हैरान होती है। अपने बच्चों के हावभाव के सहारे ही मां पूरी जिंदगी जी लेती है। बच्चे के दिल में कोई अरमान अधूरा न रह जाए। उसके पिता दिन रात एक कर देता है। अपनी जीवन यात्रा के अंतिम पड़ाव पर दोनों सूनी आंखों से देखते हुए बच्चों की खुशी या ग़म के आंसूओं से अपना पेट भर लेते है। सोचिए मां पिता ने वर्षों पहले इस बात को सोचा होता, तो क्या आज वह ऐसा करने लायक भी होते है। क्योंकि बच्चों को इस दुनिया में लाने का फैसला मां और पिता ने लिया था, जो मां कहलाने को बेताब थी और पिता पापा सुनने को। यह कडुवा सत्य उस समाज में चरितार्थ हो रहा है, जिस समाज के आराध्य श्रीराम और श्रीकृष्ण है और जिस धरती पर श्रवण कुमार ने अपने बूढे माता -पिता को तीर्थ यात्रा कराते हुए अपने प्राण दे दिए हो। वहां पर वृद्धा आश्रम की जरुरत ही क्यों पड़ी ? क्या उस मकान में जगह कम हो गई, जिसको पिता ने अपनी खून-पसीने की गाढी कमाई से अपने बच्चों के लिए बनवाया था। जबकि वह जानता था, वह अपनी जीवन-यात्रा के अंतिम पड़ाव पर है। अचानक ऐसा क्या हो गया, कि अपने ही मकान का बरामदा उन बुर्जगों लिए नरक समान बन गया। अपवाद हो सकते है, यह अलग बात है। मेरी समझ में यह नहीं आता, आज हमारे पास अपने बच्चों को संस्कारवान बनाने के हर साधन उपलब्ध है, जैसे महानतम संतों और लेखकों की उपयोगी पुस्तकें, हर घर में मौजूद टेलीविजन, रोज सुबह घर पहुँचता अखबार। हम सत्ता पलटने और दुश्मन को धूल चटाने में माहिर है, तो फिर भी बच्चों को संस्कारवान बनाने में क्यों नाकाम साबित हो रहे है?