Prabodh Govil

Action

3  

Prabodh Govil

Action

बैंगन- 18

बैंगन- 18

3 mins
175


मैं दोपहर बाद हड़बड़ा कर मंदिर में पहुंचा तो पुजारी जी कुछ भक्तों को प्रसाद देने में व्यस्त थे। मुझे देखते ही पुजारी जी, तन्मय के पिता आरती की थाली एक ओर रखकर मुस्कुराते हुए मेरे करीब आए तो नज़दीक आते ही चौंक गए। शायद मेरी परेशानी उन्होंने भी भांप ली थी।

मैंने बिना किसी भूमिका के जल्दी जल्दी उन्हें बताया कि सुबह का गया हुआ तन्नू अब तक नहीं लौटा है जबकि अब तो चार बजने वाले हैं।

पुजारी जी भौंचक्के होकर मेरी ओर देखने लगे। उन्हें तो शायद ये भी मालूम नहीं था कि तन्मय कहां गया था, क्यों गया था, गया था तो उसके साथ मैं क्यों नहीं गया, काम उसका था या मेरा, और वो मुझे घर में अकेला बैठा छोड़ कर कहां व क्यों गया था।

उनका सपाट सा चेहरा देख कर मेरी समझ में कुछ नहीं आया।

वो शायद अपने बेटे के इस तरह चाहे जब इधर उधर आने जाने के अभ्यस्त ही थे। उन्हें इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। वो सहजता से बोले- आ जाएगा, आप घर में आराम करो। आपने चाय पी या नहीं? किसी लड़के को भेजूं, आपको चाय बना कर पिला दे।

उनके इस इत्मीनान को देख कर मुझे कुछ तसल्ली हुई पर मैं अब भी यही सोच रहा था कि सुबह तांगा लेकर तन्मय मेरे भाई के बंगले पर फूल देने गया था, तो अब तक लौटा क्यों नहीं? मैंने उस से कहा था कि आज किसी बहाने से भैया के घर के भीतर घुस कर उनकी नौकरानी से कुछ मेलजोल बढ़ाने की कोशिश करे, ताकि मुझे उसके माध्यम से अपनी तहकीकात करने में कोई सबूत या संकेत मिले।

कहीं बेचारा लड़का किसी मुसीबत में तो नहीं फंस गया? उसके पिता को तो कुछ भी पता नहीं है, वह तो यही समझ रहे हैं कि मैं अपनी दुकान के लिए माल खरीदने आया हूं, और उनके बेटे को साथ में ले जाने के लिए उसकी राह देख रहा हूं।

मैंने अपनी उलझन उन्हें बताने का ख्याल छोड़ दिया और सिर खुजाता हुआ चुपचाप कमरे पर वापस लौट आया। मैंने सोचा धरम करम के काम में लगे बेचारे तन्मय के पिता को क्यों परेशान करूं।

लेकिन कमरे में पहुंच कर मैं बेचैनी में इधर उधर टहलने लगा।

कुछ देर बाद मैंने खुद भैया के घर जाने का विचार बनाया।

मैं भैया को मिलकर कुछ भी बताने की स्थिति में नहीं था, न ही उन्हें चौंकाना चाहता था इसलिए मैंने अपनी पहचान छिपा कर चुपचाप वहां जाने का इरादा किया।

कुछ सोच कर मैंने झटपट तन्मय का कुर्ता पायजामा खूंटी से उतार कर पहन लिया। सिर पर उसके पिता के एक पुराने से गमछे को लपेट लिया। आंखों पर काला चश्मा चढ़ा लिया।

कुछ सोचकर मैंने पायजामा उतार कर पुजारी जी की एक धोती ही पहन ली और उन्हीं की पुरानी सी टायर की चप्पल पहनकर दरवाजे की कुण्डी चढ़ा कर निकल पड़ा।

जब मेरा रिक्शा भाई के बंगले के सामने से गुजरने लगा तो मैं असमंजस में था। यहां उतर कर भीतर जाऊं या नहीं। जाऊं तो क्या कह कर, किस काम से? कहीं भाभी और बच्चों ने पहचान लिया तो मुझे इस हुलिए में देख कर कितनी फजीहत करेंगे? सचमुच मुझे पागल ही समझ लेंगे और बखेड़ा खड़ा कर देंगे। हो सकता है मेरे घर से मेरी पत्नी को भी बुला लें और डॉक्टर से मेरा इलाज ही करवाने लगें!

मुझे किसी गफलत में देख कर रिक्शा वाला भी बोल पड़ा- अरे कहां जाना है भैया? ये कोई शिमला की माल रोड थोड़े ही है जो इस तरह घूम रहे हो!

मैंने चौंक कर उससे कहा, वापस ले लो, मैं तो कोई पता ठिकाना ढूंढने आया था।

रिक्शा वाले को शायद मेरी वेशभूषा और बातचीत करने के ढंग में कोई बड़ा अंतर दिखाई दिया। वह शंकित सा वापस मुड़ कर पैडल मारने लगा।

बंगले पर मुझे तन्मय के होने या आने का कोई चिन्ह नहीं दिखा।

मैं लौटने लगा।


क्रमशः


Rate this content
Log in

Similar hindi story from Action