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Prabodh Govil

Others

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Prabodh Govil

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ख़ौफ़

ख़ौफ़

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किसी बहुत पुराने खण्डहर से सटा एक मकान का जर्जर और अधबना हिस्सा था वह। आसपास की टूटी-फूटी मैली और खस्ताहाल दीवारें। इन्हीं के बीच एक साफ-सुथरा-सा कमरा था, जो पुराना होते हुए भी किसी समय शानदार होने का आवाज भी गवाह था। फर्श पर रंग-बिरंगे पत्थरों की टाइलें बिछी हुई थीं। और इसी कमरे में एक कोने में अँधेरे की पतली-सी तंग चौकी के बीच किसी तहखाने में एक रास्ता उतरता था। इसी की सीढ़ियों पर बैठा था एक बूढ़ा आदमी। सफेद और काले मिले-जुले बालों की दाढ़ी और कन्धों तक आते हुए खिचड़ी बालों वाला।

मन्दिर के पुजारी का बेटा पुखराज जब तश्तरी में रोटियाँ और तरकारी लेकर पानी के लोटे के साथ पहुँचा, तो वह तहखाने की ओर पैर लटकाये इस तरह बैठा था, जैसे कोई बूढ़ा कब्र में पाँव लटकाये बैठा हो। पुखराज ने कमरे के भीतर पाँव रखते ही उधर देखा, फिर आहिस्ता-से थाली को आले पर रखकर लोटा भी उसके साथ सावधानी से रख दिया और पलट कर बूढ़े के पीछे आकर खड़ा हो गया।

''अरे पुखराज बेटा तू! तू आज पढ़ने नहीं गया?''

''मेरे कॉलेज की छुट्टी चल रही है अभी।''

''अच्छा-अच्छा.. अरे हाँ, मैं तो भूल गया, तू इस बरस कॉलेज में आ गया बेटा! मैं तो तुझे..''

''हाँ! आप तो मुझे दूध पीता बच्चा समझ रहे थे। है ना..!''

''नहीं-नहीं.. बहुत अच्छा हो गया। तू आ गया बेटा, आ, आजा मेरे साथ आ।''

''कहाँ..?''

''नीचे.. यहाँ तहखाने में। देख, मैं कैसा खेल खेल रहा था, तू भी देख।''

पुखराज बूढ़े के साथ-साथ आहिस्ता-से तहखाने में उतर गया और अँधेरे में ही आठ-दस कदम चलने के बाद उस कुएँनुमा कमरे में पहुँच गया, जो काफी ऊँची दीवारों वाला था और उसकी छत खुली थी। छत पर लोहे की जाली ढकी थी। जाली ऊपर से, मन्दिर के पिछवाड़े से दिखायी देती थी। यहाँ से देखने पर यह कोई लोहे की सलाखों से ढका हुआ कुआँ दिखायी देता था। इस कुएँनुमा कमरे में बहुत सारे कबूतर थे, जो फर्श पर, दीवारों के दो छेदों और सलाखों के आसपास फैले हुए इधर-उधर उड़ रहे थे।

पुखराज को बूढ़े के साथ इस खेल में मजा आया। कुएँ के मुहाने पर चुपचाप बैठ गया। बूढ़ा भीतर उतर गया।

''देख बेटा.. ये देख, मैं इनके लिए दाना डालता हूँ..'' बूढ़े ने कहते हुए कुरते की जेब से एक मुट्ठी ज्वार के दाने लेकर चारों ओर छितरा दिये। कबूतर फड़फड़ा कर इधर-उधर उड़े और गुटरगूँ करते हुए कुछ कबूतर जल्दी-जल्दी दाना चुगने लगे। बूढ़ा प्रसन्नचित्त होकर कबूतरों को और सोलह-सत्रह बरस का यह किशोर बूढ़े को देखने लगे।

''ये देख, देखा तूने? खा रहे हैं।''

''हाँ काका!''

''लेकिन, तूने देखा, सब नहीं खा रहे हैं।''

''हाँ, जिन्हें भूख है, वो खा रहे हैं। जिन्हें भूख नहीं हैं, वो नहीं खा रहे।'' बूढ़े ने जोर देकर पुखराज की बात को दोहराया, ''देखा न बेटा, जिन्हें भूख है, वही खा रहे हैं।''

''अच्छा चल, अब तू इधर आ। इनमें से दो को पकड़ ले।''

पुखराज को बड़ा आनन्द आया। बाबा कितना अच्छा था ये, कबूतरों को हाथ में उठाने को कह रहा था, जबकि अभी दो बरस पहले तक अपने बचपन से ही इन कबूतरों को हाथ लगाने के लिए माँ उसे डाँटती थी। उसने झटपट सीढ़ी से उतरकर फड़फड़ाते हुए दो कबूतर अपने हाथ में पकड़ लिए। उसे बड़ा रोमांच हो आया। बूढ़े ने भी झुककर दो कबूतर उठाये और अपने हाथों में लिए-लिए सीढ़ी चढ़कर तहखाना पार करके अँधेरे वाली दीवार के करीब आ गया। पुखराज भी बूढ़े के पीछे-पीछे आ गया।

''अब मैं जोर से बोलूँगा जय श्रीराम, और तू मेरी बात खत्म होते ही इन्हें छोड़ना। समझा।''

''समझा काका!'' पुखराज किसी खिलाड़ी की भाँति मुस्तैदी से तैयार हो गया।

''जय श्रीराम..'' जोर से चिल्लाया बूढ़ा और इस आवाज के साथ दोनों ने अपने-अपने हाथों से कबूतर छोड़ दिये। कबूतर छोड़ते ही तेजी से उड़कर अपने साथियों में जा मिले। एक कबूतर फड़फड़ाता हुआ तहखाने में ही चक्कर काटता रहा। और फिर एक छोटे रोशनदान में जा बैठा। जो तीनों कबूतर जाली वाले गोल कमरे में गये, उनमें से एक ऊपर छत की ओर दीवार के एक सुराख में जा बैठा। उड़ते-उड़ते फड़फड़ाते दो कबूतर पतली-सी जगह से निकलने के चक्कर में एक-दूसरे से टकराये और फिर पहले एक कबूतर भीतर चला गया। दूसरा एक-दो सेकण्ड वहीं फड़फड़ा कर उसके पीछे-पीछे चला गया।

बूढ़े ने दोनों हाथ इस तरह झाड़े, मानो मिट्टी झाड़ रहा हो। पुखराज उसकी ओर आश्चर्य से देखता रहा।

''आओ, चलो ऊपर। खेल खत्म!''

बूढ़ा वापस सीढ़ियाँ चढ़कर बाहर कमरे में आ गया। उसके बैठते ही पुखराज ने लोटे से थोड़ा पानी डालकर उसके हाथ धुलाये और थाली उठा कर उसके सामने रख दी।

बूढ़ा खाना खाने लगा। पुखराज कमरे से बाहर निकलने लगा। दरवाजे के पास पहुँचते ही वह वापस पलटा और बोला, ''अरे, मैं तो भूल ही गया काका! भाईसाहब ने कहा है, आपसे कोई मिलने आये हैं, वो अभी थोड़ी देर में उन्हें आपके पास लेकर आयेंगे। आप खाना खालो।''

कह कर लड़का बाहर निकल गया।

बूढ़ा कुछ सोचता हुआ-सा खाना खाने लगा।

खाना खाकर बूढ़े ने लोटे के पानी से कुल्ला किया ही था कि खण्डहर के बीच के पतले से रास्ते से तीन आदमी आते हुए दिखायी दिये। आगे-आगे इसी मन्दिर का पुजारी था, जिसका लड़का बूढ़े को अभी-अभी खाना देकर गया था। उसके पीछे-पीछे शंभूसिंह और उनके साथ में गौरांबर था।

दोनों आगन्तुकों ने बूढ़े को हाथ जोड़कर प्रणाम किया। चारों जमीन पर एक कोने में बिछी दरी पर बैठ गये। पुजारी ने ही बात शुरू की-

''ये वही लड़का है भाईसाहब, जिसके लिए इन्होंने पत्र में आपको लिखा था।''

''अच्छा.. अच्छा..'' कहते हुए बूढ़े ने गौरांबर की ओर देखा। उसने भी आश्चर्य से उनकी ओर देखते हुए उन्हें दोबारा प्रणाम की मुद्रा में हाथ जोड़ दिये।

''खुश रहो बेटा!'' बूढ़े ने कहा।

तीनों के बीच काफी देर तक बातें होती रहीं। गौरांबर मूक दर्शक की भाँति तीनों के बीच बैठा रहा। उन लोगों की बातचीत से उसे केवल इतना समझ में आ रहा था कि वे तीनों किसी काम की योजना बना रहे हैं। पर यह काम क्या है, और गौरांबर की अपनी भूमिका इसमें क्या है, इस बात से वह पूर्णत: अनभिज्ञ था। थोड़ी ही देर बाद पुखराज जब बर्तन उठाने वापस कमरे में आया तो बूढ़े को जैसे कुछ याद आया। एकदम से बोला—

''इन लोगों ने भोजन कर लिया कि नहीं?''

''हाँ-हाँ, हम तो बहुत देर पहले ही आ गये थे। भोजन भी हो गया। दर्शन भी हो गये। हमने सोचा, आपसे तो शाम को भी बातें हो जायेंगी। इसलिये पहले इनसे बातें करने बैठ गये। ये शाम को मन्दिर में व्यस्त हो जायेंगे।'' शंभूसिंह ने कहा।

पुजारी जी मुस्कुरा दिये।

करीब आधे घण्टे बाद पुजारी जी उठे और शंभूसिंह से मुखातिब होकर बोले, ''तो ठीक है साहब, आप लोग आराम करो। लेट लो यहीं थोड़ी देर। मैं अभी शरबत भिजवाता हूँ।'' कहकर उन्होंने हाथ जोड़ लिए।

पुजारी के जाते ही शंभूसिंह और बूढ़ा दीवार की टेक लगाकर दरी पर अधलेटे-से हो गये। गौरांबर ने भी दीवार के नजदीक सरक कर दीवार का सहारा लिया और पैर फैला लिए। वह ध्यान से दोनों बुजुर्गों की बातें सुनने लगा। बीच-बीच में उसका ध्यान कमरे की बनावट पर जाता और वह इधर-उधर देखने लगता। बाहर से देखने से जो बिलकुल खण्डहर-सा दिखायी देता था, उसी में पिछवाड़े की ओर जरा भीतर को चलकर यह कमरा बना था। यह कमरा मन्दिर के पिछवाड़े की ओर था। मन्दिर के सामने पुजारी का मकान था। पुरानी शैली में बना हुआ। घुमावदार सीढ़ियों से होकर ऊपर के गलियारे में रास्ता जाता था। दोनों बातों में खो गये..

''हजारों साल का इतिहास पढ़ लो, ये देश कभी भी दस-बीस-पचास साल से ज्यादा आजाद रहा ही नहीं। जरा-जरा से देश हैं, देखो साले, अपने एक छोटे राज्य के बराबर। और हमारे एक-एक बड़े शहर के बराबर उनकी जनसंख्या है, फिर भी साले हुकूमत चलाते हैं हमारे पर।'' शंभूसिंह बूढ़े से कह रहे थे और गौरांबर को बातचीत के विषय और शैली पर अचम्भा हो रहा था।

''भाई, इतिहास रटने की जरूरत क्या है। इतिहास तो यहाँ बार-बार अपने को दोहराता है, फिर देख लेना, पाँच-सात साल ठहर जाओ, फिर किसी देश की गुलामी करना पक्का है। बिलकुल वही तैयारी है, जैसी ईस्ट इण्डिया कम्पनी के जमाने में थी। बार-बार जनता को मूर्ख बनाते हैं। जो आजादी के लिए लड़ रहे थे वो आज भी रोटी के लिए लड़ रहे हैं और जो तब फिरंगियों की गुलामी कर रहे थे वो आज देश पर राज कर रहे हैं। आजादी की हाँक गाँधी ने लगायी, और आजादी लपक ली नेहरू ने। देश के हजारों-लाखों लोगों को चूतिया बना रहे हैं साले!'' गद्दी के लिए अपनी औलादों को विदेशों में पढ़ा-पढ़ाकर तैयार कर रहे हैं और यहाँ करोड़ों बच्चे देसी स्कूलों में पढ़-पढ़कर मूर्ख बन रहे हैं।

''अजी, अब विदेशों में भेजने की क्या जरूरत है। अब तो यहीं विदेशी स्कूल, विदेशी माल, विदेशी पैसा, विदेशी तकनीक आ रही है। अंग्रेजों ने सत्ता सौंपी उन रायबहादुरों और रायसाहबों को, जो कि उस समय उनके सामने झोली फैलाये खड़े थे। और उन्हीं की औलादें, उन्हीं के पिल्ले आज कुर्सियों पर हैं। पन्द्रह अगस्त और छब्बीस जनवरी को कचरे के ढेर से ढूँढ़-ढूँढ़ कर शहीदों की तख्तियाँ निकलवाते हैं, उसके बाद फिर जहाँ-के-तहाँ।''

''लोगों का करोड़ों रुपया कोई एक आदमी निगल ले और रोज उसका नाम और फोटो अखबारों में पढ़-पढ़कर चाटते रहो, न पैसा मिले और न दलाल। ये व्यवस्था है साहब, इनकी। हरामी के पिल्ले कहते हैं, खुली, विदेशी अर्थनीति अपना रहे हैं। खुली विदेशी नीति यही तो है, हराम का पैसा खा लो और विदेश में उड़ जाओ।''

''तभी तो ये दिन देखने पड़ रहे हैं कि एक पूरा-का-पूरा शहर बमों से उड़ाकर एक आदमी परदेस में जा बैठता है और यहाँ से साले हाथ मलते रह जाते हैं। अभी तो देखते जाओ, विदेशी पैसा यहाँ आने दो। यहीं के लोगों की खाल की जूतियाँ बनेंगी और विदेशियों के लिए निर्यात होंगी।''

गौरांबर ध्यान से बैठा बातें सुन रहा था, मगर उसे इनमें से आधी बातें समझ में नहीं आ रही थीं। थोड़ी देर बाद एक तश्तरी में शरबत के तीन गिलास रखकर पुखराज फिर कमरे में आया। तीनों को गिलास दिये उसने।

''अब ये नया चक्कर चलाया है। जब-जब इन पर मुसीबत आती है, अपने कर्मों को तो देखते नहीं, नया शिगू$फा छोड़ देते हैं। साले कहते हैं, धर्म को राजनीति से अलग करेंगे। संसद में विधेयक लायेंगे। आज देश की दुर्दशा यहाँ तक पहुँच गयी कि बेवकूफों की राजनीति धर्म को दूर रखने का विधेयक ला रही है। अरे, होना तो यह चाहिये था कि राजनीति को सबसे दूर रखने का विधेयक आता। राजनीति शिक्षा से दूर रहती। राजनीति प्रशासन से दूर रहती। पर ये गुण्डे राजनीति से धरम-करम को दूर रखेंगे। क्या होगा इससे पता है..?''

''होगा क्या, हिटलरों के साथ-साथ बाबरों, नादिरशाहों का राज खुले खजाने चलने लगेगा। इन्हें बाहर से अनाप-शनाप पैसा मिल ही इसलिए रहा है। अरब देशों का माल यहाँ इन्हीं कामों में तो लग रहा है।'' शंभूसिंह ने उत्तेजना में कहा।

''बिलकुल! ये कानून ठीक वैसा है कि रावणों की लंका बनकर चारों तरफ खड़ी होती रहे, राम पर तीर चलाने की पाबन्दी का विधेयक ले आओ। साले, किसी भी शहर की किसी भी बस्ती को देखो, राक्षस कैसे फलफूल रहे हैं। छ: छ: गाड़ियाँ उनके दरवाजे पर खड़ी मिलेंगी, हजारों-लाखों की जमीनें, फार्म हाउस फैले-बिखरे पड़े हैं। टैक्स वाले दुम हिलायें और पाबन्दी लगाने की सूझी है धर्म पर, ईश्वर के नाम पर, संन्यासी, वैरागियों पर। अधर्म पर नहीं, धर्म पर पाबन्दी लगाने की सूझी है।''

''ये जो घर-घर अफीम के पेड़ लगा दिये हैं न, रंगीन टेलीविजन, फ्रिज, वी.सी.आर. और नीली-पीली फिल्में, इनसे आम आदमी के दिमाग तो सुला दिये हैं सालों ने। बोले कौन? अपनी बात तोड़-मरोड़कर चाहे जैसे टी.वी. पर, रेडियो पर सुनाते रहते हैं। लोग कूल्हे मटकाऊ नाचों में और गला फाड़ गानों में मगन हैं।''

बूढ़े की वेशभूषा से गौरांबर ने कतई ये अन्दाज नहीं लगाया था कि उसका आधुनिकता का बोध इस खण्डहर में रहकर भी इतना जबरदस्त होगा। उसके बात करने के ढंग से भयंकर कुण्ठा और बागीपन की झलक मिलती थी। पर पिछले दिनों तरह-तरह के अनुभव झेल चुका गौरांबर जानता था कि उसकी सारी बातें अक्षरश: सही हैं। जितनी उसकी समझ थी, उसे देखते हुए आज के माहौल पर उसकी टिप्पणी से गौरांबर का पूरा इत्तफाक था।

शंभूसिंह की भी एक-एक बात गौरांबर को सही प्रतीत होती थी। उनकी बातों में उसकी आवाज को भी स्वर मिल रहा था।

सुबह बहुत ही जल्दी उठ कर बस से निकलने के कारण गौरांबर की आँखों में नींद भरी थी और इन बातों के बीच कब उसकी आँख लग गयी, उसे पता ही न चला! शंभूसिंह और उस बूढ़े के बीच काफी देर तक बातें होती रहीं।

शाम का खाना उन सभी ने उस कमरे में साथ-साथ खाया। पुजारी जी रात को उन्हें दर्शन के लिए मन्दिर भी ले गये। बूढ़ा भी साथ गया।

खाना खाने के बाद रात को शंभूसिंह को किसी काम से पुजारी जी के साथ किसी से मिलने जाना था। वे लोग निकल गये थे। गौरांबर और बूढ़ा कमरे में रह गये।

कमरे में रात का वातावरण बड़ा बोझिल और उबाऊ-सा लग रहा था, क्योंकि कमरे में जो बल्ब था वह बहुत ही पुराना और मद्धिम था। लालटेन की सी रोशनी थी उसकी। चारों ओर के माहौल में भी नीरवता व्याप्त थी, क्योंकि मन्दिर बन्द हो जाने के बाद इलाका काफी निर्जन हो गया था।

गौरांबर बूढ़े के सामने बैठा था। दिन भर उन लोगों के बीच गुजार देने के बाद अपरिचय या संकोच जैसा कुछ नहीं रहा था। बूढ़े ने गौरांबर से काफी बातें कीं। उसे बहुत कुछ बताया। उस जगह के बारे में जानकारी दी।  

''तो तुझे भी खत्म कर दिया क्या उन्होंने?'' बूढ़े ने गौरांबर से सीधे पूछा।

''क्या!'' गौरांबर को ये सवाल बड़ा अटपटा-सा लगा। वह इसका आशय ही नहीं समझा। उसने जोर डालते हुए फिर पूछा, ''क्या..?''

''मैं पूछ रहा था कि क्या तुझे भी अभिमन्यु की तरह नामर्द बना दिया उन लोगों ने?''

गौरांबर बुरी तरह चौंका। यह उसके लिए सर्वथा नयी और रहस्यमयी बात थी, जिसकी ओर तरह-तरह से इशारा तो शंभूसिंह और रेशम देवी ने किया था किन्तु वे गौरांबर को स्पष्टत: कुछ समझा न सके थे। बिजली चमकने की-सी गति से गौरांबर को सारी बात का रहस्य-सूत्र पकड़ में आने लगा। रेशम देवी के उस दिन के बरताव का आशय भी उसके आगे अब उजागर हुआ। उसने आश्चर्य और उत्सुकता दर्शा कर बूढ़े को यह पता नहीं लगने दिया कि इस बारे में उसे मालूम नहीं है। बूढ़ा यही समझ रहा था कि शंभूसिंह गौरांबर को अभिमन्यु के विषय में सब-कुछ बता चुका होगा।

''देख, कैसा निपूता बना दिया बेशर्मों ने। बेचारे शंभूसिंह का तो वंश ही खत्म होने पर आ गया।'' बूढ़े ने कहा।

''नहीं, मेरे साथ उतना कुछ नहीं हो पाया, पर कोशिश की थी हरामियों ने। जान से मार डालने पर उतारू थे।''

''अभिमन्यु के साथ तो बहुत ही बुरा किया। तेल छिड़क कर आग लगा दी।'' दोनों जाँघों के बीच पेट तक दो बालिश्त का हिस्सा बिलकुल जलाकर खत्म कर दिया कम्बख्तों ने। नरेशभान की ही करतूत थी सब। अभिमन्यु को अपनी सहायता के लिए ठेकेदारी में रख लिया था उसने। लड़का नया-नया कॉलेज से निकल कर आया था। जोश था, संजीदगी थी। और सबसे बड़ी बात खानदानी था। उसने मनमानी और रण्डीबाजी नहीं करने दी। उसी में रंजिश पाल बैठा। उसे ये बात अखर गयी कि सहायता करने को अपने नीचे रखा लड़का उसे कुकर्म न करने दे। ये कैसे हो सकता है! बस, इसी में सब कुछ समाप्त हो गया। रावसाहब का हाथ नरेशभान के सिर पर था। खुद रावसाहब का हरामीपना कौन-सा कम रहा। सगे भतीजे को नहीं बख्शा। अभिमन्यु का मन तो पहली ही यहाँ से उचाट हो गया था। बाद में फौज में भर्ती में आ गया। पर इसी वजह से मेडिकल में निकाल दिया उसे। लिया नहीं। लड़के ने पलटकर गाँव का रुख नहीं किया, देश छोड़कर चला गया। क्या करता, मरे फौज वालों ने भी तो उसे अपाहिज बता दिया। और जिसने ये सब हाल किया, उसे किसी ने कुछ नहीं बताया। जो असली अपाहिज था, हरामी, आज भी ढीली लँगोटी लेकर वहीं महलों में पल रहा है। रावसाहब का दाहिना हाथ बना हुआ है।

अभिमन्यु के बारे में यह सब जानकर गौरांबर को एक अजीब-सी हैरत हुई। उसे लगा, उसका इतिहास इसी बस्ती में ज्यों-का-त्यों पहले भी दोहराया जा चुका है। अब उसे सारी बात का मर्म समझ में आ गया था कि क्यों शंभूसिंह ने उसके साथ में सहानुभूति और ऐसा सुलूक दर्शाया। उसे शंभूसिंह में आस्था हो आयी। उनके लिए दर्द और बढ़ गया और वह मन-ही-मन ये ठान बैठा कि अब शंभूसिंह ने यदि किसी मन्दिर में उसकी नरबलि भी माँगी, तो वह इनकार नहीं कर सकेगा। वह रेशम देवी के बारे में सोचता रहा, जिन्होंने उस दिन अपनी बातचीत में कुछ इस तरह का संकेत दिया था।

रात को शंभूसिंह काफी देर से लौटे। कपड़े उतारकर सोने के लिए लेटे तो गौरांबर और बूढ़ा उसी तरह बातें करते-करते उनके पास खिसक आये। वह बूढ़े को धीमी आवाज में कुछ बताते रहे। उन दोनों के बीच होती बातचीत कभी-कभी इतनी धीमी हो जाती थी कि गौरांबर सुन भी नहीं पाता था। इसी बात का फायदा उठाकर गौरांबर आहिस्ता से उठकर कमरे से बाहर चला आया और खण्डहर की एक टूटी-सी दीवार पर बैठ गया। बाहर, भीतर की अपेक्षा थोड़ी ठण्डक भी थी। गौरांबर को बीड़ी की तलब लगी। वह वापस कमरे में आया और दीवार पर एक कील में टँगी अपनी पैंट की जेब से बीड़ी का बण्डल और माचिस निकाल कर फिर बाहर जा बैठा। बाहर की हवा उसे बहुत अच्छी लग रही थी।  

यह किसी पहाड़ की पथरीली-सी तलहटी में बसा अपेक्षाकृत निर्जन इलाका था। चारों ओर इक्का-दुक्का मकान छितराये हुए दिख रहे थे। थोड़ी दूर तक सन्नाटा था, फिर आगे शहर बनने की प्रक्रिया में बढ़ते कस्बे की जगमगाती बत्तियाँ दिखायी दे रही थीं। मन्दिर खामोशी से खड़ा था। लोग-बाग अपने-अपने घरों में जा चुके थे। काफी देर तक बाहर बैठे-बैठे गौरांबर अपने बारे में, आने वाले दिनों के बारे में, सोचता रहा। थोड़ी देर बाद जब उसे भीतर से आने वाली आवाजों का सुर जरा ऊँचा-सा प्रतीत हुआ तो वह दीवार से उठकर वापस कमरे के भीतर आ गया और दरी पर अपने लिए एक ओर छोड़ी जगह पर लेट गया।

शंभूसिंह और बूढ़े में दिन की भाँति जोश-खरोश से बातें चल रही थीं। दोनों ही कभी-कभी बातों में ऐसे खो जाते थे कि सामने वाले को बिलकुल ही नासमझ समझकर किसी प्रवचनकर्ता की भाँति अपनी बात समझाने की मुद्रा में आ जाते थे। शंभूसिंह की आँखों में दूर-दूर तक नींद नहीं थी।

''क्या जरूरत है इन प्रोजेक्टों की! कहते हैं, इनसे लाखों लोगों को काम मिलता है। अरे, ये क्या कोई रोजगार है। पेट में दो मुट्ठी दाना डालने के लिए हजारों आदमी-औरतें घर-बार और ठहरी जिन्दगी छोड़कर इन बस्तियों के किनारे जलालत और गजालत की जिन्दगी बितायें। जानवरों की तरह टाट और कपड़े के तम्बूओं में बच्चे पैदा कर-करके छोड़ते जायें। ऐसे बच्चे, जिनके न कोई संस्कार हों, न जिनका बचपन हो, और न जीवन हो। और इस सबसे जो हासिल हो वो दो-चार आदमियों की अय्याशी के लिए जाया हो। भला इसे विकास कहते हैं।''

''विकास की इसी बदनामी की आड़ में शहर-शहर गुण्डे पनप गये हैं। दलाल पनप गये हैं। जो किसान साल भर तक हड्डी गला के एक रुपये की रोटी खेत में उगाता है, उसे आम आदमी के पेट तक पहुँचाते-पहुँचाते पाँच रुपये की बना देते हैं दलाल। किसान वहीं-का-वहीं रहता है और ये अँगूठा छाप दलाल अपने बच्चों को अंग्रेजी स्कूलों में और औरतों को ब्यूटी पार्लरों में भेजने लग जाते हैं। लाखों मजदूर रहने, सिर छिपाने का ठिकाना नहीं पाते और इनके फार्म हाउस बनते चले जाते हैं। विश्वास नहीं होता कि प्रताप, लक्ष्मी और पृथ्वीराज इसी देश में पैदा हुए थे कभी।''

बातें न जाने कब तक चलती रहीं। गौरांबर को यह भी पता न चला कि कब उसे गहरी नींद आ गयी। अब उसकी आँख खुली तो सवेरे के छ: बजे थे। उठते ही उसने देखा, बूढ़ा और शंभूसिंह वहाँ नहीं थे। वह अनमना-सा उठ बैठा और इधर-उधर देखने लगा। वह अभी बीड़ी सुलगाकर माचिस की तीली दरवाजे पर फेंकने ही जा रहा था कि दरवाजे से पुखराज आ गया। आकर बोला—

''काका और शंभूसिंह जी मन्दिर में चले गये हैं।'' लड़का शंभूसिंह को भी काका ही कहता था, मगर गौरांबर को बताने के लिए शंभूसिंह का नाम लिया। पुखराज के हाथ में लोहे के डिब्बे में पानी भरा देखकर गौरांबर भी उठ गया और दोनों साथ-साथ खण्डहर के पिछवाड़े से जाने वाली पतली-सी पथरीली पगडंडी पर चल पड़े। पुखराज आगे-आगे चल रहा था। सुबह का समय था, पर पहाड़ की तलहटी होने के कारण धूप अब तक न आयी थी। शायद सामने वाले पहाड़ की पीठ पर सेंक कर रहा था सूरज। पथरीले से उस मैदान में दूसरी दिशाओं से भी दो-चार लोग निवृत्त होने के लिए आ रहे थे।

थोड़ा आगे चलकर पुखराज ने एक बड़े-से पत्थर के पास पानी का डिब्बा टिकाया और बैठ गया। गौरांबर ने भी जलती हुई बीड़ी फेंक दी और पत्थर के दूसरी ओर घूमकर झुक गया।

पत्थर काफी बड़ा और चपटा-सा था, जिसके आर-पार से दोनों को एक-दूसरे का मुँह दिखाई दे रहा था। गौरांबर अब तक पुखराज से कुछ बोला नहीं था। पुखराज ने ही उससे पूछा-

''तुम शंभूसिंह काका के घर में ही रहते हो क्या?''

''हाँ, अभी थोड़े दिन से वहाँ रह रहा हूँ।''

''वैसे तुम्हारा घर कहाँ है?''

गौरांबर उस लड़के से उम्र में बड़ा था, परन्तु शायद उस लड़के पर कॉलेज में पढ़ने के कारण एक आत्मविश्वास-सा था। दूसरे उसका गाँव होने के कारण भी वह गौरांबर जैसे संकोच में नहीं था। इसी से वह गौरांबर को न केवल तुम कह कर सम्बोधित कर रहा था, बल्कि उससे सवाल पूछ रहा था। परन्तु गौरांबर को भी कल से अपना मौन खल रहा था। उसे अच्छा लगा लड़के का ये सब पूछना।     

गौरांबर ने अपने गाँव का नाम बता डाला और संक्षेप में यह भी बता डाला कि वह किस मकसद से अपना गाँव छोड़कर शहर में चला आया था।

जैसे-जैसे दिन चढ़ रहा था, वहाँ लोगों की आवाजाही बढ़ती जा रही थी। वहाँ से निबट कर पुखराज गौरांबर को पास ही एक बावड़ी में ले गया। वहाँ दोनों ने स्नान किया। बावड़ी में और भी कई लोग नहा रहे थे। कुछ बच्चे तैर रहे थे। एक बड़ी-सी दीवार के पीछे बावड़ी का दूसरा हिस्सा था, जहाँ से औरतों और लड़कियों के नहाने, कपड़े धोने और बातें करने की मिली-जुली आवाजें आ रही थीं।

ताजादम होकर दोनों वापस कमरे में आये। गौरांबर ने यहाँ आकर कपड़े पहने और दोनों मन्दिर की ओर चल पड़े। पुखराज ने कमरे का दरवाजा भेड़ कर बन्द कर दिया और रास्ता बताने की मुद्रा में गौरांबर को साथ लेकर आगे-आगे चल पड़ा।

मन्दिर में इस समय काफी भीड़भाड़ थी। बूढ़ा, पुजारी जी के पास ही बैठा था। शंभूसिंह भी वहीं थे। कुछ देर बाद उन सभी ने पुजारी जी के घर में जाकर नाश्ता किया।

नाश्ते के बाद थोड़ी देर पतली गली के आगे वाले बाजार में टहल कर शंभूसिंह ने एक-दो दुकानें देखीं। बूढ़ा, पुजारी जी के घर से निकल कर वापस खण्डहर की तरफ से अपने कमरे की ओर चला गया।

उस इलाके में बड़ी चहल-पहल थी। दुकानों की साज-सज्जा और लोगों के उत्साह से इधर-उधर आने-जाने से लग रहा था कि जैसे मन्दिर में कई उत्सव होने वाला हो, जिसकी तैयारियाँ चल रही हों। शंभूसिंह से पूछने पर गौरांबर को पता चला कि मन्दिर में सात दिन तक लगातार कोई बड़ा अनुष्ठान अगले सप्ताह से शुरू होने वाला है। इसमें देश के कई हिस्सों से कई साधु-सन्तों के आने की सम्भावना थी। शंभूसिंह ने बताया कि वह बूढ़ा, जिसके साथ कमरे में वे लोग ठहरे हुए थे, बहुत नामी आदमी है और उससे मिलने के लिए दूर-दूर से कई लोग आते हैं। वह मन्दिर में होने वाले समारोह के लिए पुजारी जी को बहुत-सी बातों का निर्देश समय-समय पर दे रहा था। यह खुद गौरांबर ने भी देखा था। पुखराज ने उसे बताया था कि यह समारोह नौ वर्षों में एक बार हो रहा था। जब ये समारोह होता था तो मन्दिर के आस-पास का दो किलोमीटर तक का इलाका कारों, बसों और ताँगों आदि से भर जाता था। मन्दिर के सामने के कई दुकानदार अपने घरों के कमरे धर्मशालाओं के रूप में बदल देते थे। आने वाले लोगों के खाने-पीने की व्यवस्था कई लोग स्वेच्छा से अपने स्रोतों से करते थे। मन्दिर का अपना भी बड़ा ट्रस्ट था। दायीं ओर के बड़े से मैदान में शामियाने और टैंट लगाकर लोगों के ठहरने की व्यवस्था की जाती थी। लोगों में इतना जोश और आस्था दिखायी देती थी कि किसी मेले का-सा दृश्य उपस्थित हो जाता था।

शंभूसिंह उस आयोजन के बाबत बात करते हुए उत्तेजित हो जाते थे। कहते थे, ''देखो, लोग बिना किसी के बताये, बिना किसी से पूछे अपने आप सब कर रहे हैं। अपने पास से अपनी-अपनी शक्ति भर पैसा बिना माँगे दे रहे हैं। यहाँ जबरदस्ती गुण्डागर्दी से वसूल कर लाया गया चन्दा नहीं आता। यहाँ सरकारी दफ्तरों और स्कूलों में छुट्टी करवाकर भीड़ नहीं जुटायी जाती। यहाँ पर सरकारी पेट्रोल फूँक-फूँककर ट्रकों और बसों से, लोगों को जबरदस्ती नहीं लाया जाता। टैंटों में छिप-छिपाकर दारू की बोतलें सप्लाई नहीं की जातीं। खादी के कपड़े लपेट-लपेट कर रखैलें नहीं आतीं। और हरामी के पिल्ले कहते हैं, राजनीति से धर्म को अलग करेंगे। अरे कम्बख्तो, तुम्हें अधर्म खत्म करने के लिए वोट देती है जनता, धर्म खत्म करने के लिए नहीं..

सत्रह बार पृथ्वीराज चौहान ने गौरी को हराया और हर बार इंसानियत के नाते क्षमा करके छोड़ा। और जब अठारहवीं बार नसीब से मोहम्मद गौरी जीता, तो दरिंदे ने उसके प्राण लेने की ठान ली। गुण्डों और रण्डीबाजों को तो अपने बाहुबल पर भी भरोसा नहीं रह जाता, कमीनों को विधेयकों का सहारा लेना पड़ता है। देश को खोखला कर दो। अपने लोगों के दिमागों को खोखला कर दो। तब शाबासी देकर विदेशी पीठ ठोकेंगे ही। आयेगा विदेशी पैसा देश में। खूब आयेगा। क्यों नहीं आयेगा, जब यहाँ आकर ही वह दुगना-चौगुना होता है। दो मुट्ठी गेहूँ और बीड़ी के बण्डल में सारा दिन पत्थर खोदने वाले सुदामा और कहाँ मिलेंगे? दारू की बोतलों में फर्जी डिग्रियाँ और लाइसेंस कहाँ बनेंगे? बहन-बेटी की अँगुली पकड़ा कर ठेके कहाँ मिलेंगे? अपनी गायों को अकाल से मरने दो, कटने दो। उनके दूध, मट्ठे के लिए यहाँ बाजार नहीं है। विदेशी नशीले शरबतों के लिए बाजार ही बाजार है। आयुर्वेद ने सैकड़ों, एक से एक नायाब शरबत दिये हैं, जिनके नाम दो-चार वैद्य-हकीमों को ही याद हैं, उनके लिए बाजार की जरूरत नहीं है, प्रोत्साहन की जरूरत नहीं है। कोकाकोला और शराबें चाहिये, क्योंकि उन्हें बनाने वाले अस्सी करोड़ लोगों का खून चूसकर अस्सी तिजोरियों में खजाना भेजेंगे।

शंभूसिंह जब बोलते थे तो बोलते चले जाते थे। और गौरांबर शब्दों को न समझे, सुर के उतार-चढ़ाव को न समझे, बात का आशय जरूर समझ जाता था।

दोपहर को शंभूसिंह बूढ़े संन्यासी के साथ फिर कहीं बाहर चले गये और खाना खाकर गौरांबर गहरी नींद सो गया। इतनी गहरी नींद कि एक बार पुखराज देखने आया तो दो-चार आवाजें देकर वापस चला गया।

आज सोते समय न जाने क्यों गौरांबर को अपने गाँव की याद बेतहाशा आ रही थी। उसे उस लड़की का चेहरा भी बार-बार याद आ रहा था, जिसे बीमार बूढ़े बाप के साथ, उसकी रोजी-रोटी को भी मुसीबत में डालकर गौरांबर गाँव में ही छोड़ आया था। लड़की का चेहरा बार-बार उसकी नजरों के सामने आता था। गौरांबर ने गाँव में रहते समय कभी उस लड़की को प्यार नहीं किया था। कमरे में उसके बाप के न रहने पर एकाध बार हाथ-वात पकड़ लेना प्यार नहीं होता। फिर प्यार क्या होता है? क्या प्यार वो होता है जो नरेशभान सरस्वती को कोठी में लाकर उसके साथ करना चाहता था। नहीं, प्यार वह होता है जो गाँव छोड़ने के बाद गौरांबर को गाँव की याद दिलाता रहा। प्यार वो होता है जो सारा दिन गौरांबर से एक अपरिचित बूढ़े का रिक्शा चलवाता रहा। सचमुच उसे उस लड़की से प्यार था। यदि वह लड़की खुद एक बार भी उससे कह देती कि वह गौरांबर को प्यार करती है तो शायद गौरांबर ने भी उस नजर से उसे देखा होता। सरस्वती की भाँति किसी मजबूरी में नहीं, बल्कि अपने दिल से वह लड़की कहती है कि वह गौरांबर को चाहती है, तो वह शायद जान जाता कि प्रेम किसे कहते हैं। और देर रात को सपने के किसी अंश में शायद लड़की ने सोते हुए गौरांबर को यह कह दिया कि वास्तव में वह उससे प्रेम करती है और तब गौरांबर के मन में कोई दुविधा न रही। उसने हरियाले बगीचे में खड़े होकर फूलों की एक डाली पकड़ ली। और फूल झरा-झरा कर उस पर बैठी तितली को उड़ाने लगा। बड़ी ढीठ तितली थी। उसने भी गौरांबर को खूब छकाया। खूब सताया। किसी फूल के पराग कणों से जैसे चिपकी बैठी रही।

और तभी, जब पुखराज शरबत का गिलास लेकर आया, तो आश्चर्य से गौरांबर को देखता रहा। दो-एक आवाज के बाद गौरांबर उठ तो गया, पर उठते ही अपनी हालत पर खुद उसे भी झेंप हुई। उसने पहले खड़े होकर पुखराज की ओर पीठ किये-किये खिड़की के पास आकर अंगड़ाई-सी ली, तब जाकर लिया शरबत का गिलास। और पुखराज के जाने के बाद दरी पर वापस बैठकर गौरांबर शरबत पीने लगा।

अगली सुबह शंभूसिंह और गौरांबर को वापस अपने गाँव लौटना था। शाम को गौरांबर अकेला ही कस्बे के बाजार की ओर घूमने के इरादे से निकल गया।

रात का खाना खाने के लिए जब पुजारी का लड़का मेहमानों को बुलाने आया, तो गौरांबर तब तक वापस नहीं लौटा था। शंभूसिंह और बूढ़ा आदमी बैठे हुए बातें कर रहे थे। पुखराज को उन्होंने वापस भेज दिया और वे दोनों गौरांबर की प्रतीक्षा करने लगे।

देखते-देखते रात के ग्यारह बज गये। लेकिन गौरांबर अब तक वापस नहीं आया था। अब शंभूसिंह को चिन्ता होने लगी। क्या हुआ, कहाँ चला गया लड़का। कुछ कहकर भी नहीं गया। बूढ़ा चुप होकर बैठ गया। पर शंभूसिंह की चिन्ता समय के साथ-साथ बढ़ती ही जा रही थी। पुखराज दो बार खाने के लिए कहने आ चुका था। शंभूसिंह ने पुखराज से भी पूछा-

''तुमसे कुछ कहा था क्या उसने? कहाँ चला गया। यहाँ तो कोई उसका जानने वाला भी नहीं था।''

बूढ़े ने अपना मौन तोड़ा। भारी-सी आवाज में बोला, ''पुलिस से भागा हुआ लड़का था, कहीं निकल तो नहीं गया।''

''नहीं-नहीं, ये कैसे हो सकता है!''

''हो क्यों नहीं सकता! पुलिस उसे ढूँढ़ रही होगी, ये तो वो जानता ही है।''

''पर वह भागा हुआ नहीं है। मैंने भगाया है उसे, मैंने। वह मुझे बताये बिना, मुझे छोड़कर नहीं जा सकता।'' शंभूसिंह उत्तेजित होकर कह रहे थे। उनके मुँह से ऐसी बात सुनकर पुखराज की आँखें डर से फैल गयीं। उसको इन लोगों की इस सच्चाई का पता न था। उसे इस बात का जरा भी आभास न था कि जिन लोगों को पिता का मेहमान समझ कर वह दो दिन से आवभगत कर रहा है, वे इस तरह पुलिस और अपराध से जुड़े हुए लोग हैं। वह वहाँ जरा देर भी नहीं ठहरा। वह घर लौट गया और वहाँ भी भयवश उसने किसी से कुछ नहीं कहा। उसे यह जानने की जिज्ञासा थी कि उसके पिता उन लोगों का राज जानते हैं अथवा नहीं।

उसने जाकर पिता को सिर्फ इतना बताया कि वह लड़का अभी तक लौट कर नहीं आया है, इसलिए काका खाना खाने नहीं आ रहे हैं। यह सुनकर पुजारी जी भी चिन्तित हो गये और झटपट जूते पहनकर खण्डहर की ओर चल दिये। चलते-चलते उन्होंने पुखराज को भी साथ आने के लिए आवाज दी। पुखराज कमरे में जाकर पायजामा उतार, खूँटी पर टाँग चुका था। पिता की बात सुनकर बेमन से उसी तरह चप्पल पहनकर उनके पीछे दौड़ गया।  

तीनों लोग किसी मंत्रणा में व्यस्त थे। पुखराज ने देखा कि उसके पिता भी उन लोगों की सच्चाई से परिचित थे, क्योंकि उनकी उपस्थिति में भी उसी तरह की बातें हो रही थीं। उसका भय जरा कम हुआ और वह खिड़की में पैर लटका कर बैठा उनकी बातें सुनने लगा।

''क्यों रे, कुछ बोल-बता के गया है क्या छोकरा? यहाँ कहाँ जा सकता है।'' बूढ़ा बोला।

''मुझे तो कुछ नहीं मालूम।''

''इतनी रात तक तो कहीं बाहर रहने का सवाल ही नहीं है। और बिना कहे लड़का कहीं जाता है नहीं। यहाँ वैसे भी इस समय कौन-सी जगह है जहाँ जायेगा!''

''इसे भेजो, छोकरे को, एक चक्कर लगाकर देख आयेगा।''

बूढ़े का यह कहना पुखराज को बिलकुल नहीं भाया। भला इतनी रात को वह उसे कहाँ ढूँढ़ने जायेगा। और उसकी असलियत सुन लेने के बाद तो पुखराज को उससे डर ही लगने लगा था। पुखराज उस बात का कोई जवाब दिये बिना उसी तरह बैठा रहा।

''जा बेटा, चौराहे वाले होटल तक देख आ जाकर।''

''अकेला..'' पुखराज ने अनिच्छा से कहा।

''तो क्या दस-बीस को लेकर जायेगा।''

''मैंने कपड़े भी उतार दिये।'' पुखराज ने जाने से बचने का एक बहाना और किया।

''अरे बेटा, जा भागकर देख आ ऐसे ही। चड्डी बनियान पहने तो है, नंगा थोड़े ही है।'' बूढ़े ने कहा, ''हो सकता है, खाना-पीना पसन्द नहीं आया हो तो होटल में कुछ खाने-पीने बैठ गया हो।'' फिर एकाएक शंभूसिंह की ओर मुखातिब हुए, बोले—''मांस-मच्छी खाता है क्या?''

''क्या पता! और खाता होगा तो भी अब तो इतनी देर हो गयी, उसे आ जाना चाहिये।''

पुखराज अब तक उसी तरह बैठा हुआ था। उठ कर गया न था। इतनी रात को अकेले उसकी इच्छा सारे बाजार की सड़क पार करके चौराहे तक जाने की नहीं थी। उसे बैठा देखकर पुजारी जी भाँप गये कि उसकी जाने की इच्छा नहीं है। अत: बोले,

''आओ, मैं ही देख आऊँ उसे।''

''अरे, अब आप कहाँ जायेंगे इतनी रात में। मैं ही एक चक्कर लगा आता हूँ। वैसे इतनी रात में मुझे उम्मीद तो नहीं है कि वह ऐसे कहीं बैठा मिलेगा। जरूर कोई बात ही हो गयी है उसके साथ।''

पहले पिता को, फिर शंभूसिंह को जाने के लिए उठते देखकर, पुखराज को संकोच-सा हुआ और वह इच्छा न होते हुए भी कूदकर खिड़की से उतरता हुआ बोला, ''मैं जाता हूँ।''

पुजारी जी उत्साहित हो गये, ''हाँ बेटा जा, एक चक्कर चौराहे पर लगा लेना और अच्छी तरह देखकर आना। वहाँ न दिखे तो उसे कलाल के पिछवाड़े ठेके पर देखते आना।''

''अरे बेचारे बच्चे को अकेले रात में दारू के ठेके पर कहाँ भेज रहे हो आप।''

''अजी, अब कोई छोटा थोड़े ही है? इस साल कॉलेज में आ गया है।''

''और अब देश तरक्की करता जा रहा है, तो यही सब देखना पड़ेगा बच्चों को। विकास के लिए सरकारी बोर्ड जिस जगह लगता है वहाँ सबसे पहले दारू के ठेके ही खुलते हैं।'' बूढ़े की इस गम्भीर व्यंग्योक्ति ने सबको चुप करके वातावरण को गम्भीर कर दिया।

''अजी पहले भी होता था, पर बेहयाई का ऐसा खुला नाटक कभी नहीं हुआ। बच्चे सड़कों पर गुब्बारे की तरह निरोध को फुलाते घूमते हैं।''

''चलो जी, अच्छा है, आबादी तो नहीं बढ़ेगी।''

''आबादी की ऐसी रोक भी तो खतरनाक है। धरती पर सौ इंसान हों तो किसी तरह गुजर-बसर कर ही लेंगे, पर सौ की जगह पचास राक्षस हो गये तो धरती को पलीता लगाकर प्रलय लायेंगे ही। कुत्ते-बिल्ली और आदमी में कोई तो फर्क बचे। पहले बच्चा जब तक पन्द्रह-सोलह साल का होकर चड्डियाँ नहीं भिगोने लगता था, तब तब उसे सिर्फ यही मालूम रहता था कि वह भगवान के घर से माँ-बाप की गोद में आया हुआ है। उसे जीवन में, संस्कारों में एक आस्था रहती थी। आज पाँच साल की उमर से ही बच्चे देखेंगे कि वे माँ-बाप के कैसे करम से निकले हैं, तो अपना क्या तो मोल जानेंगे और जीवन में किस चीज में आस्था या श्रद्धा रखेंगे। क्या जीवन मूल्य रह जायेंगे उनके। जवान होते-होते हर मादा की टाँगें सूँघना ही सीखेंगे। इन हालात से तो औरत का माँ-बहन के रूप में भी घर पर ही सुरक्षित रह पाना ही मुश्किल हो जाने वाला है दो-चार सालों में।''

गम्भीर चर्चा के दौरान ही शंभूसिंह की निगाह रह-रहकर घड़ी पर जा रही थी। पुखराज अब तक वापस नहीं लौटा था। भूख-प्यास सब भूल गये थे वे।

मन-ही-मन एक अजब विचार शंभूसिंह के दिमागी में आने लगा था। वह अब मन-ही-मन पछताने लगे थे कि उन्होंने गौरांबर को अब तक स्पष्ट कुछ नहीं बताया है और वह रहस्यमय ढंग से उससे कुछ माँगने का इशारा बार-बार करते रहे हैं, कहीं ऐसा तो नहीं कि गौरांबर यहाँ की बातचीत व वातावरण से नरबलि आदि की किसी बात की कल्पना कर बैठा हो, और इसीलिये चुपचाप भाग निकला हो।

अपने इस ख्याल पर मन-ही-मन उन्हें आश्चर्य भी हुआ और हँसी भी आयी। नहीं-नहीं, ऐसा कैसे सोच सकता है गौरांबर। मैंने उसकी जान बचायी है, खरीदी नहीं। पर आदमी के मन की थाह कौन ले सकता है। किसी के द्वारा कुछ भी सोचने पर क्या पाबंदी लगायी जा सकती है।

शंभूसिंह ने तो अपनी ओर से अभिमन्यु के बारे में भी उसे कुछ नहीं बताया था। इतना गम्भीर और दिल दहलाने वाला हादसा वह उससे छिपा गये थे। उन्होंने तो उसे बस यह समझा दिया कि अभिमन्यु परदेस चला गया है। पर इस बात से शंभूसिंह भी अवगत नहीं थे कि बूढ़े संन्यासी ने गौरांबर को अभिमन्यु के बारे में सब बता दिया है। अभिमन्यु के अंग पर लगे अंगारों ने शंभूसिंह की वंश बेल को जला डाला है, यह भी जान चुका था गौरांबर।

कुछ भी हो, इस तरह वह शंभूसिंह को छोड़कर जा नहीं सकता। यदि उसे यह अंदेशा हो गया है कि शंभूसिंह अपनी रंजिश में उसे मोहरा बनाने के लिए परोस रहे हैं तो भी वह ऐसा लड़का है नहीं कि घबराकर पीछे हट जाये। पर जान किसे प्यारी नहीं होती। साठ-सत्तर-अस्सी साल दुनिया में, जिस तरह भी हो, रहकर जब आदमी के जाने की बेला आती है तो आदमी यही चाहता है कि मौत टल जाये। फिर गौरांबर ने जिन्दगी में अभी देखा ही क्या है। उसकी उम्र ही क्या है। हो सकता है, खतरा टलने के बाद जिन्दगी से मोह पनप गया हो। क्या नहीं हो सकता दुनिया में।

बातें और चिन्ता के बीच पुजारी जी को यह ध्यान नहीं रहा कि उन लोगों ने अब तक रोटी नहीं खायी है। अब इंतजार करते-करते उकताकर शंभूसिंह व पुजारी जी उठकर कमरे से बाहर चले आये। बूढ़ा वहीं लेट गया।

कमरे से बाहर निकलते ही हवा के तेज झोंके ने शंभूसिंह के चेहरे पर दस्तक दी। पीछे-पीछे पुजारी जी भी बाहर निकले। और दोनों बातें करते-करते पतली पगडण्डी से होकर मन्दिर की तरफ आने लगे। सड़क की बत्तियों को छोड़कर सभी लाइटें बुझ चुकी थीं। बाजार के आसपास की घनी बस्ती में सभी खिड़की दरवाजे बंद हो चुके थे। कुछ-एक लोग कहीं-कहीं दुकानों के बाहर बरामदों में या किसी खुली जगह में सोये हुए दिखायी दे जाते थे। सड़क पर बिलकुल सुनसान था।

पुखराज को गये काफी देर हो गयी थी। अब पुजारी जी के मन में थोड़ी-थोड़ी चिन्ता के साथ डर भी व्यापने लगा था। चारों ओर खोजी नजर दौड़ाते हुए ढलान वाली सड़क पर शंभूसिंह व पुजारी जी चलने लगे। दूर-दूर तक किसी चलते-फिरते आदमी का कोई साया तक नहीं दिखायी दे रहा था। कभी-कभी बीच में कहीं से कुत्तों के भौंकने का स्वर ही सुनाई दे जाता था।

बातें करते-करते वे दोनों चौराहों तक चले आये। चौराहे से बायीं ओर मुड़ कर जरा दूरी पर जो होटल था, वह भी अब तक बंद हो चुका था। वहाँ कोई नहीं था। केवल होटल में काम करने वाले एक-दो लोग बाहर सोये हुए थे। दूर-दूर तक हिलता-डुलता कोई साया भी कहीं नजर नहीं आ रहा था। इस इलाके में तो वैसे भी रात को जल्दी ही चहल-पहल खत्म हो जाती थी, क्योंकि मंदिर के कारण सुबह बहुत दिन-अँधेरे ही हलचल शुरू हो जाती थी। बावड़ी की ओर नहाने-धोने वाले और मन्दिर के दर्शन करने वाले लोगों की आवाजाही शुरू हो जाती थी। कहीं किसी दुकानादि के खुला होने का सवाल ही नहीं था।

शंभूसिंह ने पूछा, ''रात को यहाँ से कोई गाड़ी निकलती है क्या?''

''गाड़ी तो रात को साढ़े तीन बजे कोटा के लिए जाती है, परन्तु स्टेशन तो यहाँ से सोलह किलोमीटर दूर है।'' पुजारी जी ने जवाब दिया।

लेकिन अब उन दोनों की चिन्ता यह देखकर और भी बढ़ गयी थी कि गौरांबर के साथ-साथ पुखराज भी अब तक नहीं लौटा। वह कहाँ उसे ढूँढ़ने चला गया।

शंभूसिंह को अब यह आशंका होने लगी थी कि गौरांबर या तो स्टेशन की ओर निकल गया या फिर आते-जाते ट्रक में बैठ गया। अब दोनों की मुख्य चिन्ता पुखराज को तलाश करने की थी।

लेकिन तभी शंभूंसिंह लगभग चीख ही पड़े। दाहिनी ओर सड़क के किनारे गौरांबर गिरा पड़ा था। उसके पास दौड़कर दोनों लोग पहुँचे और उसे उठाने की कोशिश की। गौरांबर के मुँह और शरीर पर की चोटों से खून रिस रहा था। पुजारी जी ने शंभूसिंह की मदद की, उसे उठाने और सहारा देकर सड़क तक लाने में। शायद गौरांबर आते-जाते किसी तेज वाहन की चपेट में आ गया था।

और सुबह ही शंभूसिंह को पुजारी से पता चला कि पुखराज गौरांबर को ढूँढ़ने गया ही नहीं, सीधा घर जाकर सो गया था।



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