त्रास खनन
त्रास खनन


"त्रास खनन"
ऐसा लगता था जैसे वो अकेला ही नहीं बल्कि उसके साथ कमरे की दीवारें, पर्दे, खिड़कियां और छत भी थरथरा रहे हों। ये तो गनीमत थी कि वह घर में अकेला ही था वरना और जो भी इस समय उसके साथ यहां मौजूद होता वो अकारण ही उसके प्रति किसी शंका से भर जाता। इतने गुस्से में उसे पहले कभी न तो किसी और ने देखा था और न खुद उसने ही अपने आप को। लगता था मानो अकस्मात कहीं कोई बिजली कड़क कर चुकी हो और उसका अंतर झुलसा गई हो। गला सूख रहा था जैसे प्यास का समूचा रेगिस्तान उसके हलक में आ फंसा हो।वो रो नहीं रहा था पर उसकी आंखों के कोरों पर एक चमकदार नमी ज़रूर थी।रोता क्यों? उस पर किसी दुख का हमला नहीं हुआ था। बल्कि ये आक्रमण तो अपमान का था। आदमी अपमान पर रोता नहीं, लजाता है। गुस्सा उतर जाने के बाद जब अकेले में सोचता है तो उसे मन ही मन एक मीठी सी शर्म आती है।मीठी सी शर्म! ये निर्लज्ज जुमला।देखो तो, किसी बबूल के पेड़ की तरह खामोशी से उसके सहन में उग आया ये जुमला। और आज उसके सीने पर किसी खंजर की तरह नश्तर चुभो गया। काश इसे उसी क्षण मसल कर उखाड़ फेंका होता जब ये पहले पहल दिखाई दिया था। लेकिन तब उसे ये कहां मालूम था कि जिस अंकुर को वो सहला रहा है वो एक दिन खौफ़नाक कैक्टस बन कर खड़ा हो जाएगा। तब तो सचमुच मिट्टी में हुई गुदगुदी सा अंकुआया था ये।उसे खूब याद है। होगी लगभग दस साल पुरानी बात।उन दिनों वो नया- नया उजड़ा था। धूल सने लम्हे रात- दिन झेलता हुआ।उसकी हंसती- खेलती ज़िंदगी देखते- देखते वीरान हो गई थी। बेटी की तभी शादी हुई थी। बेटा विदेश में पढ़ाई करने का सपना लेकर परदेस चला गया था और पत्नी को अल्पायु में ही दिल का ऐसा दौरा पड़ा कि दुनिया से रुखसत होने की नौबत आ गई। ये सब- कुछ चंद महीनों के फासले पर हुआ। उसकी नौकरी करने तक की इच्छा मर गई जबकि सेवा निवृत्त होने में अभी अच्छा खासा टाइम बाकी था। बड़ा पद और मोटी तनख्वाह भी उसे बांध न सकी। जी में वीरानी उग आए तो कोई पैसे का भी करे क्या?उन दिनों घर में अपने कमरे में अकेले बंद रहना ही उसे भाता था। सुबह होती, दोपहर होती, शाम होती और रात आ जाती। फ़िर वो किसी अनजाने खौफ़नाक जंगल में चला जाता। न जाने कैसे ढूंढ - खोज कर अगली सुबह का सूरज उसे फ़िर निकाल लाता और वह दैनिक क्रिया - कलाप में उलझ जाता।लेकिन ऐसा भी आख़िर कब तक चलता। इंसान के पास जब तक शरीर हो तब तक साथ में इंद्रियां भी तो होती हैं न। वो गुज़र रहे पलों को खुरचती हैं, कुरेदती हैं और तब इंसान वो भी हो जाता है जो वो नहीं हो।इसी तरह उसे बैठे- बैठे कंप्यूटर, लैपटॉप और फ़िर मोबाइल से सारा दिन खेलने का चस्का लग गया। वो इस रपटीली फिसलन पर ऐसा मज़ा लेने लगा जैसे लोग बर्फ़ की परतों पर फिसलने का लेते हैं।अंगुलियों की हल्की सी जुंबिश से दुनिया का कोई भी द्वार खोल लो और किसी विचित्र कक्ष में बेख़ौफ़ घुस जाओ। न किसी और की ज़रूरत और न किसी की कोई दख़लंदाज़ी।ऐसे में ही एक दिन न जाने कहां से एक किशोर का छोटा सा संदेश आया और उससे बात होने लगी। उसे बस ये अच्छा लगा कि किशोर जिस छोटे शहर में रहता है, कभी वर्षों पहले उसे भी उस गांव- नुमा कस्बे में रहने का मौका मिला था।सुबह जैसे ही फ़ोन हाथ में उठाता, वहां पहले से ही उसका संदेश हाज़िर होता - उठ गए अंकल? सुप्रभात!और बस दिन शुरू हो जाता।चाय पी ली? नाश्ता कर लिया? आज कहीं जाओगे या घर पर ही हो? नहा लिए क्या आप? जैसे अंकल की हर बात से उसे मतलब हो। लगभग हर घंटे आधे घंटे बाद वह पूछता रहता। उसे भी वीरान हुई ज़िंदगी में जैसे कोई नया काम मिल गया। जो पूछा जाता, वो जवाब देता जाता।दिन गुजरने लगे। सप्ताह और महीने भी।ज़िंदगी में पहले कमाए दुःख- सुख जैसे कहीं बिसरा गए। ये नई दुनिया, नया काम! ये छोटा सा अजनबी दोस्त जो पूछे वो बताते जाओ। यही दिनचर्या हो गई। सुबह से लेकर रात तक वह उसके साथ बातों में लगा रहता। मानो कोई ऐसा साथी मिल गया जो इस एकांत वीराने में अपनों से भी बढ़ कर उसका अपना बन गया हो।- आपकी तस्वीर भेजो अंकल! देखो, मुझे देखोगे? ये देखो, ये मेरी तब की पिक है जब मैं अपने स्कूल के दोस्तों के साथ पिकनिक पर गया था। ये मेरी बर्थडे पार्टी के फ़ोटो। आपको अपना डॉगी दिखाऊं, बहुत प्यारा था पर पिछले दिनों मर गया। मेरे एक दोस्त ने अनजाने में उसे लात मार दी थी जिससे वह भीतर से काफ़ी ज़ख्मी हो गया था, मुझे पता भी नहीं चला। सीधे जब उसकी लाश ही देखी तब पता चला। आप क्या करते हो अंकल? खाली समय कैसे बिताते हो? क्या वहां आपका कोई दोस्त है जो आपके पास आता हो या फिर आप ही कहीं जाते हो। अंकल, ये वीडियो देखो, मेरे दोस्त ने खुद बनाया था जब वो महाबलेश्वर घूमने गया था। आप जाते हो कहीं घूमने? आप यहां आ जाओ एक बार! मैं भी आऊंगा आपके पास, अभी घरवाले अकेले आने नहीं देते इतनी दूर, छोटा हूं न मैं। जब मैं कमाने लग जाऊंगा तब ज़रूर आऊंगा। तब तो मुझे किसी से पूछने की जरूरत भी नहीं रहेगी। अंकल, कितना मज़ा आएगा, आपके पास रहूंगा कुछ दिन! आपको कोई प्रॉब्लम तो नहीं होगी न मेरे आने से? आप क्या कहोगे अपने आसपास वालों से? मेरा परिचय कैसे कराओगे अंकल? मैं तो कह दूंगा कि अपने अंकल के पास जा रहा हूं... आपके रिश्तेदार, आपके बच्चे मेरे बारे में पूछेंगे क्या? उनको भी सरप्राइज़ होगा कि मैं आपका फ्रेंड कैसे बना। अंकल मुझे भी नहीं मालूम। बस, एक बात मालूम है कि आप कभी भी मुझे भूलना नहीं।इस तरह की ढेरों बातों और गुफ्तगू के बीच धीरे- धीरे दुःख से घनीभूत हुई उसकी हताशा भी छंटने लगी और खोई चेतना जैसे वापस लौटने लगी।उसने फ़िर से अपने काम और नौकरी पर भी ध्यान देना शुरू कर दिया। ऐसा लगता मानो वक्त का वैद्य अपने तरीके से उसके कष्टों पर मरहम लगा कर सब कुछ दुरुस्त करता जा रहा है। फ़ोन पर उससे कभी - कभी बात करते रहने वाले उसके बच्चे भी आश्वस्त होते कि उनके पिता ज़िंदगी में वापसी कर रहे हैं। उसके अपने अन्य परिजनों से भी दूरी के बावजूद मिलना - जुलना भी यथासंभव होने लगा। उसे लगा जैसे सब ठीक हो रहा है। ज़िंदगी अपने पहलू में हर दुःख का उपचार लिए रहती है।नए बने छोटे से उस आभासी मित्र को लेकर भी अब उसकी सोच कुछ संजीदा हो चुकी थी। अब वो दुनियादारी की परतों के भीतर ही उसे समय और तवज्जो देता। मित्र भी बड़ा हो रहा था।
कभी - कभी खाली बैठे हुए वो अब सोचने लगा था कि एक किशोर वय के अनजान लड़के के इस तरह उससे मेलजोल बढ़ाते चले जाने की क्या वजह हो सकती है।अब शंका के समाधान में उसका दिमाग़ भी साथ देता, ये इस बात का पुख़्ता सबूत था कि वह अब दुनियावी दुखों से निजात पा रहा था। वो अब कोरी भावुकता से ऊपर उठ कर उस नन्हे मित्र से बातों के दौरान कुछ ठोस जानकारी वाली बातों की टोह भी लेने लगा। जैसे - उसकी आयु क्या है? वह किस स्कूल या कॉलेज में पढ़ता है, उसके माता- पिता क्या करते हैं, घर की आर्थिक स्थिति कैसी है आदि - आदि। वह एक अनजान अजनबी से इस तरह क्यों मिला, आभासी तौर पर ही सही?उसे कभी भी उस लड़के की किसी भी बात से ऐसा नहीं लगता था कि वह कोई बात छिपा रहा हो या कोई ग़लत जानकारी दे रहा हो। वह सहज होकर मन की पूरी प्रसन्नता से बात करता था और अब कभी- कभी दोनों वीडियो कॉल पर एक दूसरे से रूबरू हो कर भी बातें करने लगे थे।ऐसे में उसके मन में सामान्यतया उस छोटे लड़के की दोस्ती के यही कुछ कारण समझ में आते थे - शायद वो लड़का उसके एक लेखक होने के कारण उसकी ओर आकर्षित हो गया हो और उसे भी लिखने- पढ़ने का थोड़ा - बहुत चाव हो। कई बार बच्चे कविता - कहानी लिखने में आनंद महसूस करते हैं और अपने कार्य को और परिमार्जित करने की चाह उन्हें साहित्यकारों की तरफ आकर्षित कर देती है। उन्हें लेखकों में भविष्य का अपना मार्गदर्शक और सहयोगी नज़र आने लगता है। वो उनकी ओर आदर तथा श्रद्धा से खिंचे चले आते हैं।या फिर लड़के ने प्रोफ़ाइल देख कर ये जान लिया कि वह एक प्रोफ़ेसर और निदेशक के रूप में एक प्रतिष्ठित विश्वविद्यालय से जुड़ा हुआ है। लड़के ने हायर एजुकेशन के अपने सपने को लेकर उसकी ओर पहचान- परिचय का हाथ बढ़ाया हो। छोटे गांव कस्बों में रहने वाले महत्वाकांक्षी बच्चे अपनी उच्च शिक्षा के लिए बड़े शहरों की ओर देखते ही हैं और इसके लिए उन्हें किसी तिनके के सहारे की चाह मन ही मन रहती है। वो जानते हैं कि आज के भारी प्रतिस्पर्धा के युग में बिना किसी आधार के अपना मुकाम बनाना एक टेढ़ी खीर ही साबित होता है। यही सोच कर वो एक लेखक - प्रोफ़ेसर की ओर उन्मुख हुआ हो। लड़का अपनी शिक्षा के लिए उसके शहर में आने की दिली ख्वाहिश रखता हो।एक कारण और भी कुनमुनाता था उसके ज़हन में। साइकोलॉजी कहती है कि बच्चे किसी रिश्ते से फिक्सेशन के शिकार भी होते हैं। कोई- कोई रिश्ता जो उन्हें आसानी से उपलब्ध नहीं होता उसकी ओर वो आउट ऑफ द वे जाकर भी आकर्षित होते हैं। बच्चों का अपने दादा - नाना अथवा माता- पिता से जुड़ाव भी इसी तरह की भावनात्मकता के साथ होता है। बहरहाल ये सब कुछ किसी के अपने हाथ में नहीं होता।कभी - कभी अपने कंफर्ट ज़ोन में भी आदमी संदेह के पर्दे टांग लेता है। तब शंका - कुशंका यहां अंधी सुरंग में भी उसका पीछा नहीं छोड़ती।बहरहाल वह अपने कंफर्ट ज़ोन को कंफर्ट पार्लर कहता था और इसी अवधारणा को अपने मन में धार कर अपने से बहुत छोटी उम्र के उस लड़के से बातें करने बैठता था।हालांकि दिनों दिन सोशल मीडिया का निहायत बढ़ता जाता खुलापन उसे इससे आगे सोचने से भी नहीं रोकता था लेकिन फ़िलहाल उसकी अब तक की ज़िंदगी की बगिया में उगे दरख़्तों की जो ट्रिमिंग - कटिंग उसके हालात ने कर दी थी उनकी छाया में इतनी स्पेस वो कभी अपने आप को भी नहीं दे पाता था।आख़िर वह एक भरा - पूरा गृहस्थ ही तो था। कोई साधु संन्यासी नहीं जो एक छोटे निर्दोष लड़के को अपने स्वार्थ के लिए अपना चेला बनाने की बात सोचे। फ़िर उसे लड़के के बारे में बहुत अधिक अभी तक पता भी तो नहीं था। वह किस परिवार से है, उसकी हैसियत क्या है, वह क्यों एक अजनबी प्रौढ़ से इस तरह रात दिन बातें किया करता है, आख़िर क्या चाहता है...बस, ज़िंदगी के सफ़र में चलते- चलते रस्ते में किसी मुसाफ़िर की तरह एक किशोर लड़का उसे मिल गया और उनके बीच बिना किसी प्रयोजन के सहज ही बातें होने लगीं। इतना ज़रूर था कि उसके अपने दुःख भरे तूफ़ान के बाद यह लड़का एक सहज मित्र की तरह मिला था इसलिए एक सॉफ्टकॉर्नर उसके लिए बना रहता था। मुंह बोले किसी रिश्ते सा।लेकिन इसी बीच उसका माथा तब ठनका जब एक दिन बातों ही बातों में फ़ोन पर लड़के ने उससे कहा - अंकल, अगर आप बुरा न मानें तो क्या मैं आपको पिता जी कह सकता हूं?- क्यों बेटा? क्या इससे तुम्हारे पिता को बुरा नहीं लगेगा? उसने कहा।- अंकल, मेरे पिता नहीं हैं। बस मैं और मेरी मां हैं। हम दूर के रिश्ते के एक मामा के पास गांव में रहते हैं।- ओह! तब तुम्हारे घर का खर्च कैसे चलता है? तो क्या तुम्हारी मां कोई नौकरी करती हैं? उसने मानो इस नए बने संबंध में कोई स्वार्थ- गंध सूंघ ली हो।- मेरे पिता की गांव में ही एक छोटी सी दुकान थी। मां उसी को संभालती हैं।- पिता की मृत्यु कब और कैसे हुई? उसने हमदर्दी के लहज़े में ही पूछा।- अंकल, हमारे गांव में कॉलेज नहीं है, जब मैंने यहां से स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली तो पास के शहर में कॉलेज में एडमिशन ले लिया। थोड़े ही दिन हुए थे कि एक एक्सीडेंट में पिता जी चले गए।- ये तो बहुत बुरा हुआ। उसने ठंडी सांस छोड़ते हुए कहा।- जी अंकल, हमारे छोटे से कच्चे मकान को मामा के पास रेहन रख कर मेरी मां ने मेरी पढ़ाई छूटने नहीं दी। हम यहीं रहते हैं।लड़के से ये सब जान लेने के बाद वो उसके पिता कहने के सवाल पर कुछ नहीं कह सका। न हां और न ना।लड़का उसे अब फ़ोन पर बात करते हुए पिताजी कह कर ही पुकारता।लेकिन ये उसे अच्छा नहीं लगता था। धीरे - धीरे एक अनमना पन उन दोनों के बीच पसरने लगा। वह अब लड़के का फ़ोन उठाने से बचता। कई बार फ़ोन आने पर ही किसी मज़बूरी में उसे उठाता और जल्दी से जल्दी रख देने की फ़िराक़ में रहता। सत्रह- अठारह साल के उस लड़के की सच्चाई जान कर वह उससे पीछा छुड़ाने की बात पर भी द्रवित हो जाता। पर मन विलगने लगे थे।उसे लगता था कि लड़का धीरे- धीरे ख़ुद ही समझ जाएगा कि वह उसमें दिलचस्पी नहीं लेता है और उससे पीछा छुड़ाना चाहता है तो वो ख़ुद ही उसे फ़ोन करना बंद कर देगा और उसे ब्लॉक करने जैसे उपाय करने का सहारा नहीं लेना पड़ेगा। आख़िर बिना पिता के एक मासूम लड़के को इस तरह दुत्कारने से उसके भीतर भी एक अपराध बोध तो आ ही जाता।
उसने अब लड़के के "पिताजी" बोलने पर भी अपनी नापसंदगी जतानी शुरू कर दी।
लेकिन इसका असर उल्टा हुआ। लड़का और भी भावुक होकर उसे बार- बार पिता कहता। उसे भी खीज होती।
और तभी अचानक एक दिन आई वो आंधी, जिसने उसके होश ही उड़ा दिए।
वह सुबह की चाय के साथ अपने कमरे में बैठा हुआ अख़बार देख रहा था कि सहसा उसकी नज़र एक ख़बर पर पड़ी जो काफ़ी प्रमुखता से मुख्य पृष्ठ पर ही विस्तार से अंकित थी।
ख़बर देश के एक बड़े और लोकप्रिय नेता के बारे में थी।
कई महीनों से लोग सुनते आ रहे थे कि उन बड़े और प्रभावशाली राजनीतिज्ञ पर एक अज्ञात निर्धन सा युवक लगातार यह आरोप लगा रहा था कि वह उनका ही पुत्र है पर उसका जन्म अवैध रूप से एक बिनब्याही मां के गर्भ से होने के कारण उसके ये नैसर्गिक पिता उसे स्वीकार नहीं कर रहे हैं। इस सनसनी खेज प्रकरण ने सबका ध्यान आकर्षित किया था और न्याय के लिए निरंतर गुहार लगाने वाले इस युवक ने मामले को इस मोड़ पर पहुंचा दिया था कि उसके उन संदिग्ध तथाकथित पिता को कानून द्वारा डी. एन. ए. टेस्ट के लिए बाध्य कर दिया गया था।
और आज उसकी करुण पुकार रंग लाई थी। सचमुच पिता के शरीर के जींस की वैज्ञानिक जांच से प्रामाणिक रूप से यह सिद्ध हो गया था कि सचमुच उस युवक की रगों में उनका ही खून है। उन्हें लाचार होकर सच्चाई स्वीकार करके प्रायश्चित करना पड़ा।
...इस ख़बर को पढ़ कर वह जैसे कहीं भीतर से बेचैन हो गया। उसे दिन में तारे नज़र आने लगे।
कहने को तो यह एक बचकानी सी बात थी। परंतु उसे ख्याल आया कि क्या उस लड़के के मन में भी ऐसी ही कोई खुराफात पनप रही है जिसने पहले उससे मित्रता की और अब उसे कई महीनों से पिता पुकारने की गुहार लगा रहा है।
धत! कहीं ऐसा हो सकता है कि कोई भी किसी को भी इस तरह ब्लैकमेल करने का प्लान बना ले। आख़िर ऐसी बातों का कहीं कोई आधार भी तो होना चाहिए। केवल किसी के कह देने भर से तो बात प्रमाणित नहीं हो जाती।
उसे अपने इस ख्याल पर हंसी तो आई किंतु न जाने क्यों, वह अपने दिल में आई इस बात को सहज होकर भुला भी नहीं सका। अब उसे ऐसा लगता था कि उसे नियति ने सचमुच एक ऐसे मोड़ पर ला खड़ा किया है जहां उसका जीवन दुर्भाग्य की भेंट चढ़ जाएगा। उसके साथ भी कोई न कोई अनहोनी होगी। शायद इस विडंबना को भांप कर ही उसकी पत्नी उसे छोड़ कर दुनिया से दूर चली गई है। वह लगातार यही सोचता रहता कि आने वाले समय ने उसे ज़रूर कोई काला संकेत दे दिया है। उसे अजीब से दौरे पड़ने लगे। कभी- कभी उसे लगता कि वह पागल होता जा रहा है। उसकी इंद्रियां उसका साथ छोड़ रही हैं। वह किसी ऐसी गर्त में गिरने - पड़ने लगा है जहां कोई उसके साथ नहीं होगा और वो एक दर्दनाक अंत को प्राप्त करेगा।
उसने फ़िर लोगों से मिलना- जुलना बंद कर दिया। अब वह घर से बाहर भी नहीं निकलता था।
सबसे बड़ा परिवर्तन उसमें यही आया कि वह अपने अनजान मित्र उस लड़के को लेकर बुरी तरह आक्रामक हो गया। वह उसके फ़ोन से ऐसे भयभीत होता मानो उसकी गिरफ्तारी का कोई वारंट जारी हो गया हो। वह अव्वल तो फ़ोन उठाता ही नहीं था और यदि कभी अनजाने में उठा भी ले तो बिना बात उस लड़के पर चिल्लाने लगता। पर लड़का भी न जाने किस मिट्टी का बना हुआ था, उसे चिल्लाने, दुत्कारने का कोई फ़र्क नहीं पड़ता और वह धैर्य के साथ उससे और भी अपनापन जताता। वह फ़ोन पर ही रोने लग जाता और कातर स्वर में कहता - पिताजी, पिताजी क्या हो गया है आपको? क्या आप बीमार हो गए हैं? क्या आपको किसी ने बहका दिया है, आप पर कोई जादू - टोना कर दिया है? और भी न जाने क्या - क्या।
लड़के के इस बर्ताव से उसे और भी क्रोध आता। वह दांत पीसने लगता तथा लड़के से गाली - गलौज पर उतर आता।
लड़का उसकी हर बात का शांति और संयम से जवाब देता। बार- बार कहता कि वह जल्दी ही उसके पास आएगा। यह सुनकर वह आपा खो देता और अपशब्द कहते हुए उसे तरह- तरह से धमकाता। उसने पुलिस में रिपोर्ट दर्ज कराने की धमकी दे डाली पर लड़के पर जैसे उसकी किसी बात का असर नहीं होता। वह फ़ोन पर ही ज़ोर - ज़ोर से रोने लग जाता।
और आख़िर एक रात जब वह बिना कुछ खाए- पिए निपट तन्हाई में अकेला अपने घर की छत पर दोनों पांव नीचे लटकाए हुए बैठा हुआ था तब अचानक उसकी स्मृति में लगभग उन्नीस बीस साल पहले की बात कौंधने लगी। जैसे खयालों से उसके मन में बैठा हुआ एक चोर अकस्मात निकल कर उसके सामने आ गया।
उन दिनों दो साल के लिए उसकी बैंक नौकरी में उसकी तैनाती एक गांव में हुई थी। वह अपने परिवार को अपने शहर में ही छोड़ कर सुदूर उस गांव में चला गया था। सरकार का यह नियम था कि सरकारी बैंक में काम करने वाले हर अधिकारी को कुछ समय के लिए ग्रामीण क्षेत्र में रहना ही पड़ता था। कई हज़ार किलोमीटर दूर के उस गांव से उसे कई महीनों तक अपने घर आने का मौका भी नहीं मिलता था।
और उन्हीं दिनों... उसकी मित्रता कुछ ऐसे युवकों से हो गई जो उसी की तरह अपने - अपने घर से दूर वहां अपनी नौकरी के चलते रह रहे थे। उन लोगों के बीच अपने घर से दूर रहने के कारण दोस्ती पनप गई। ऐसे में कभी - कभी वो लोग पास के एक कस्बे में दिल बहलाव के लिए चले जाते थे जहां उनके नामुराद कदम रेड लाइट एरिया में पड़ गए। और रोज़ - रोज उन लड़कों से वहां की बातें सुन कर एक- दो बार उसके कदम भी बहक गए।
बात आई- गई हो गई। वह अपने निर्वासन के उदास दिन काट कर वापस भी लौट आया और बाद में उसने वो नौकरी भी छोड़ दी। सालों गुज़र गए।
लेकिन एक दिन अपने इस नए आभासी दोस्त से बातों- बातों में ही उसे पता चला कि उसका ये दोस्त उसी कस्बे का रहवासी है जहां दो दशक पहले नज़दीक के एक गांव में वह रह आया था। इतना ही नहीं, बल्कि उसके इस दोस्त ने अपने जन्म का साल भी पूछने पर लगभग वही बताया जिन दिनों वह उस इलाके में रहा था।
वह हत्थे से ही उखड़ गया। उस पर जैसे बिजली सी गिरी। वह आपा खो बैठा और फ़ोन पर उसने लड़के को बुरी तरह धमकाते हुए चेतावनी दी कि वह भविष्य में कभी उसे फ़ोन न करे, अन्यथा वह उसकी जान ले लेगा। उसे मरवा डालेगा।
ये सुनते ही लड़का सन्न रह गया। वह ज़ोर - ज़ोर से रोता रहा और फ़ोन पटक कर चला गया।
लेकिन थोड़ी ही देर बाद फ़ोन फ़िर आया। उसने अपने रूखे व्यवहार से शर्मिंदा होकर हमदर्दी वश फ़ोन उठा लिया।
इस बार फ़ोन पर लड़के ने नहीं, बल्कि उसके मामा ने बात की।
निहायत ही संजीदगी और नर्मी से बोलते हुए उन्होंने कहा - क्षमा कर दीजिए। मेरा ये भांजा नासमझ है, जबसे इसने अपने पिता को खोया है यह अवसाद में चला गया है। हमें पता चला कि यह आपको फ़ोन पर तंग करता है, हमसे कहता है कि फ़ोन पर पिताजी बात करते हैं। इसकी मां और मैं छिप कर इसके फ़ोन सुनते थे और सोचते थे शायद इसी तरह यह ठीक हो जाएगा और अपने दुःख भूल जाएगा। ये आपसे मिलने के लिए पैसा- पैसा जोड़ रहा था। कहता था जब किराया इकट्ठा हो जाएगा तो मैं पिताजी से मिलने जाऊंगा।
हमें माफ़ कर दीजिए सर, ग़लती हमारी ही है। पिता की मौत के बाद जब वो आपसे बातों में दिल लगा रहा था हमें तब ही उसे रोक देना चाहिए था। मैं और उसकी मां छिप कर उस पर नज़र रखे हुए थे। हमने आपका प्रोफ़ाइल फेसबुक पर अच्छी तरह चैक किया था। हमने सोचा था कि आप एक उच्च शिक्षित बुद्धिजीवी हैं, साहित्यकार हैं, शायद आप उसे कोई रास्ता दिखा कर उसके अंधेरे से उसे बाहर निकाल लेंगे। लेकिन हम ये जान नहीं पाए कि वो मासूम अनजाने में त्रास खनन कर रहा है। अपने लिए भी और आपके लिए भी।
... पर अब कोई फ़ोन नहीं आएगा, हमें माफ़ कर दीजिए... कहते- कहते मामा का स्वर भी रूंध गया और सिसकने की आवाज़ आने लगी।
दूर से आती ये आवाज़ मानो उसे शर्मिंदगी और अपमान के किसी गहरे गड्ढे में धकेले दे रही थी। - प्रबोध कुमार गोविल
( समकालीन भारतीय साहित्य से आभार सहित)