नया जन्म
नया जन्म


शंभूसिंह के साथ गौरांबर उस दिन उसके गाँव में क्या आया, उसका तो मानो दूसरा जन्म ही हो गया। आधी रात को चोरों की तरह छिपकर खुद शंभूसिंह उसे अपने साथ गाँव लाया, पर सवेरा होते ही गौरांबर को लगा, मानो वह बरसों बाद, अपने माँ-बाप के बीच, अपने घर पहुँच गया हो।
गौरांबर की आँख खुलते ही वह घर, घर जैसा लगने लगा, जिसकी महीनों से उसे आदत ही छूट गयी थी। अगली सुबह शंभूसिंह ने उसे खुद जब जाकर उठाया, गौरांबर ने जैसे किसी नवाब की तरह आँखें खोलीं। उसे अपने पर, दिख रहे मंजर पर और गुजरी रात के वजूद पर जैसे एतबार नहीं आया। शंभूसिंह ने गौरांबर की आवभगत की, मगर उसे कुछ दिन घर की चहारदीवारी में ही सम्भलकर रहने की हिदायत दी, क्योंकि आखिर वह पुलिस स्टेशन से चोरी-छिपे यहाँ आये थे और पुलिस के रिकॉर्ड में जब तक गौरांबर चाहे अपराधी हो या न हो, परन्तु अब अवश्य अपराधी था।
शंभूसिंह कौन था, क्यों वह जान-जोखिम में डालकर गौरांबर को साथ लाया था, वे सब रहस्य धीरे-धीरे गौरांबर के सामने खुलने लगे..।
खुद गौरांबर को जब शंभूसिंह ने बताया कि रावले वाले बड़े रावसाहब उसके बड़े भाई हैं तो गौरांबर को जरा भी यकीन नहीं आया। सुबह शंभूसिंह के लिए मट्ठे का गिलास और गौरांबर के लिए चाय हाथ में लेकर शंभूसिंह की घरवाली यदि उसी समय कमरे में न आयी होती, और गौरांबर के सामने अपने पति की बात का समर्थन न करती तो शायद गौरांबर को यकीन ही नहीं आता।
यह कुदरत का खेल था या अपने-अपने जीवट का परिणाम, शंभूसिंह आज रावसाहब के पासंग कहीं नहीं ठहरता था। पर धीरे-धीरे गौरांबर ने जाना कि शंभूसिंह के पास जो था, उसमें रावसाहब बड़े दरिद्र थे। और रावसाहब के पास जो था शंभूसिंह उसमें काफी पीछे छूट गये थे।
राव मनोहर सिंह और शंभूसिंह के पिता ने दो शादियाँ की थीं। एक शादी से राव मनोहर सिंह थे, तो बड़े रावसाहब कहलाते थे। दूसरी पत्नी से शंभूसिंह थे। दोनों ही पत्नियाँ अब जीवित नहीं थीं। उनके पिता का भी दो साल पहले देहावसान हो गया था। उनके पिता ने गाँव में काफी अच्छी जमीन-जायदाद होते हुए भी बच्चों को शहरी शिक्षा दिलायी थी। उनके पिता का पहले, बल्कि कई पीढ़ियों पहले यहाँ के राजघराने से ताल्लुक होने के कारण ये मिल्कियत जमा हो सकी थी। गाँव में उनके पिता का काफी दबदबा था, यद्यपि उन्होंने अपने जीवनकाल में अपने रौब-रुतबे और रोकड़े में कोई इजाफा नहीं किया था। उन्होंने एक आम शहरी की तरह शहर के माहौल में आम जीवन ही जिया था। वह कुछ वर्ष फौज में भी रहे थे। पर बाद में जल्दी ही उन्होंने वहाँ से कमीशन से लिया था और उसके बाद शहर में कई छोटे-मोटे काम करते हुए ही जिन्दगी गुजारी। उनके रहते घर में रुपये-पैसे की कोई इफरात नहीं थी, तो खास तँगी भी नहीं थी।
माँ-बाप अपने बच्चों को अपने जिगर का खून देते हैं, जो एक-सा होता है। गुजर-बसर देते हैं, जो एक-सी होती है। पर नसीब माँ-बाप नहीं देते, इसलिए वो एक-से नहीं होते।
मनोहर सिंह जिन दिनों जयपुर यूनिवर्सिटी में पढ़ रहे थे, उनकी पहचान आखेट महल के मालिक धनराजपुर के बेटे की थी। रियासत के साथ पुराने सम्बन्ध ऐसे रहे थे कि आज भी, आजादी के बाद, उनकी लड़की जब यूनिवर्सिटी में दाखिल हुई तो वह माँ साहिबा के पास उनके महल में ही रही। रानी माँ साहिबा का एक महल जयपुर विश्वविद्यालय के नजदीक ही था, जहाँ कभी-कभी वे आते समय इस बच्ची को भी साथ ले आती थीं।
और एक दिन ऐसा आया कि राव मनोहर सिंह आखेट महल के दामाद बन गये; क्योंकि आखेट महल में लड़का कोई नहीं था। वक्त ने रावसाहब को सब मिल्कियत का स्वामी बना छोड़ा। बाद में एक बार मनोहर सिंह जी की दिलचस्पी राजनीति में भी हो गयी और उन्होंने चुनाव भी लड़ा और विधायक बन गये। महारावल से उनकी बड़ी करीब की पटरी खाती थी।
उनके प्रभाव से उन्हें तत्कालीन स्वतंत्र पार्टी का टिकट मिल गया और वे विधानसभा में पहुँच गये।
राव मनोहर सिंह की शादी की खिलाफत खुद उनके माँ-बाप ने भी की थी। उनका कहना था कि आखेट महल में कोई लड़का नहीं है। मनोहर को घर दामाद बन जाना होगा और बुजुर्गवार मानते थे कि किसी भी लड़के लिए कहीं घर-जँवाई बनना ठीक वैसे ही है, जिस प्रकार किसी सीप के लिए आबदार मोती के ढुलक जाने के बाद जीना। बेआब-बेनूर होकर।
राव मनोहरसिंह ने न मोती की परवाह की और न मोती की आब की। उन्हें जमीर के बदले आखेट महल का सौदा बहुत सस्ता लगा और उन्होंने माँ-बाप को नाराज कर दिया। बेटे ने नये जमाने की नयी तालीम के नाम पर चाहे जो कुछ किया, माँ-बाप ने पुराने जमाने के पुराने बाशिंदे होने की रीति मरते दम तक निभायी। मनोहर की शक्ल जीते-जी न देखी। लड़का विधायक हो गया और चार-पाँच महीने के लिए मंत्री भी रहा पर अपने तमाम दबदबे और ठाठ-बाट के होते हुए भी एक दिन के लिए माँ-बाप को अपनी ड्योढी पर लाकर अपने ससुराल पक्ष का पानी नहीं पिला सका। जब ठाकुर साहब मरे, तो इसी गाँव में और दस-बीस आदमियों द्वारा ले जायी गई अर्थी पर चढ़कर जलाये गये तो इसी छोटी-सी ढाणी के पास बने श्मशान में, जहाँ रात के अँधेरे में गौरांबर शंभूसिंह के साथ निकल कर आया था। वही बरगद का बड़ा-सा पेड़, जिसके करीब आते ही, शंभूसिंह साइकिल से उतर गये थे और वहाँ से दोनों पैदल घर आये थे।
इस सारी बात में शंभूसिंह का तुरूप का पत्ता यह था कि बड़ी माँ, यानी कि राव मनोहरसिंह की माँ भी अपने जीवन के आखिरी दिनों में शंभूसिंह के पास, उसके साथ रही। सगे बेटे की शोहरत उड़ कर उन तक आयी हो तो आयी हो, उनके पैर की जूती भी चलकर कभी मनोहर के महल-दो महलों में नहीं गयी। यही शभूसिंह की इंसानियत का सबसे बड़ा प्रमाण था और यही उनकी जिन्दगी की सबसे बड़ी मिल्कियत। अब शंभूसिंह यहाँ अपने खेतों के साथ, खलिहानों के साथ आराम से बसर कर रहे थे। छोटी-सी ढाणी में गिनती के दो या तीन घर ही पक्के थे जिनमें एक, और सबसे मजबूत शंभूसिंह का था। गाँव में गिनती के लोग थे जिनके खेत में ट्रेक्टर चलता था। शंभूसिंह उनमें से एक थे।
आँगन में खड़े ट्रेक्टर को कई दिन तक देखने के बाद गौरांबर ने उसे ध्यान से देखा था और तब उसने पाया था कि ट्रेक्टर काफी दिनों से अपनी जगह से हिला-डुला भी नहीं है। उस पर धूल-मिट्टी की डीजल में मिली परत जमी हुई थी और पहियों के नीचे हल्की-सी घास-फूस तक उग आयी थी। और अब गौरांबर को यह भी पता चला कि जिद करके कभी ट्रेक्टर खरीदा गया था शंभूसिंह के बेटे के द्वारा, जो इसी पास के शहर में कॉलेज में पढ़ने जाया करता था। कुछ दिन बेटे पर बड़ा शौक रहा इस ट्रेक्टर का। वह कॉलेज से लौटने के बाद रोटी-पानी खाकर रोज शाम को इसे खेतों में हाँक ले जाता था। गाँव भर की गोड़ाई-बुवाई उसने ले रखी थी। पर चार-पाँच साल पहले लड़का फौज में गया और फिर न जाने वहाँ से ही क्या जुगाड़ बैठा कर परदेस चला गया। बाहर के किसी देश में उसे काम मिल गया था। फिर बस, छठे-छमाहे आती उसकी चिट्ठी, जिससे ट्रेक्टर के पहियों के नीचे जमी घास तो नहीं साफ हो सकती थी। लड़के ने शादी कर ली थी और अब उसकी घर में आमदरफ्त न के बराबर ही थी।
कॉलेज के बाद जिन दिनों लड़का यहाँ रहा, शंभूसिंह ने बहुत कोशिश की कि लड़का यहीं रह जाये। इधर-उधर डैने फैलाने की कोशिश न करे। पर यहाँ दो साल तक काम की तलाश ने उसे बहुत थका दिया। निराशा की हद तक उकता गया था उनका अभिमन्यु।
उस समय यदि ये राव मनोहरसिंह, बड़े रावसाहब चाहते तो अभिमन्यु, उनका बेटा वहीं रह सकता था। यहाँ माँ-बाप के पास रहकर घर-द्वार सम्भाल सकता था। मगर रावसाहब को अपने लोगों की ओर देखने की फुरसत न मिली। सारे बाहर के थे वे, केवल अपने भतीजे को कैसे देखते!
शंभूसिंह ने बेटे की निराशा के उन दिनों में एक बार खुद जाकर रावसाहब से विनती की थी, मगर परकोटे के प्रोजेक्ट की बेशुमार भर्ती में अभिमन्यु के हिस्से कहीं कुछ न आया। और जिस जगह के लिए अभिमन्यु सोचता था कि उसके ताऊजी अवश्य ही उसे मौका देंगे, वो बाद में नरेशभान के हिस्से आयी।
नरेशभान का नाम शंभूसिंह के मुँह से सुनकर गौरांबर के शरीर में सिर से पाँव तक कड़वाहट भर गयी। और इस कड़वाहट को अनुभवी शंभूसिंह की खेली-खायी आँखों ने न भाँपा हो, ये बात भी नहीं थी।
शंभूसिंह वाटरवर्क्स के दफ्तर में मुलाजिम थे। वहाँ कई साल क्लर्क रहने के बाद अब सीनियर एकाउन्टेंट थे। सरकारी महकमे में होने के कारण आसपास की सरकारी गतिविधियों के अच्छे जानकार थे। और परकोटे-महल के पास झील और बगीचे का जो काम चल रहा था, वाटरवर्क्स के दफ्तर में उसके बाबत रोज का आने-जाने का सम्बन्ध था। चाहे नरेशभान हो, चाहे कोई और। कहने को तो नरेशभान भी शंभूसिंह को काकासाहब कहता था, क्योंकि रावले के बहुत सारे कर्मचारियों की तरह उसे भी यह बात पता थी कि शंभूसिंह रावसाहब के भाई हैं। वह आदमी ठेकेदारी के काम से जुड़ा हुआ था और साथ ही इतने फैले हुए काम को देख रहा था कि सरकारी महकमों में सम्बन्ध-पहचान बनाये बिना चलना उसके लिए सम्भव ही न था।
शंभूसिंह के मन में गहरी फाँस थी कि जिस बंजर जमीन की पथरीली खाई को खोद कर हरियाली और झील का सपना सजाया जा रहा है वहाँ उनके इकलौते बेटे की हसरत और दो वक्त की रोटी का ठौर-ठिकाना सिरे न चढ़ सका। बेटा गाँव से भटक कर अब देश से ही छिटक गया था। दुनिया भर के कामगार, मुलाजिम, हाकिम और मजदूर जहाँ रोज आ-आकर खप रहे थे, वहीं इसी मिट्टी का जाया, इसी में पला-बढ़ा और इसी शहर का पढ़ा, उनका बेटा रोजगार न पा सका था। और सबसे बड़ी बात ये कि यहाँ ठिकाने किसी लॉटरी या सरकारी जुये से नहीं बँट रहे थे बल्कि ये, घर की खेती थी। रावसाहब यहाँ के बादशाह थे। ताज के भी, और बेताज भी। उनके बड़े भाई।
रोज शाम को दफ्तर से निकलने के बाद साइकिल से इसी सारे तामझाम को पार करके घर जाने के लिए निकलते थे और रोज कलेजे पर बर्छियाँ चलती थीं। किसी जमाने में उनका गाँव इस शहर से चालीस किलोमीटर के फासले से हुआ करता था। मगर पिछले कई सालों से शहर ने सुरसा की जीभ की भाँति खेतों-खलिहानों पर फैलना और उन्हें निगलना शुरू कर दिया था, इसलिये बाईस-पच्चीस किलोमीटर का फासला रह गया था उनके गाँव का। इस इलाके के चप्पे-चप्पे से वाकिफ थे शंभूसिंह। उनकी भी पहचान और दबदबे का दायरा कई छोटा न था, मगर अब अपने-आपको उजड़ा हुआ ही मानते थे। बेटे के चले जाने के बाद से तो यह शहर उनकी वीरान सियाही को और झुलसाता ही था।
और यही शंभूसिंह जवान लड़कों-सी चपलता से आधी रात जाकर गौरांबर को पुलिस लॉकअप से छुड़ा लाये। थाने में भी शंभूसिंह को सब जानते थे। थानेदार साहब से भी खासी राम-राम, श्याम-श्याम थी। कई बार यहाँ थानेदार साहब के पास बैठकर पान-जर्दा खाकर जा चुके थे। एक-एक मनक से, एक-एक जगह से वाकिफ थे। निकाल ले गये गौरांबर को चोरी-छिपे, इस तरह कि कोई सोच भी न सके।
शंभूसिंह को खबर थी कि रावसाहब ने पेट्रोल पम्प के पास, जरा आगे वाली सड़क पर रेस्ट हाउस बनाने के लिए दो खेत लिए हैं। वह खेत शंभूसिंह के एक मिलने-जुलने वाले आदमी के ही थे। उस पर एक मकान भी बना हुआ था, जिसे ठीक-ठाक करवा कर रावसाहब ने कामचलाऊ व्यवस्था करवायी थी। इस रेस्ट हाउस पर रखने के लिए गौरांबर को नरेशभान जब लाया था, शंभूसिंह को सब पता था। कभी शंभूसिंह के मन में आखिरी कोशिश के रूप में यह सपना भी तैरा था कि फिलहाल यहाँ रेस्ट हाउस का ही कामकाज देखने के लिए रावसाहब इशारा कर दें तो वह बेटे अभिमन्यु को वापस अपने देश लाने की आखिरी कोशिश करें। पर यह जिम्मेदारी भी नरेशभान के पास ही आ गयी थी। और उसने सहायक के तौर पर गौरांबर को वहाँ ले जाकर रख दिया था। रावसाहब का विश्वासपात्र होने और उनकी गड्डी में नरेशभान के कई पत्ते होने के कारण यह सारा काम रावसाहब ने नरेशभान पर ही छोड़ दिया था।
हतप्रभ बैठे गौरांबर को अनोखा रोमांच हो आया कि सामने बैठे बुजुर्ग उसे कोठी पर तैनाती के दिन से ही जानते थे और कोठी की पार्टियों, हलचलों की सब जानकारी उनके किसी मित्र द्वारा शंभूसिंह के पास जब-तब पहुँचती रहती थी। और वे सब गतिविधियों से वाकिफ थे।
गौरांबर को इस नयी जगह बिलकुल अपने माँ-बाप की शक्ल में शंभूसिंह और उनकी पत्नी रेशम देवी को पाकर अपने नसीब का सारा सियाहपन भुलाने का मौका मिल गया था। केवल यही एक हिदायत थी कि गौरांबर किसी भी समय घर से बाहर न जाये, बाकी हर तरफ से उसकी सुख-सुविधा का ख्याल रखा जा रहा था। घर काफी बड़ा और खुला-खुला होने से गौरांबर को हाथ-पैर चलाने और काम में लगे रहने को कुछ-न-कुछ मिल जाता था।
शंभूसिंह का ट्रेक्टर गौरांबर ने दो दिन की मेहनत से पुर्जा-पुर्जा चमका डाला था। शंभूसिंह की पुरानी धोतियों को घुटने तक मोड़े गौरांबर दिन भर घर में किसी-न-किसी काम में लगा रहता। आने के पहले ही दिन आँगन में जब लकड़ी का बड़ा पट्टा रखकर बदन मल-मलकर नहाया था, तो रेशम देवी को कॉलेज के दिनों का अभिमन्यु याद आ गया था। नहाने के बाद उसी के पुराने कुर्ते, कमीजें, जाँघिये और रूमाल के ढेर-के-ढेर गौरांबर के सामने ला पटके थे उन्होंने। गौरांबर और शंभूसिंह की निगाह बचाकर रसोई में रोयी थी रेशम देवी उस दिन।
घर की सफाई, भीतर की दीवारों पर चढ़-चढ़ कर उनके जाले निकालना, गायों का चारा-पानी कर देना, इन कामों में अपने को आपादमस्तक डुबा छोड़ता था वहाँ गौरांबर। उसके सिर की चोट अब अच्छी हो चली थी। वहाँ पर केवल खुरण्ड जमा रह गया था। एक दिन जब शंभूसिंह ने उसे अपना रेजर और दाढ़ी बनाने का दूसरा सामान दिया तो कई दिनों की अपनी दाढ़ी के साथ-साथ हाथ से ही काट-छाँट कर बालों को भी हल्का कर लिया था उसने। माँ समान रेशम देवी की पानी भरने व घर के दूसरे कामों में भी मदद करता था गौरांबर।
शंभूसिंह रोजाना सुबह नौ बजे घर से निकल जाते और शाम को सूरज ढलने के समय तक ही लौटते। पर रेशम देवी को दिन भर बेटे की भाँति नजर के सामने रहने के लिए कोई मिल गया था। कभी-कभी तो वह ऐसी खो जाती मानो उसका अपना अभिमन्यु ही अपने पुराने दिन वापस लेकर लौट आया हो। रात को शंभूसिंह के साथ गौरांबर की खूब बातें होतीं। आठ-नौ बजे तक खाने-पीने से निबट कर दोनों घर की ऊँची-सी छत पर जा चढ़ते, जहाँ शाम को बाल्टी से पानी लेजा-लेजाकर रोजाना गौरांबर छिड़काव किया करता। शंभूसिंह के शाम को आते ही उनके नहाने-धोने का पानी पास के कुएँ से निकालकर रखना नहीं भूलता गौरांबर।
शंभूसिंह ने बहुत परिचय के, घर में चले आने वाले लोगों से गौरांबर का परिचय अभिमन्यु के पुराने दोस्त के रूप में करा दिया था ताकि लोग-बाग ज्यादा पूछताछ न करें। उन्हें बता दिया गया था कि गौरांबर कामकाज के सिलसिले में यहाँ आया था और कुछ रोज यहीं रहेगा।
रेशम देवी का हाल तो अब ये हो गया था कि ये लड़का केवल कुछ दिन यहाँ रहेगा, कहने भर से उनकी छाती हुलस उठती थी। उनका बस चलता तो वह सारे गाँव से यही कहतीं कि यह लड़का हमने गोद लिया है और अब ये सारी जिन्दगी यहीं रहेगा, हमारे साथ।
शंभूसिंह से ही गौरांबर को यह भी पता चला कि जब रात कोठी में नरेशभान के साथ मजदूर बस्ती की ओर सरस्वती को आते हुए पड़ोस के उसी आदमी ने देखा जो रावसाहब को खेत बेच देने के बाद वहीं जरा दूर पर अपना एक कमरा बना कर रह रहा था और शंभूसिंह के दफ्तर के पास ही कहीं काम पर लगा हुआ था।
सुबह जब कोठी से गौरांबर के चले जाने की खबर कुछ लोगों को लगी तो बात शंभूसिंह के पास भी आयी। नरेशभान भी अगले ही दिन से तीन-चार दिन के लिए कहीं बाहर चला गया। उसे उन दिनों किसी ने न देखा। कोठी के करीब रहने वाले आदमी ने क्योंकि उस रात सरस्वती को पहचान लिया था, शंभूसिंह और वह आदमी अगले दिन पोखरे के पास साइट पर जाकर सरस्वती से मिले। और संयोग ऐसा कि सरस्वती भी दो-तीन दिन काम पर न आयी। उसका मरद साइट पर काम करने आता था। इसलिए उसका घर पता करके सरस्वती से भी एकान्त में सुभीते से सारी बात हो गयी। और उसके मरद तथा बच्चे की सौगन्ध देने और उसे नरेशभान के साथ रात को देख लिए जाने की दुहाई देकर शंभूसिंह ने सब कुछ पूछा और उसने थोड़ी ना-नुकर के बाद रोते हुए सारी सच्चाई बता दी। उसने गौरांबर के लिए बहुत ही अच्छे शब्दों का प्रयोग किया और बताया कि हमारे कर्मों से वो देवता जैसा आदमी छिपा हुआ फिर रहा है।
दो-तीन दिन किसी की कोई खोज-खबर नहीं मिली, क्योंकि स्वयं नरेशभान शहर से बाहर चला गया था, गौरांबर की फरारी का कोई अनुमान न लगा सका। रावसाहब के आदमियों ने एकाधबार पीछे से कोठी का दरवाजा दूसरी चाबी से खोला भी तो गौरांबर की लापरवाही के लिए उलाहना देने और उस पर खीजने से आगे बात नहीं बढ़ी। सब यही समझे कि गौरांबर या तो नरेशभान के साथ कहीं गया है या उसकी सहमति से कहीं गया है। बात परदों में रही।
इस बीच नरेशभान की मोटरसाइकिल और रुपये चोरी जाने का तहलका मचा और तभी उसके आ जाने के बाद गौरांबर की ढूँढ़ भी मची। पुलिस ने वहाँ रात्रि की गश्त बढ़ा दी और थाने पर सरगर्मियाँ बढ़ गयीं। खुद शंभूसिंह भी शाम को वहाँ से लौटते समय एकाध बार मुंशी से पूछताछ कर गये थे। पर चोरी का कोई सुराग नहीं मिला।
बाद में पेट्रोल पम्प पर तैनात रात्रि ड्यूटी के हवलदार ने गश्त लगाते समय गौरांबर को कोठी में चोरी-छिपे घुसने की कोशिश करते हुए पकड़ा और पहुँच गया गौरांबर पुलिस लॉकअप में।
''लेकिन दादा, नरेशभान की मोटरसाइकिल और रुपयों का थैला अब तक नहीं मिला है। ये काम किसका हो सकता है?'' गौरांबर ने बड़ी मासूमियत से शंभूसिंह से पूछा जिन्हें अब वह दादा कहकर ही सम्बोधित करने लगा था।
''यह सड़क काफी चलती हुई है। रात-दिन लम्बी दूरी के सैकड़ों ट्रक वहाँ से निकलते हैं। मुझे तो लगता है, किसी को रुपये के बारे में कहीं ढाबे या दारू के अड्डे पर भनक मिल गयी होगी, तो मौका देखकर किसी ट्रक में ही डाल ले गया कोई।''
गौरांबर हैरत से शंभूसिंह की ओर देखता रहा। उसे यह परेशानी अब भी सताती थी कि उसे रुपयों का चोर भी समझा जा रहा है। यदि कहीं से नरेशभान के रुपयों का पता चल जाता तो कम-से-कम गौरांबर सिर उठा कर चलने के काबिल तो हो जाता। उसे नरेशभान के रुपये मिलने में कतई दिलचस्पी नहीं थी। दिलचस्पी थी तो अपने कलंक के मिटने में।
''मुझे ये भी पता चल गया था कि थाने में तुझे बहुत तंग कर रहे हैं ये लोग।''
''कैसे?'' गौरांबर ने आश्चर्य से पूछा।
''चायवाला वो लड़का बंसी है न, वह भी मुझे बहुत अच्छी तरह पहचानता है। पहले वह वाटरवर्क्स के ऑफिस की कैंटीन में ही काम करता था। आते-जाते पान की दुकान पर साइकिल रोककर मैं जर्दा खा लेता था, तो उस बीच उससे भी एक बार बात हो गयी थी। और तुझे सच बताऊँ, उसने यह भी सुन लिया था कि थाने के एक सिपाही ने नरेशभान से लेन-देन करके रात को तुझे तंग करने की ठान ली थी। नरेशभान ने उस रात खाना थाने में ही खाया था और बराबर वाले ढाबे से खाना सबके लिए वहीं मँगवाया था। नशा-पानी भी किया था। नरेशभान के साथ उसके जो दो आदमी उस रात थे, उनमें एक मेरा बहुत खास मिलने वाला भी है। रात को मैं हमारे इंजीनियर साहब के बंगले पर किसी काम से गया था, इसी से लौटने में मुझे देर हो गयी थी। मेरी साइकिल मेेरे दफ्तर में ही खड़ी थी। मैं दफ्तर में ही साइकिल छोड़कर साहब के घर चला गया था कि रात को लौटते समय ले लूँगा। साहब जीप में बैठा ले गये। मैं भी सब भूल-भाल कर काम के पीछे था। रात को खाना भी साहब के यहाँ खा लिया। कोई फाइल थी जो बातें करते-देखते दस-ग्यारह बज गये। दफ्तर में रात को ताला लगाकर खड़ी की अपनी साइकिल लेने पहुँचा तो साइकिल स्टैण्ड के पास पैदल आता मेरा वो जानकार आदमी मिल गया, जो नरेशभान के साथ थाने जाते समय भी था। उसने क्या पता नशे की झोंक में, या इंसानियत के नशे में मुझे पान की दुकान पर खड़े-खड़े सारी दास्तान सुना डाली और बताया कि ये लोग बड़ा खतरनाक खेल खेल रहे हैं। उस लड़के की जान के पीछे पड़े हैं। आज रात एक सिपाही सब प्लानिंग करके गया है। सुबह-सुबह तीन-चार बजे लड़के को पिछवाड़े निकाल ले जाने की बातें कर रहे हैं। क्या जाने, साले क्या करेंगे। या तो उसे तंग कर-कराके उससे जबरन उगलवाने की कोशिश करेंगे, या फिर राम जाने.. सालों का भरोसा थोड़े ही है।''
खेतों में ले जाकर काट के फेंक दें, कौन पकड़ने वाला है। साला हरामी, वो एक आदमी तो मुंशी को कह कर गया है कि सुबह मैं आ जाऊँगा जल्दी। चाबी भी साले ने हमारे सामने ही एक अखबार के कागज में लपेट कर कोने की मेज की दराज में डाल ली थी। महाबदमाश हैं साले.. बस बेटा! ये ही समझ, तेरे-मेरे पिछले जनम के कुछ हिसाब-किताब बाकी थे कि मेरा माथा घूम गया। मैंने कहा, शरीफ लड़का रहने-कमाने आ गया, उसकी ये दुर्गति। बस.. फिर तो जो हुआ तेरे सामने ही है।
गौरांबर रात को देर तक दादा की ये कहानी ऐसे सुनता रहा जैसे किसी जादूगर के सामने हिपनॉटाइज करके ला बैठाया गया हो। और उसकी आँखें अविरल आँसुओं से बहने लगीं। छत पर आराम से लेटा हुआ यंत्रचालित-सा उठा और चलकर शंभूसिंह के पायँताने की ओर जाने लगा जो बगल में ही अपने बिस्तर पर लेटे हुए थे।
''क्या हुआ तुझे..?''
''कुछ नहीं दादा!'' कहता हुआ गौरांबर शंभूसिंह के पैरों के पास बैठ गया और उन्हें छू-छूकर माथे से लगाने लगा।
''अरे, ये क्या कर रहा है बेटा.. उठ.. उठ.. ये क्या..'' कहकर शंभूसिंह भी झटके से उठ गये और पैरों की ओर बैठे गौरांबर को कन्धे से पकड़कर गले से लगा लिया। गौरांबर अब जोर-जोर से हिचकियाँ ले-लेकर रोने लगा। और शंभूसिंह उसे गले से लगाये-लगाये चुपचाप उसकी पीठ सहलाते रहे। काफी देर बाद जाकर सहज हो पाया गौरांबर।
दूध के दो गिलास हाथों में लिए सीढ़ियों से चढ़ती हुई रेशम देवी छत पर आयीं तो सामने का दृश्य देखकर हक्की-बक्की रह गयीं। शंभूसिंह बिस्तर पर बैठे थे और गौरांबर उनके गले से लगा हुआ चिपटा हुआ था। शंभूसिंह उसकी पीठ पर स्नेह से हाथ फेर रहे थे।
रेशम देवी की आँखों से जरा-सा खारा पानी दूध के गिलास में टपक गया। ठीक ऐसी ही तो रात थी, जब अभिमन्यु रावसाहब से काम के लिए मिलकर आया था और उन्होंने इन्कार कर दिया था। शाम से देर रात तक मुँह फुलाकर बैठा रहा था और खाना भी नहीं खाया था उसने। और ठीक इसी तरह रात को अपने पिता के गले लगकर रोया था। एक-दूसरे को दिलासा-सा देते बैठे रहे थे बाप-बेटे।
दूध के गिलास दोनों को पकड़ा कर पल भर भी ठहरी नहीं रेशम देवी। उन्हें भी तो अपने रुलाई के वेग पर काबू पाना था। नाल में उतरते ही हिचकियाँ छूट पड़ी थीं उनकी। आँचल से मुँह पोंछती नीचे पहुँची थीं और देर तक अभिमन्यु के कमरे में बैठी रही थीं।
गौरांबर का बस चलता तो आसमान पर चमकते चन्द्रमा से कह देता कि मेरे गाँव पहुँच कर मेरे माँ-बाप को और परदेस में झाँक कर इस बूढ़े के जवान बेटे को ताक कर आ, और हमें कल फिर मिलना। पर गौरांबर का बस कैसे चलता? चाँद तो बादल के एक छोटे से टुकड़े के साथ खेलने में मस्त था। सो गया थोड़ी ही देर में गौरांबर, और सो गये शंभूसिंह भी। सो गयीं नीचे एक उमस भरे कमरे में रेशम देवी भी। सबको सुबह जागना भी था।
अगले दिन दोपहर को नहा-धोकर जब गौरांबर रोटी खाने बैठा तो पतली-सी नली से चूल्हे को फूँक देती रेशम देवी उड़ती राख के बीच से आँखें मिचमिचाती हुई पूछ बैठीं, ''क्या कह रहे थे रात को दादा तुझे, बेटा?''
गौरांबर ने चौंक कर देखा। एक पल को संकोच से दोहरा हो गया, फिर धीरे-से बोला, ''मुझे कैसे लाये, क्यों लाये, बता रहे थे।'' गौरांबर के मुँह से न जाने कैसे निकला।
''बेटा, ये बहुत टूटे हुए हैं। अब कोई चोट न झेलेंगे। तू ही ध्यान रखना अब।'' रोटी फुलाते हुए रेशम देवी ने कहा।
''माँजी, ये जनम तो ये जनम, अगर अगले जनम कागज पर लिखने की कोई रीत हो, तो दादा के नाम कर जाऊँगा मैं, लिखकर।'' गौरांबर के मुँह से न जाने कैसे निकला।
रेशम देवी ने रोटी गौरांबर की थाली में डाल दी और आटे की छोटी-सी लोई हथेली में लेकर ऐसे गोलाने लगीं, ऐसे गोलाने लगीं जैसे कोई गोल वसुन्धरा बन जायेगी, और किसी छोर पर दिख जायेगा अभिमन्यु।
गौरांबर लोटा उठाकर पानी पीने लगा। रेशम देवी आँसू पीने लगीं।
कई दिन तक गाँव में कोई नहीं जान पाया गौरांबर के गाँव में होने की बात। दिन निकलते रहे, सारे आराम और तसल्ली के बीच गौरांबर को इस बात का धड़का लगा ही रहता कि पुलिस लॉकअप से भागने की बात को आखिर कब तक पचाया जा सकेगा। रोज शाम को शंभूसिंह की वापसी के साथ ही गौरांबर के हृदय में घटनाक्रम का अगला खुला वर्क देखने की जिज्ञासा बलवती होती मगर शंभूसिंह रोज की तरह आते ही दुनियादारी की बातों में ही रम जाते। अपनी ओर से बात चलाकर गौरांबर कभी कुछ न पूछता।
शंभूसिंह ने ही एक दिन गौरांबर को बताया था कि रेंगने वाले जानवरों की जान केवल उनके कलेजे में ही नहीं होती। उनके अंग-अंग में होती है। उनका कोई अंग काटकर फेंक दो तो वह भी अपनी ताकत-भर छटपटाता है, तब कहीं जाकर शान्त होता है।
और हमारे देश के राजे-रजवाड़े भी रेंगने वाले जानवरों की ही भाँति थे। इन्हें खत्म नहीं किया जा सकता था। इन्हें अंग-अंग काटा जाता था और फिर हर अंग अपनी जान छटपटाता था। लोग बहुत ऊब गये थे छटपटाहट से। आखिर कोई गिलगिला जन्तु धरती पर छटपटायेगा तो धरती को भी एक घिनौनी पीड़ा तो होगी ही। लोग चाहने लगे थे कि इस सबसे निजात हो जाये। पर ऐसी बातों से निजात कोई एक पीढ़ी के सोचते-करते तो होती नहीं है। पीढ़ियाँ गुजर गयीं। किसी परकोटे की पथरीली दीवारों के बीच पैदा होने वाले आदमी, आदमी के मन-आँगन की फुलवारी की पुलक कहाँ समझते थे। वे तो मकबरों में ही पैदा होते थे। इसी से तो लोग मन-ही-मन उन्हें दुतकारने लगे थे।
तभी, जब आम लोगों ने सियासती बातों में दखल देकर, रोजमर्रा की शासनवृत्ति से जंग छेड़ी तो उसे कोने-कोने में प्रतिसाद मिला। लोग सोचने लगे, राजवृत्ति से जनवृत्ति बेहतर है और सारे काम मेल-मिलाप से, मिल-बैठकर होने चाहिये। रेंगने वाले जानवरों के दाँत तोड़े गये। पूँछेंं उखाड़ी गयीं। विष झुलसाये गये और जनतंत्र आ गया।
अपनी ही रौ में, आसमान को तकते हुए शंभूसिंह जब कहते चले जाते थे तो गौरांबर ध्यान से सुनता अवश्य था, पर उसे बाद तक पता न चलता कि जनतंत्र कैसे आ गया।
गौरांबर की इच्छा थी कि आँगन में बेकार पड़ा ट्रेक्टर वह चलाना सीख ले और किसी तरह ये काम आये। मगर शंभूसिंह की ओर से गाँव में बाहर न निकलने की पाबन्दी अब तक उस पर थी। गौरांबर चमचमाते ट्रेक्टर को बड़ी हसरत से देखा करता था। कच्चे आँगन के चारों ओर उसने जमीन खोद-खोदकर क्यारियाँ बना डाली थीं और उनमें छोटे-छोटे अंकुर भी फूटने लगे थे। रेशम देवी को भी बहुत भाता था यह सब।
घर बैठा-बैठा गौरांबर जब कभी उकता जाता था तो वह अभिमन्यु के कमरे में रखी हुई उसके कॉलेज के समय की किताबें उठा-उठाकर पढ़ने लगता। बहुत सारा पढ़ डाला था उसने। एक दिन दोपहर में बैठे-बैठे अचानक गौरांबर को याद आया कि जब वह पुलिस थाने में था तो अखबार का एक रिपोर्टर आकर उससे सारी बात करके गया था। गौरांबर को कुछ पता न चला था कि उस रिपोर्टर ने बाद में क्या किया और अखबार में गौरांबर की सच्चाई को भी जगह मिली अथवा नहीं।
बाद में इस बात का जिक्र उसने एक दिन शंभूसिंह से भी किया। शंभूसिंह उसकी बात सुनकर किसी गहरे सोच में डूब गये थे।
और बाद में एक दिन कहीं से ढूँढ़ कर उस अखबार की कतरन भी तलाश लाये थे, जिसमें रावसाहब के रेस्ट हाउस में जिस्मफरोशी होने की खबर का छोटा-सा खण्डन छपा हुआ था। और कुछ न था, केवल यह छपा था कि जिस्मफरोशी की बात बेबुनियाद पायी गयी है। उसमें गौरांबर, नरेशभान या किसी और का भी कोई जिक्र नहीं था।
''हरामियों ने मामला रफा-दफा कर दिया होगा और बात खत्म कर दी होगी।'' शंभूसिंह ने कहा। गलत आदमी को बंद करके रखने में उन्हें भी तो खतरा रहता ही है।
''लेकिन..'' और गौरांबर के असमंजस को बोलने से पहले ही शंभूसिंह ताड़ गये। बोले, ''हाँ, तुम्हारी शंका सही है। वहाँ से भागकर आने की गलती तो हमने की है, इसलिए खतरा टला नहीं है।''
''लेकिन मैं..'' थोड़ा संकोच से गौरांबर ने कहा, ''मैं कोई काम करना चाहता हूँ दादा! बैठे-बैठे मेरा मन नहीं लगता।''
शंभूसिंह किसी सोच में डूब गये। फिर बोले, ''दरअसल बात ये है कि गाँव बहुत छोटा है। यहाँ किसी के पास कोई काम नहीं है। ज्यादातर आदमी लोग खेतों पर चले जाते हैं और औरतें घर के काम में लगी रहती हैं।''
''मैं वापस चला जाऊँ दादा?''
''कहाँ?''
''शहर में, कहीं काम पर।''
''क्यों, क्या यहाँ हमारे पास नहीं रहेगा तू?''
''ये बात नहीं है दादा! यहाँ आप लोगों के सिवा मेरा और कौन है। मगर कुछ-न-कुद काम तो करना ही होगा। ऐसे कब तक चल सकता है!''
ये सारी बातचीत रेशम देवी को भी भायी नहीं थी। पर किया भी नहीं जा सकता था कुछ। ये सवाल तो खुद उनके बेटे ने भी कभी उठाया था और अपनी छोटी-सी अलग दुनिया तलाशने ऐसे ही एक दिन वह निकल गया था। फिर गौरांबर तो पराया था। उससे किसी भी तरह का कोई सम्बन्ध नहीं था। क्या कह सकता था कोई भी। लड़के से अपराध न भी हुआ हो, पुलिस की नजरों में तो गुनहगार था ही। गाँव में रोके रखने पर भी कभी कोई विपत्ति आ सकती थी।
''लेकिन जायेगा कहाँ तू..!''
शंभूसिंह एक बार फिर गम्भीर हो गये। उनके चेहरे की कठोर रेखाओं से लग रहा था कि उनके मन में कोई बात है। केवल और केवल यही बात नहीं थी कि दया-ममता या बेटे की यादवश गौरांबर को खतरे से निकाल लाये थे। मन-ही-मन कुछ और भी चल रहा था, जिसे गौरांबर से कहा नहीं जा सकता था।
दादा के असमंजस को गौरांबर ने अपने प्रति उनके लगाव के ही रूप में देखा और वह इससे ज्यादा कुछ भी भाँप नहीं सका। अन्दर-ही-अन्दर शंभूसिंह भी किसी आग में जल रहे हैं, ये गौरांबर कहाँ भाँप सका था। इतने दिन तक उनके साथ बैठते-उठते खाते रहते भी जिस बात की भनक भी शंभूसिंह ने गौरांबर को लगने न दी थी, वह भला इतनी आसानी से कैसे गौरांबर को वे बता देते। और अभी गौरांबर को उन्होंने दुलराया-सहलाया ही था, उसका जिगर कहाँ टटोला था। पराये लड़के को अपनी ज्वाला की लपटों से खेलने के लिए भेजने से पहले उसकी भी थाह ली जानी भी तो जरूरी थी।
लेकिन अभी किसी भी तरह गौरांबर को कुछ बताना उन्होंने उचित नहीं समझा। वे ये भी जानते थे कि अब लड़के का जी यहाँ से उचाट हो चुका था और वह किसी भी दिन, किसी भी तरह से यहाँ से पलायन कर सकता है। फिर भी उन्होंने गौरांबर को एकाध दिन ठहरने की सलाह दी और यह कहा कि वे स्वयं उसके लिए शहर में कहीं कोई काम तलाश करेंगे।
गौरांबर को भला क्या आपत्ति हो सकती थी। किसी भी कशमकश का आभास तक पाये बिना उसने शंभूसिंह की बातों को सिर-माथे पर लिया। एक दो दिन फिर सब सामान्य रहा।
लेकिन इस बात के होने के अगले ही दिन गौरांबर ने घर में, माहौल में एक बदलाव-सा देखा। शंभूसिंह तो रोजाना की भाँति खाना खाकर सुबह आठ-नौ बजे घर से निकल गये। परन्तु गौरांबर को घर में सन्नाटा-सा महसूस होने लगा। उस दिन कुएँ से पानी लेकर जब वह नहा-धोकर कमरे में आया तो रेशम देवी को पूजा में तल्लीन पाया। वह रोज की तरह उसके नहाते ही गरम रोटी परोसने के लिए रसोई में चूल्हे के पास मुस्तैद नहीं बैठी थीं। शायद कुछ त्यौहार-व्यौहार हो, यह सोचकर गौरांबर अकेला बैठा रहा। और कुछ देर बाद रेशम देवी की आवाज आयी, ''गौरांबर, रसोई में थाली ढकी है, लेकर खा ले।''
गौरांबर को आश्चर्य-सा हुआ। वह धीरे-धीरे उठ कर रसोई में गया और एक थाली से ढक कर रखी गयी दूसरी थाली उसने उठा ली। बाजरे की रोटी, अरबी की सब्जी और उड़द की दाल थी। गौरांबर चुपचाप खाने बैठ गया।
रेशम देवी बिना कुछ बोले पानी का लोटा भरकर उसके पास रख गयीं और फिर कमरे में जा बैठीं।
जैसे-तैसे गौरांबर ने खाना खाया और कुएँ के पास रखी बाल्टी से पानी लेकर हाथ धोये। पलटकर वह अभिमन्यु के ही कमरे में आ बैठा, जहाँ दिन के समय अक्सर वह रहा करता था। उसने दीवार का सहारा लेकर पैर फैला लिए और रेशम देवी के आज के व्यवहार के बारे में सोचने लगा। वैसे इतना अनुमान वह सहज ही लगा पा रहा था कि हो न हो, यह सब गौरांबर के जाने के लिए कहने से ही हुआ है। दोनों लाचार माँ-बाप अपने निपट अकेलेपन में अपने बेटे अभिमन्यु की तस्वीर उसमें देखने लगे हैं।
गौरांबर का खाट पर इस तरह बैठे-बैठे सोचना एकाएक खण्डित हो गया जब उसने देखा कि रेशम देवी उसके सामने खड़ी हैं। गौरांबर फौरन उठकर सीधा बैठ गया। रेशम देवी उसे गहरी निगाह से देख रही थीं। आज से पहले कभी गौरांबर ने उन्हें इस तरह एकटक देखते नहीं पाया था। वह घबरा-सा गया।
''तो तूने जाने का इरादा कर लिया है!'' रेशम देवी बोलीं।
''माँजी, इरादा करने जैसी तो कोई बात नहीं है। मगर कुछ-न-कुछ काम तो करना ही होगा।''
''तुझे काम की क्या परवाह है, यहाँ रोटी की क्या कमी है!''
''ये बात नहीं है। मगर मुझे खाली बैठे-बैठे क्या शोभा देगा माँजी! दादा इस उमर में इतना काम करते हैं, इतनी भागदौड़ करते हैं और मैं यहाँ बैठा-बैठा आराम से खाता रहूँ?''
''दादा की उमर की बात मत कर।'' रेशम देवी काफी सख्त और खुरदरी आवाज में बोलीं। गौरांबर उनके स्वर के इस आरोह पर हैरान रह गया। उसके मुँह से कोई आवाज नहीं निकली।
''दादा को अभी बूढ़ा नहीं होना है बेटा। वह बूढ़े नहीं होंगे।''
''क्या कह रही हैं माँ जी! बूढ़े क्यों नहीं होंगे? वे तो..'' आगे कुछ न बोल पाया वह।
रेशम देवी ने ही कहना जारी रखा, ''वो रात के अँधेरे में जान जोखिम में डालकर तुझे इसलिये नहीं लाये थे कि तू चार दिन मेहमान बनकर यहाँ रहे और फिर अपने रास्ते चला जाये।''
''फिर किसलिये लाये थे माँजी..'' गौरांबर को किसी रहस्य के उजागर होने की आशा-सी हुई।
''तू उस मुंशी फूलसिंह को जानता नहीं है। उसने पैदा होने के बाद से इतना पानी नहीं पिया जितनी दारू पी है। वो मुंशी है, पर सात कोस पार जाकर कभी उसकी हवेली देख, महल-सी है। उस रात ये नहीं जाते तो वह तुझे जान से मार डालता। सुबह तेरी हड्डियाँ कुत्ते झिंझोड़ते हुए मिलते और कहीं किसी के चेहरे पर शिकन तक न आती। उसने नरेशभान से बहुत पैसा लिया था तुझे ठिकाने लगाने का।''
''लेकिन.. पर.. आप ये सब..'' गौरांबर के हलक से शब्द नहीं फूट रहे थे। उसे यह भी समझ में नहीं आ रहा था कि रेशम देवी ये सब कैसे जानती हैं। उसकी स्मृति में पुलिस थाने की कोठरी का वह दृश्य कौंध गया जब बूटों की खटखट के साथ ही दारोगा-सा दिखने वाला वह भयानक आदमी आया था। गौरांबर का हाथ स्वत: ही अपने सिर पर चला गया जहाँ अभी-अभी ठीक हुई चोट का केवल निशान बाकी था।
''ये तो मैं मानता हूँ कि दादा अवतार की तरह मुझे बचाने आये और यह अहसान..''
''अहसान की बात मत कर। दादा तुझे बचाने को नहीं आये।'' रेशम देवी ने लगभग चीखकर ही कहा। फिर गहरी साँस छोड़कर बोलीं—''कोई किसी को बचाने नहीं आता। सब अपने-अपने आपको बचाने आते हैं। दादा ने बहुत कुछ देखा है। इस उमर में, जब मरद घर पर पड़े-पड़े हाथ-पैरों पर जनानियों से तेल-मालिश करवाने लग जाते हैं, दादा का हाथ आज भी हथौड़े जैसे पड़ता है। वो चाहें तो आज चार अभिमन्यु खड़े कर दें।''
सामने खड़ी माँ समान, गौरवर्ण इस स्त्री के मुँह की बात से गौरांबर हतप्रभ रह गया। कहीं-न-कहीं, कुछ-न-कुछ ऐसा जरूर है जो इन दोनों शान्त-से दिखने वाले गृहस्थों को सुलगा रहा है। गौरांबर को दो दिन पहले तक जो घर किसी आम्र-कुँज में घिरी कुटिया-सा शान्त लगता था, वही एकाएक अंगारों की नींव पर खड़ी किसी भट्टी सदृश लगने लगा, जिसमें आदमी भुन रहे थे।
रेशम देवी गौरांबर के सामने पड़ी कुर्सी पर बैठ चुकी थीं और उनके चेहरे से लगता था कि वे आज दो टूक बात कहने के मूड में थीं। गौरांबर ने उन्हें हमेशा अपने काम में लगी रहने वाली एक ममतामयी घरेलू नारी के ही रूप में पाया था, जो सुबह के साथ ही मंद-मंद हवा के झोंके की तरह घर के हर कोने को सुवासित करती है। जो घर की गाय से लेकर आले में सजे ठाकुर जी तक का एकसार ध्यान रखती है। जिसे बछड़े की सानी से गौरांबर के नाश्ते तक की फिक्र रहती है।
पर आज गौरांबर साक्षात् देख रहा था कि हवा के इस झोंके-सी नारी में हवा के तेज झोंके की भाँति किसी अंगारे को भीषण दावानल बनाने की ललक भी है।
''अम्मा साहब और ठाकुर साहब, इनके माँ-बाप यदि इनके साथ न होते तो ये भी अब तक या तो कहीं चंबल के बीहड़ों में होते या फिर दूसरा जन्म लेकर तेरी तरह अन्याय से लड़ रहे होते।''
''मुझे पूरी बात बताइये माँ जी!'' गौरांबर ने विनम्रता से कहा।
रेशम देवी ने एक गहरी साँस छोड़ी और गौरांबर की जिज्ञासा को तौलने लगी। तभी दरवाजे पर जोर का खड़का हुआ, और माँ जी गौरांबर को वहीं बैठा छोड़कर बाहर आयीं।
आँगन पार करके रेशम देवी ने दरवाजा खोला तो साइकिल हाथ में लिए बूढ़ा-सा पोस्टमैन खड़ा था जो एक मैला, मुड़ा-तुड़ा सा लिफाफा रेशम देवी के हाथ में पकड़ा कर चला गया। लिफाफे की लिखावट बड़ी कँपकँपाकर लिखी गयी इबारत थी जो अब लिफाफे के काफी मैला हो जाने के कारण और भी धुँधली हो गयी थी। लिफाफा लेकर रेशम देवी फिर उसी कमरे में चली आयीं और वहीं कुरसी पर बैठकर उसे खोलकर पढ़ने लगीं।
बहुत लम्बी चिट्ठी थी। चार-पाँच बड़े कागज। उसी तरह धुँधली-धुँधली लिखावट में और कागजों का कहीं कोना खाली नहीं छोड़ा गया। रेशम देवी के चेहरे पर सैकड़ों रंग आये और गये, चिट्ठी को पढ़ने के दौरान। गौरांबर सामने बैठा-बैठा उधर से ध्यान हटाकर खिड़की की ओर देख रहा था, जिससे बकरियों का झुंड जाता हुआ दिखाई दे रहा था। एक लड़की हाथ में लकड़ी लिए अपने चुन्नी के पल्ले को कमर में खोसे हुए बकरियों के पीछे-पीछे जा रही थी। गौरांबर दूर तक उस दृश्य को निहारता रहा। बकरियाँ बहुत ही आज्ञाकारी की भाँति एक गोल में रहती थीं और जहाँ जिस तरफ से कोई बकरी अपनी गर्दन जरा उठा कर घेरे से अलग दिखने की कोशिश करती थी, लड़की उसी दिशा में कदम बढ़ा देती थी। लड़की रह-रहकर झुकती और अपनी पिण्डली खुजलाती थी।
रेशम देवी की तल्लीनता में जरा कमी आते देखकर गौरांबर ने पूछ लिया, ''क्या अभिमन्यु की चिट्ठी है?''
रेशम देवी ने एक पल को कागजों से नजर उठाकर गौरांबर की ओर देखा, फिर धीरे-से इन्कार में सिर हिला दिया। वह फिर पढ़ने में मगन हो गई। गौरांबर ने देखा, लड़की एक पेड़ के पास पहुँच कर उसकी जड़ के किसी उभरे हुए भाग पर बैठ गयी और अब जोर से दोनों हाथों से अपनी पिण्डलियों को खुजला रही थी। उसकी बकरियाँ अब छितरा कर इधर-उधर फैल गयी थीं। एक-दो तो छोटे-छोटे झाड़नुमा कीकर और खेजड़े के पेड़ों पर उठंगी हो गयी थीं।
चिट्ठी पढ़ने के बाद रेशम देवी ने सम्भालकर वह चिट्ठी फिर उसी लिफाफे में डालकर रख दी, और बोलीं—''तेरा मन यहाँ नहीं लग रहा था न, अब ठहर जा, कल दादा को कहीं बाहर जाना पड़ेगा। तुझे भी ले जायेंगे साथ। तेरा मन यहाँ अकेले में नहीं लग रहा, ये तो वह भी देख रहे थे, पर इसी चिट्ठी का इन्तजार था उन्हें।''
गौरांबर की समझ में यह गोरखधन्धा कुछ न आया, पर उसे इस बात की खुशी थी कि उसे कल यहाँ से बाहर निकलने को मिलेगा। बन्दिश महलों में भी हो, बन्दिश ही होती है।
गौरांबर उस बात की बाबत पूछना भी भूल गया, जो चिट्ठी आने से पहले रेशम देवी उसे बताने जा रही थीं। वह शाम का इन्तजार करने लगा। उसे शंभूसिंह के लौटने का इंतजार था। उसे कल की प्रतीक्षा थी।