राई के पर्वत
राई के पर्वत


आठ
आखेट महल और उसके आसपास का इलाका धीरे-धीरे ऐसा आकार लेता जा रहा था कि उसे पहचान पाना मुश्किल था। बरसों से वीरान पड़े इलाके की काया पलट हो गयी थी। इस क्षेत्र में जमीन बंजर व पथरीली होने से खेती के लायक भाग बहुत कम था। इसी से बड़ी-बड़ी हवेलियाँ व महल ही इस क्षेत्र की शोभा बढ़ा रहे थे। ऐतिहासिक महत्त्व के उस वीराने ने न जाने कौन-कौन से काल में किस-किस रियासत का वैभव भोगा था। बहुत-सी इमारतें खण्डहर हो जाने का एकमात्र कारण यही था कि इन हवेलियों और महलों के वारिस इनसे पलायन करके बड़े शहरों और आबाद बस्तियों में आ बसे थे। आजादी के बाद अंग्रेज जब देश को छोड़कर चले गये तो कुछ लोगों को देश बड़ा उजड़ा-उजड़ा वीरान-सा लगने लगा। ये वही लोग थे जो सम्पन्न थे, वैभवशाली थे और जिनकी माली हालत अंग्रेजों की गुलामी के दिनों से ही बेहतर थी, क्योंकि इन लोगों ने स्वतंत्रता-सेनानी या आजादी के दीवाने बनकर अंग्रेजों को कभी ललकारा नहीं था बल्कि रायबहादुर, दीवान या ताल्लुकेदार के ओहदे पाकर अंग्रेजों की मिजाज-पुर्सी ही की थी।
इन्हीं लोगों की बदौलत अंग्रेजों को इस देश में सत्तारथ खींचने में सहूलियत होती थी। इनका अंग्रेजों के साथ ही उठना-बैठना था। उन्हीं की भाँति बोलना-चालना और राज करना इनके अपने खून में भी घुल चुका था। आखेट महल और उसके आसपास का इलाका भी ऐसे ही मालिकों की मिल्कियत था। इनमें और ब्रिटिश सत्ता के नुमाइन्दों में केवल चमड़ी के रंग का ही फर्क था। बाकी राई-रत्ती समानता थी।
इनके साथ शौर्य, पराक्रम और जमीर का एक इतिहास चस्पा था किन्तु अब इनके बच्चे विदेशों में, विदेशी तालीम ही पाते थे। वीरान पड़े ये खण्डहर कागजों में अब भी इन्हीं के मालिकाना हक में थे। नयी पीढ़ी में आये बदलाव के साथ-साथ इनके ऐश्वर्य और वैभव को भी व्यवसाय का बुखार चढ़ने लगा था। मीलों लम्बी जमीनें, बाग-बगीचे या महल-हवेलियाँ जो नाममात्र के उपयोग के लिए बरसों से इनके ताबे में पड़े थे, इनकी व्यावसायिकता को लुभाने लगे थे, और इन तथाकथित रईसों के मन में भी यह आने लगा था कि इन लम्बी-चौड़ी जायदादों को बेकार पड़ी रखना किसी भी कोण से बुद्धिमत्ता नहीं है। सरकार ने राजाओं के प्रिवीपर्स खत्म कर देने के बाद धीरे-धीरे उनकी अन्य सुविधाओं में भी कटौतियाँ करना शुरू कर दिया था। अरबों-खरबों रुपयों की संचित निधियों का सरकार जरा-जरा-सी बात पर अधिग्रहण करने लगी थी। कभी-कभी तो यह कारण इतने बचकाने व आधारहीन होते थे कि राजे-रजवाड़ों के इन अवशेषों को अपने अस्तित्व के प्रति सचेत रहने को बाध्य होना पड़ता था।
जनता-जनार्दन का नैतिक समर्थन ऐसी कार्यवाहियों को अवश्य मिलता था। लोग सोचते थे कि जमींदारी प्रथा के उन्मूलन के साथ-साथ राजा-रईसों को भी खत्म किया जा रहा है। कहीं-कहीं आलसी व अव्यावसायिक बुद्धि वाले रईस स्वयं अपने तामझाम के बोझ के तले पिसे जा रहे थे और उन्हें अपनी मिल्कियत का रख-रखाव तक काफी मुश्किल लगने लगा था। उन पर भारी मात्रा में बकाया करों के नोटिस जारी किये जाते। पर कभी-कभी हालत यह होती थी कि उनकी जिस सम्पत्ति का मूल्यांकन होता वह पूरी तरह जड़ होती। जिसका मूल्य तो अपार होता, परन्तु उससे आय नाममात्र की ही होती। आजादी के बाद से ही सत्ता की जो बन्दरबाँट और लूट-खसोट मची थी, उसने इन लोगों को चौकन्ना कर दिया था। लोगों ने देखा था कि जिन लोगों ने स्वतन्त्रता की लड़ाई में शहादत दी या जान झोंकी, वे गाँधीवाद के रास्ते के मुसाफिर होने के कारण इस अफरा-तफरी में कहीं नहीं है और इनके उलट वह लोग सत्ता-सुख के लिए हड़बोंग मचाते दिख रहे थे, जिन्हें अंग्रेजों की सत्ता के दौरान भी कोई कष्ट नहीं था। जिनके लिए धरती कोई माता-वाता नहीं बल्कि रुपया उगाहने का मैदान थी। जिनके लिए देश कोई तमगा नहीं बल्कि दौलत के अम्बार जमा करने का कारखाना भर था। इन लोगों के दीन-ईमान की खबर न इन्हें खुद को थी और न किसी और को।
इसी दौर में निरन्तर सुविधाविहीन होते जा रहे इन राजा-रईसों के कान चौकन्ने हुए और इन्हें अपनी संचित सत्ता और रईसी के लिए अपने चोले बदलना सबसे निरापद लगा। अपने महलों को अपने ही पास बने रहने देने का सबसे सुगम उपाय यह था कि आप खादी पहनने लगें और बात-बेबात के राजनीति करने लगें। जिन लोगों का सम्बन्ध सियासत से न था, वे भी 'जनता' के बदले जनता का सेवक बनने में अपनी भलाई देखने लगे। जिन लोगों के नाम के पीछे 'बहादुर' या आगे 'राजा' लगता था उनके ऊपर टोपी और नीचे सियासत आने लगी। एक-एक करके वे सारे लोग रंगे-सियारों की भाँति जनता के बीच आने लगे। लोकसभा और विधानसभाओं में पहुँच जाना उन्हें अपने-आपको बनाये रखने का सबसे सुगम रास्ता लगता। जिन लोगों से निजात पाने की कोशिश लम्बे समय तक चली, वे लोग बहरूपिये बन कर जनता के बीच ही बने रहने के जुगाड़ देखने लगे।
इस तरह से देश में जमींदारों का उन्मूलन हुआ। राजाओं का ऐसे अन्त हुआ कि राजसी ठाठ सब बदस्तूर उसकी गिरफ्त में ही रहे।
रामायण और महाभारत काल से ही जन-सामान्य की सामन्ती तौर-तरीके सहने की आदत ने ऐसे लोगों की भरपूर मदद की। मोती-माणिक के राजमुकुट पहनने वाले खादी धारण करके लोगों के बीच आये तो पहचाने न जा सके। फलस्वरूप सत्ता का हस्तान्तरण हुआ, किन्तु सत्ता उन्हीं हाथों में गयी। केवल अन्तर यह आया कि जिन लोगों ने हाथों में तलवार, भाले या बरछे लेकर सत्ता कमाई थी, उन्हीं के वंशजों ने झंडे उठाकर सत्ता कमाई।
आजादी के बाद से ही जो भौतिकवाद व दौलत खसोटी का बीज बोया गया, उससे हुआ यह कि हर आदमी हर चीज के दाम लगाने लगा और अपनी हैसियत अपनी हथेली पर आये टकों से आँकने लगा।
विभिन्न रियासतों-रजवाड़ों से जुड़े लोगों ने भी अपनी मिल्कियत के नगरीकरण की खेती शुरू की और प्राचीन हवेलियाँ व महल पाँचतारा होटलों, बाजारों और सत्ता केन्द्रों में तब्दील होने लगे। निर्णय लेने की क्षमता जिन लोगों में थी, उन्हीं की मिल्कियत भी थी। लोक शक्ति वोट देने के लिए मुकर्रर कर दी गयी किन्तु सर्वशक्तिमान यही लोग बने रहे। लिहाजा पर्यटन, विकास, व्यवसाय, सौन्दर्यीकरण जैसे लुभावने नाम दे-देकर इन प्राचीन स्थलों, भवनों, जगहों का आधुनिकीकरण होने लगा और उनका पैसा, उनकी रईसी उन्हीं के इर्द-गिर्द घूमने के लिए सुभीता पा गये। सरकार ने रुपये-पैसे से, योजनाओं से, विकास कार्यक्रमों के मार्फत इन लोगों की खूब मदद की और बदले में इन लोगों ने सरकारों को बनाये रखने में खूब मदद की। सबके देखते-देखते विकास का झण्डा तेजी से ऊँचा उठता रहा और इस तेजी में कई-कई लोग, करोड़ों लोग पीछे छूटते गये।
आखेट महल के आधुनिकीकरण का यह प्रोजेक्ट भी ऐसा ही एक प्रोजेक्ट था, जिसके लिए बड़े पैमाने पर सरकारी मदद और पैसा मिला। कई विदेशी कम्पनियों को भी यहाँ कई तरह के काम मिले थे। देश की खुली नीतियों ने विकास की आँधी को और हवा दी। और देखते-देखते बंजर और पथरीली जमीन के इस लम्बे चौड़े इलाके का कायाकल्प शुरू हो गया था।
यह सारा इलाका किसी समय किसी एक आदमी की मिल्कियत था। किन्तु अब यहाँ बाजार, अस्पताल, बाग-बगीचे व होटलों की बुनियादें यहाँ-वहाँ बिछनी शुरू हो गयी थीं। और किसी कस्बे की रौनक की बराबरी भी न कर पाने वाला यह क्षेत्र शहरीकरण की दौड़ में शामिल हो गया था। विकास की इस तूफानी दौड़ के समीकरण पैसे के गिर्द नाचते थे। जैसे-जैसे काम होता जा रहा था, बाहर से आ-आकर बसने या बसने का इरादा रखने वालों की तादाद भी बढ़ती जा रही थी। बेकारी, बदहाली और अव्यवस्था के शिकार लोग काम और रोजगार की तलाश में यहाँ आते जा रहे थे, और विभिन्न भाषा-भाषियों, अलग-अलग संस्कृति और धर्मों के लोग केवल एक धर्म लेकर यहाँ जुड़ते जा रहे थे। और यह था रोटी का धर्म।
यह विकास देखने में बहुत भला और लुभावना होता था, क्योंकि इस विकास के तहत जो इमारतें बनतीं, उनमें उम्दा किस्म का मार्बल व ग्रेनाइट लगा रहता था। उनके अहाते में हरे-भरे बगीचे होते थे। इन इमारतों के इर्द-गिर्द जो शान-शौकत व्यापती थी, वह उन गन्दे और बदहाल लोगों का ख्याल मन में नहीं आने देती थी जो इनके बन जाने के बाद न जाने किन कंदराओं या झुग्गी-बस्तियों में बिला जाते थे। तेजी से विकसित होते इलाके में राशन की दुकानें ठीक पौने पाँच बजे और शराब की दुकानें देर रात को बंद होती थीं। पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी या दो अक्टूबर को राशन पर गल्ला नहीं मिलता था, पर पिछले दरवाजे से बोतल पर पाँच-दस रुपये ज्यादा देकर दारू सुलभ थी।
जिन दानवीरों के पुण्य प्रताप से यह नगरी बस रही थी, उन्हें बहुत मेहनत करनी पड़ती थी। सरकार उनके खानदान के किसी वांशिदे को चैन से नहीं बैठने देती थी। लड़के को होटल, तो बहू को पेट्रोल पम्प, भतीजे को अस्पताल तो चाचा को विधानसभा.. सबको कुछ-न-कुछ चलाना ही पड़ता था। 'आम आदमी' को आराम-ही-आराम सुलभ था। घर के किसी एक आदमी को केवल मिट्टी खोदने, सड़क कूटने या बोझा ढोने आना पड़ता था। बाकी आठ-दस सब बैठकर खाते थे। घर न होने से नगरपालिका में कुछ चुकाने का झंझट नहीं, बिजली न होने से बिल चुकाने की किल्लत नहीं। राशन जिनकी मुट्ठी से माप कर मिलता था, उनकी हथेलियाँ खूब बड़ी-बड़ी थीं। लिहाजा खूब मिलता। जिस सड़क पर सत्ताधीशों को केवल मोटर निकाल ले जाने की सुविधा थी, उस पर उन्हें अपने बच्चों को सुलाने और खुद सोने का पूरा अधिकार था। चाँदनी रात में दिन भर की मेहनत-मजदूरी के बाद जब ये वाशिंदे अपनी औरतों पर चढ़ते थे, सरकारों के वोटरों की संख्या और बढ़ जाती थी। इस तरह जनतंत्र और मजबूत होता रहता था।
बस्ती में चोर-उचक्कों की सम्भावना के जन्म लेने से करीब साल भर पहले पुलिस थाने की इमारत खड़ी हो गयी थी। इस इमारत में सड़क के किनारे वाले चाय के होटल से अब तक हजारों चाय और पान जा चुके थे। लेकिन न तो रावसाहब के बीस हजार रुपयों का कुछ पता चला था और न ही नरेशभान की मोटरसाइकिल का कोई सुराग हाथ लगा था। जैसे-जैसे दिन बीतते जाते थे, सारी बात पर मिट्टी पड़ती जाती थी और लोग उस वारदात को भूलने भी लगे थे। रावसाहब के सत्ताघर की कंदराओं में नरेशभान की अँगुलियों के निशान इतनी जगह और इतनी गहराइयों से थे कि छोटी-सी रकम और एक मामूली मोटरसाइकिल के कारण उसके रुतबे में किसी तरह की कोई कमी नहीं आने दी गयी थी।
पुलिस ने पेट्रोल पम्प के पास वाली कोठी से रात को संदिग्धावस्था में जिस लड़के गौरांबर को पकड़कर लॉकअप में डाला था, उसके भी वहाँ से भाग जाने की खबर कुछ दिनों तक सुर्खियों में रही थी, मगर अब धीरे-धीरे सब मामला ठंडा पड़ता जा रहा था।
रावसाहब भलीभाँति जानते थे कि नरेशभान के लिए रुपये-पैसे का नुकसान कोई नुकसान नहीं था और उसकी भरपाई के बीसियों तरीके थे, मगर इस बात का अचम्भा उन्हें हुआ कि उनकी रेस्ट हाउस वाली कोठी पर मुलाजिम रखा गया लड़का चोरी की वारदात के बाद पकड़कर पुलिस लॉकअप में डाला भी गया और यहाँ से भाग भी छूटा।
इन सारी बातों से रावसाहब का रहा-सहा ध्यान तब हट गया, जब अगले ही महीने उन्हें एक बड़े उत्सव की तैयारी करने का न्यौता मिला। आखेट महल झील के दूसरी ओर, विदेशी कम्पनी ने जहाँ अपना आलीशान दफ्तर बनाया था, उसी के समीप कम्पनी द्वारा बनाया गया शानदार अस्पताल भी बनकर तैयार हो गया था। इस अस्पताल के लिए कम्पनी ने दो सौ करोड़ रुपये दिये थे। इस अस्पताल के साथ ही एक प्रस्तावित शोध केन्द्र भी था, जिसकी इमारत का काम शुरू हो चुका था। यहाँ पर भी रावसाहब की लेबर ही लगी हुई थी। इस अस्पताल का उद्घाटन एक बड़े नेता से करवाने की कोशिशें काफी समय से चल रही थीं। कम्पनी के अधिकारी रावसाहब को बराबर उकसा रहे थे कि वे उद्घाटन के माध्यम से केन्द्र सरकार के किसी मंत्री को उनसे जोड़ें। यह एक आधुनिक सुविधाओं से युक्त ऐसा अस्पताल था, जिसकी चर्चा दूर-दूर तक, बनने के दौरान ही फैल चुकी थी। इसे लेकर कई तरह की अफवाहें भी समय-समय पर उड़ती रही थीं। विदेशी कम्पनी के किसी अधिकारी से इंटरव्यू लेने के बाद एक स्थानीय अखबार ने यह भी छापा था कि यह अपनी तरह का अनोखा व अत्याधुनिक अस्पताल होगा, जिसका उद्घाटन भी किसी अनोखे ढंग से सम्पन्न होगा। इस अस्पताल से एक ट्रस्ट भी जुड़ा था जिसके माध्यम से इसकी गतिविधियों का संचालन होने वाला था।
इस अस्पताल की एक बड़ी और महत्त्वपूर्ण विशेषता यह थी कि यह रिकॉर्ड समय में बनकर तैयार हुआ था। बड़ी संख्या में लेबर और अन्य कर्मचारी लगाये जाने से यह सबके देखते-देखते कुछ ही महीनों में बनकर तैयार हो गया था। अभी चंद महीनों पहले की ही बात थी, जब इस इमारत का भूमि पूजन समारोह सम्पन्न हुआ था। उस समय भी बड़ी चहल-पहल हुई थी। विदेशी कम्पनी के अधिकारियों ने कौतुक और दिलचस्पी से सारा समारोह देखा था। स्वीडन के नामी इंजीनियर, जो उन दिनों वहाँ आये थे, भूमि पूजन कार्यक्रम के साक्षी बने थे। रंगीन साफे पहनकर पूजन में बैठे उन विलायती अफसरों की तस्वीरें भी स्थानीय अखबार में छपी थीं। और अब देखते-ही-देखते यह इमारत बनकर तैयार भी हो गयी थी तथा अपने उद्घाटन की प्रतीक्षा में थी।
रावसाहब पिछले सप्ताह दो बार दिल्ली भी जा चुके थे। और उम्मीद थी कि उद्घाटन के लिए दो-चार दिनों में किसी बड़े नेता की स्वीकृति भी मिल जाने वाली थी।
पिछले दिनों पेट्रोल पम्प वाली सड़क के किनारे पर खाली पड़े मैदान पर जब से स्कूली बच्चों के लिए खेलकूद करवाये गये थे, वहाँ भी चहल-पहल बढ़-सी गयी थी। अब छुट्टी के दिन या बाकी के दिनों में सुबह-शाम आसपास के इलाके के बच्चे खेलने के लिए स्वयं ही वहाँ जमा होने लगे थे। बच्चों का उत्साह देखकर पेट्रोल पम्प की मालकिन, रावसाहब की बहू ने अपनी ओर से बच्चों के खेलकूद के सामान आदि के लिए पाँच लाख रुपये की मदद देने का ऐलान किया था। इससे बच्चे बेहद खुश थे और इतनी बड़ी राशि से धीरे-धीरे वहाँ काफी सुविधाएँ मुहैया हो जाने का इन्तजार बच्चों को था।
नरेशभान के लिए यह अब भी एक रहस्य ही बना हुआ था कि गौरांबर पुलिस लॉकअप से कैसे भागने में सफल हुआ और अब वह कहाँ था। वह किसी से कुछ पूछ नहीं सकता था, किन्तु उसका ध्यान बराबर इसी बात पर लगा रहता था। दुश्मन यदि सामने दिखायी देता रहे तो इतना खतरनाक नहीं होता, जितना आँख से ओझल होने पर। नरेशभान अपने साथियों के साथ रेस्ट हाउस वाली कोठी में अब भी आता-जाता था और अब उसने रावसाहब की कार के ड्राइवर के लाये हुए उस आदमी को रेस्ट हाउस पर गौरांबर की जगह रखवा भी दिया था। यह आदमी पहले भी यहाँ आता-जाता रहता था और बाद में नरेशभान को पता चला कि यह ड्राइवर भीमराज का साला था। उसकी जोरू का सगा भाई, जो एकाध साल की कॉलेज की पढ़ाई करके छोड़ चुका था और अब गाँव में ही मटरगश्ती करता घूमता रहता था। उसका डील-डौल भी अच्छा खासा था और वह हर समय दो-चार लड़कों से घिरा रहता था। कोठी में खाने-पीने की जो सुविधा उपलब्ध थी उसने उसके यार-दोस्तों में दिन-रात इजाफा किया था। अब नरेशभान की बैठक भी रेस्ट हाउस में काफी जमने लगी थी। गौरांबर का ख्याल लगभग सभी लोग मन से निकाल चुके थे।
रावसाहब ने एकाध बार गौरांबर के बारे में पूछताछ की थी परन्तु नरेशभान ने जब लॉकअप से भागे उस मुलजिम के स्थान पर दूसरे आदमी को रख लेने की खबर उन्हें दी तो बात खत्म-सी हो गयी।
आखेट महल के आसपास का यह इलाका, जो अब तेजी से विकसित हो रहा था, इसकी एक अजब कहानी थी। बरसों-बरस इसकी ओर किसी का ध्यान नहीं गया था। बड़े रावसाहब खुद अपने परिवार के साथ अरसे से जयपुर में ही रहते थे। उनका लड़का भारत से बाहर रहकर पढ़ रहा था। आखेट महल खण्डहर की भाँति पड़ा था। गाँव से बाहर के इस वीराने में कोई आता-जाता न था। आसपास की जमीन इतनी पथरीली और ऊबड़-खाबड़ थी कि उस पर खेती तो क्या, किसी और छोटे-मोटे काम के बाबत भी सोचा नहीं जा सकता था।
गाँव-देहात से लोग भाग-भागकर शहरों में जा रहे थे। आजादी के बाद से ही यह होड़-सी मची थी, क्योंकि आदमियों के रहने लायक सारी सुविधाएँ व बन्दोबस्त शहर में ही किये जाते थे। बच्चों को पढ़ाने के स्कूल शहरों में खुलते थे। सड़कें बनती थीं तो शहरों में बनती थीं। सरकारी मोटरें शहरों में चलायी जाती थीं। पानी-बिजली की सुविधा के लिए पहले शहरों को अघा जाने के लिए योजना बनायी जाती थीं। क्योंकि शहर की हवा की फितरत ही ऐसी थी कि वहाँ के लोगों को कभी न अघाने का वरदान मिला हुआ था। वे कभी तृप्त नहीं होते थे। जिसके पास एक घर होता था वह दूसरा लेने की सोचता था। जिसके दरवाजे पर एक गाड़ी खड़ी हो वह दूसरी के जुगाड़ में लग जाता था। शहरी पढ़ाई पढ़-पढ़ कर जो हाकिम-मुलाजिम कुर्सियों पर बैठे, थे, वे दिल से यही मानते थे कि पेट्रोल की गाड़ियाँ शहरों के लिए बनी हैं और खच्चर, ऊँट और बैलों से चलने वाली देहात के लिए। उन्हें यही घुट्टी पिलायी गयी थी कि देहात-खेड़े अनाज पैदा करने के लिए हैं और शहर साहब, बहादुरों को पैदा करने के लिए है। वहाँ वैसी तालीम की होड़ मची थी जो फिरंगी लोगों की ईजाद की हुई थी। जिन लोगों को स्वाधीनता सेनानियों और रणबाँकुरों ने मार भगाया था उनकी भाषा, संस्कृति और रिवाजों को पालने का ठेका आजाद भारत के शहरों ने ले लिया था।
लेकिन धीरे-धीरे समय बदल रहा था। रावसाहब और दूसरे रईसाना तबीयत के लोग यह मानने लगे थे कि गाँव से सब कुछ ढोकर शहर ले जाने में ही फायदा नहीं है बल्कि शहर को उठाकर गाँवों में भी लाया जा सकता है। यदि यहाँ की बेकार पड़ी जमीनों पर होटल, बाग-बगीचे, क्लब और फार्म हाउस बना दिये जायें तो शहर के लोग गाहे-बगाहे सैर-सपाटों के लिए यहाँ आ सकते हैं।
और बस, आखेट महल प्रोजेक्ट शुरू हो गया था। पैसा खूब था और पैसा ही पैसे को खींच रहा था। गरीबी गरीबी को खींच रही थी और जहाँ एक ओर हाकिमों के दिमाग में नयी-नयी योजना पर योजना आती जा रही थीं, वहीं काम की तलाश में लोग भी आते जा रहे थे।
बाहर से आने वाले सुविधा और सुरक्षा की दृष्टि से एक साथ झुण्डों में रहना पसन्द करते थे। वे पहले किसी खाली पड़ी जमीन पर अपने डेरे डालते थे। फिर आहिस्ता-आहिस्ता अपने रहने की जगह पर पखेरुओं की भाँति लकड़ी-तिनके जोड़-जोड़कर नीड़ बनाना शुरू करते और बाद में सरकारी खौफ से बचने के लिए कॉलोनी को कोई चमकदार नाम दे देते। कभी-कभी ऐसी बस्तियों में उन लोगों के बुत भी लगाये जाते, जिनके नाम पर इनके नाम रखे जाते थे।
संजय नगर, अंबेडकर नगर और जलियाँवाला चौक ऐसी ही बस्तियाँ थीं। यहाँ रहने वाले लोगों को बुलडोजरों से भय नहीं लगता था। किसी-किसी घर पर तरह-तरह के झण्डे लग जाने के बाद ये बस्तियाँ देखने में भी सुन्दर लगने लगी थीं। आखेट महल प्रोजेक्ट में काम करने वाली लेबर और दूसरे आदमी साइट पर से चुरा-उठा कर कभी-कभी रंग-रोशन या कुछ लक्कड़-पत्थर ले आते थे और इनसे भी यहाँ के आशियानों को मजबूती मिलती थी। नरेशभान जैसे ठेकेदार सरस्वती जैसी मजदूरनियों को सीमेन्ट-गारा-चूना जैसी बेकार चीजों के लिए फिजूल रोकते-टोकते नहीं थे। इसी से शेर की माँद के साथ-साथ चूहे-बिल्लियों के ठिकाने भी सुभीते में खड़े होते जा रहे थे।
बड़े अस्पताल से लगभग दो-तीन फर्लांग की दूरी पर नयी बनी सड़क का जो चौराहा था, उसके चारों ओर की दुकानें बनने से पहले ही बिक चुकी थीं। उनके साथ लगे प्लॉटों के साथ-साथ दुकानों की खरीद-बिक्री भी जोरों पर थी। इनमें अस्सी प्रतिशत दवाइयों की दुकानें ही थीं। कुछ आधी बनी दुकानों में तो लोगों ने आ-आकर बैठना भी शुरू कर दिया था। अभी कहीं चाय और कहीं साग-भाजी बेचने के काम में इन दुकानों को लिया जा रहा था। रावसाहब के ड्राइवर के साले ने भी दवा की दो दुकानों के लिए जुगाड़ बैठा लिया था। उसे कॉलेज में उसके साथ पढ़े दोस्तों ने बताया था कि दवा की दुकान में रम, ब्रांडी, और जिन रखने की छूट भी मिल जाती है। इस सूचना पर वह बहुत उत्साहित था। कस्बे के दोनों सिनेमाघर इस इलाके से काफी दूरी पर थे, इसलिये यहाँ नयी खुली वीडियो की दुकान भी तेजी से दौड़ पड़ी थी। जिस घर में वीडियो चलता था, उसके खिड़की दरवाजों पर मैले और बेढंगे बच्चों की भीड़ लग जाती थी।
रेस्ट हाउस की खिड़की पर भी उस दिन दोपहर में ऐसी ही भीड़ लगी हुई थी, जब रावसाहब के ड्राइवर का साला शहर से आये अपने दोस्तों के साथ सिनेमा देख रहा था। बच्चों के हँसने-चिल्लाने और शोर मचाने से खीजकर जब उसका एक साथी खिड़की के किवाड़ बंद करने के लिए आया तो उसे बच्चों की भीड़ में एक-दो औरतें और युवतियाँ भी दिखायी दे गयीं। उसने दरवाजा बंद करने का ख्याल छोड़ दिया। मैले और बेढंगे बच्चों के लिए खिड़की अक्सर खुली रहने लगी और एकाध मजबूत हाथ-पैर वाली बच्चियों को कोठी में छोटा-मोटा काम मिलने लगा। फर्श की सफाई, कपड़े धोना, बर्तनों की सफाई आदि अनेक काम ऐसे थे जो मर्दों की बनिस्बत औरतें बेहतर ढंग से करती थीं। तो इस तरह क्षेत्र का चहुँमुखी विकास होने लगा। औरतों-युवतियों को भी काम मिलने लगा।
कस्बे के हाईस्कूल के पिछले सालाना जलसे में बड़े रावसाहब ने घोषणा की थी कि हर कक्षा में पाँच बच्चों का दाखिला, जो रावसाहब की सिफारिश पर होता था, उसके लिए एक कमेटी बनायी जायेगी। कमेटी बन गयी थी। रावसाहब की मँझली बहू और विदेशी कम्पनी के एक अफसर की पत्नी के अलावा नरेशभान की माताजी भी इस कमेटी में रखी गयीं। कस्बे के हाईस्कूल पर निरन्तर दबाव बढ़ता जा रहा था, क्योंकि वहाँ आबादी का दबाव बढ़ने से दाखिला चाहने वाले बच्चों की संख्या भी बहुत तेजी से बढ़ती जा रही थी। रावसाहब की अनुशंसा से मिलने वाले दाखिलों का सारा काम नरेशभान के ही जिम्मे आ गया, क्योंकि कमेटी के बाकी मेम्बरों की इसमें कोई दिलचस्पी नहीं थी। नरेशभान हर काम व्यवस्थित ढंग से करने का अभ्यस्त था। अत: जल्दी ही रावसाहब की अनुशंसा प्राप्त करने के लिए आवेदन करने वाले बच्चों के अभिभावकों के लिए भी एक रकम तय की गयी, जो देने पर रावसाहब की गठित की हुई कमेटी अपनी अनुशंसा प्रदान कर देती थी। कस्बे के मध्यमवर्गीय घरों के बच्चों में ऐसे बच्चे, जो अन्यथा किसी स्कूल-कॉलेज में प्रवेश देने के योग्य न पाये जाते, इस रीति से रावसाहब के अनुशंसित छात्र के रूप में प्रवेश पाने लगे। उनके माँ-बाप को भी इस बात का परम सन्तोष होने लगा कि उनके बच्चे बड़े शहरों की भाँति 'डोनेशन' से दाखिला पा रहे हैं। यह बात खुद उनकी अपनी नजरों में उनका स्टेटस उठाने लगी। वे इसका बखान गौरवपूर्ण शैली में अपने मिलने-जुलने वाले लोगों के बीच करने में अपना जीवन धन्य समझने लगते। इस तरह आसपास के सरकारी दफ्तरों के बाबूओं, छोटे-मोटे दुकानदारों व पूँजीपतियों के बच्चे बड़े लोगों के बच्चों की शैली में अपने बच्चों को शिक्षालयों में भेजने का लुत्फ उठाने लगे।
बाजार के बीज तेजी से बनती-बढ़ती दुकानों के बीच एक दिन लोगों ने एक ब्यूटी पार्लर का बोर्ड भी देखा और स्थानीय निवासियों के चेहरों पर बोर्ड पढ़-पढ़ कर ही एक अनोखी चमक आने लगी थी। कस्बे के सौन्दर्यीकरण की दिशा में यह एक अनूठा कदम था। सड़क से आते-जाते लोग आँखों में अजीब चमक भर के बाजार से निकलने लगे थे।
रावसाहब के ड्राइवर के साले की मेजबानी में रेस्ट हाउस में आने जाने वालों का ताँता लगा ही रहने लगा। वह भी नरेशभान के साथ उसके बाकी कामों में तरह-तरह से मदद पहुँचाने लगा था। जैसे नरेशभान रावसाहब का दाहिना हाथ था, वह नरेशभान का दाहिना हाथ बनता जा रहा था। धीरे-धीरे आसपास के लोग उसे भी पहचानने लगे थे और उसके रौब-दाब को भी।
उस दिन आखेट महल के सामने शहर से आकर खड़े हुए ट्रक से सिंटेक्स की पानी की टंकियाँ उतारते समय हादसा हो गया। टंकियाँ बहुत बड़ी-बड़ी थीं। चार-चार आदमी भी मिलकर आसानी से उन्हें उठा नहीं पाते थे। साइट के रोजाना काम करने वाले आठ-दस आदमी ट्रक खाली करने के काम में लगे हुए थे। तभी एक बड़ी टंकी को उतारते समय न जाने क्या हुआ कि किशोर नाम के एक आदमी पर टंकी गिर पड़ी। आदमी ज्यादा बूढ़ा तो नहीं था, मगर कुछ दिन पहले बीमारी से उठकर आया था। अत: अशक्त-सा था। वह दो-तीन रोज से हल्का-फुल्का काम ही कर रहा था मगर आज शायद उसकी मौत उसे ट्रक के करीब खींच लायी।
मजदूरों में खलबली मच गयी। टंकी गिरने से जाँघ की हड्डी चकनाचूर हो गयी और किशोर को नजदीक के दवाखाने में ले जाते-ले जाते ही उसने दम तोड़ दिया। कहते हैं, टंकी के नीचे रखा हुआ एक बड़ा पत्थर भी टंकी हटाते समय सरक कर नीचे गिरा था जो टंकी के साथ ही गिरे किशोर के सीने पर सीधा गिरा। लहूलुहान हुए आदमी को दवाखाने ले जाने भर में मजदूरों की भीड़ जुट गयी। सब काम छोड़-छोड़कर आ गये। कानाफूसी और बहसबाजी शुरू हो गयी। ठेकेदारों के आदमी लेबर को समझा रहे थे कि बड़े काम में दो-चार हादसे होना तो मामूली बात है मगर मजदूर उत्तेजित थे, ठेकेदारों द्वारा बेरहमी से काम लिए जाने की शिकायत कर रहे थे।
किशोर नाम के इस मजदूर के आगे पीछे यहाँ कोई नहीं था। वह अकेला ही रहता था। अस्पताल से लाश को छुट्टी मिलते ही दस-बारह आदमियों ने जाकर उसका क्रिया-कर्म कर दिया था। रावसाहब के ड्राइवर का साला ऐसे समय नरेशभान के बहुत काम आया। उसने और उसके यार-दोस्तों ने मजदूरों की भरपूर मदद की। वे लोग श्मशान तक भी साथ में गये तथा नरेशभान के कहने पर क्रिया-कर्म का खर्चा भी उन्होंने किया। मजदूर लोगों ने एक दिन बहुत कोशिश की कि किशोर के जान-पहचान वाले या रिश्तेदार का पता चल जाये किन्तु उसके बारे में कुछ पता न चला, सिवा इसके कि वह भी रेलवे का काम बंद होने के कारण आने वाली लेबर के साथ ही साल भर पहले यहाँ आया था और बाहरी आदमियों के साथ ही यहाँ अकेला रहता था। उसके गाँव-घर का भी ठीक-ठिकाना न था। इसी से ठेकेदार ने शाम तक इंतजार देखकर उसके क्रिया-कर्म का बंदोबस्त कर दिया था।
शाम के झुटपुटे में दस-बारह आदमी श्मशान से किशोर के मुर्दे को फूँक कर लौट रहे थे। सुनसान इलाके को पार करके वे लोग कस्बे के सिरे पर बने एक चाय के होटल के सामने लगे नल पर हाथ-पैर धो ही रहे थे कि नयी मुसीबत और खड़ी हो गयी।
होटल के बाहर खड़े होकर हाथ-पैर धोते समय एक लड़के ने रूमाल से हाथ पोंछते-पोंछते अपने साथी से कहा-
''यार, मुर्दे को जलाने में कितनी लकड़ी फिजूल में खत्म होती है। दो-चार पेड़ काटने पड़ते हैं, तब जाकर एक आदमी का काम होता है।''
इस बात पर आस-पास खड़े दो-चार लोगों के कान फौरन खड़े हो गये मगर कोई कुछ न बोला। बात आयी-गयी हो गयी। रावसाहब के ड्राइवर का साला बात को सुना-अनसुना करके चाय का गिलास हाथ में पकड़ने लगा जो उसके एक साथी ने उसे दुकान से लाकर दिया था।
लेबर के लोग दो-दो-चार-चार के जत्थे बनाकर अपने-अपने रास्ते जाने लगे। शाम भी गहराने लगी थी। तभी एक लड़के ने रावसाहब के ड्राइवर के साले को उकसाने के अन्दाज में कहा, ''सुना, वो साला मियाँ क्या कह रहा था? कह रहा था, हिन्दुओं में मुर्दा फूँकने का सिस्टम बहुत खराब है। कितनी लकड़ी बरबाद होती है।''
''क्या मियाँ था वो?''
''नहीं-नहीं, जो बोला था वह तो हिन्दू ही था। उसके साथ जो लड़का खड़ा था वह मियाँ था। दोनों यहीं काम करते हैं।'' एक और लड़के ने सफाई-सी देते हुए कहा।
''नहीं उस्ताद, उमर ने ही बोला था।''
''उमर कौन?''
''यहीं कारपेन्टर है उस्ताद। संजय नगर में रहता है।''
''उमर श्मशान में गया था क्या?''
''हाँ, चला गया था। अपने साथ ही तो था। मगर यार बोला वह नहीं था, मैंने सुना, उसके साथ वाला मूँछों वाला आदमी बोला था।'' किसी ने कहा।
''ऐसा कैसे हो सकता है? वो क्यों बोलेगा! साले उस मियाँ ने ही कही होगी ऐसी बात।''
''नहीं उस्ताद..''
''अबे जा साले! तेरी फट रही है क्या उस मुल्ले से, जो उसका पक्ष ले रहा है।'' एक लड़के ने आग में घी डाला।
''यार मैं तो सच्ची बात बता रहा हूँ।''
''सच्ची बात की ऐसी-तैसी। तू चाहे तो चलके अभी पूछ ले, उसी साले हरामी ने कहा था।''
''वह कैसे कहेगा यार! वह तो सीधा-सादा है। कभी कुछ बोलता ही नहीं।''
''साले तेरे नीचे लेटता है वो, जो उसका राग अलापे जा रहा है। चल मेरे साथ.. चल..'' कहते हुए उसने कहने वाले लड़के की कलाई जोर से पकड़ी और लगभग घसीटता-सा उसे आगे-आगे ले जाने लगा।
लड़कों की भीड़ उनके साथ-साथ बढ़ने लगी। लोग तमाशबीन की मुद्रा में हँसी-ठट्ठा करते-करते चल पड़े।
''चल, देख अभी तुझे उसके पास ले चलता हूँ, खुद उसके मुँह से ही कहलवाऊँगा कि उसने क्या कहा है।''
''अब जाने दे यार..'' कहता-कहता वह लड़का अपनी कलाई छुड़ाने की कोशिश करने लगा, जो सच्ची बात कहने पर भी अब कलाई पकड़ने वाले की सख्ती से घबराने लगा था।
देखते-देखते उस स्थान पर भीड़ बढ़ने लगी। आने-जाने वाले लोग भी उत्तेजना में बोले जा रहे सुरों को सुन-सुनकर चाल धीमी करके वहीं रुक जाते। अँधेरा हो जाने से इधर-उधर धूल-मिट्टी में खेलने वाले और बच्चे भी खेल रोककर वहाँ आ गये और तमाशा देखने लगे।
रावसाहब के ड्राइवर के साले ने समझदारी और जिम्मेदारी से काम लिया। वह न तो कोई जल्दबाजी करना चाहता था और न ही अपने समाज के एक संस्कार पर ऐसी घटिया टिप्पणी करने वाले को ऐसे ही छोड़ना चाहता था। उसे यह तो यकीन हो गया कि ऐसा निश्चित रूप से कोई मुस्लिम ही कह सकता है। उसने अपने दो-चार गुर्गों को इशारा करके सारी बात समझा दी और उमर नाम के उस कारपेन्टर को बुलाकर रेस्ट हाउस में ले आने की हिदायत दे डाली। ये लड़के रोज मुर्ग-मुसल्लम खा रहे थे तथा काम कोई नहीं था। अपने यार की खिदमत के लिए कई दिनों से तरस ही रहे थे। फौरन लाम पर जाते सिपाही की भाँति गलियों में बिला गये। जाते-जाते उनके चेहरे पर ऐसे वीरोचित भाव थे, मानो वे अपनी सामाजिक जिम्मेदारी का बोझ अपने कन्धे पर लेकर उनके रस्मो-रिवाज पर टीका-टिप्पणी करने वाले को सबक सिखाने जा रहे हों।
कुछ देर बाद रेस्ट हाउस में किसी हड़कम्प की भाँति आठ-दस लड़के दाखिल हुए तो उनके साथ ही निरीह-सा दिखने वाला लड़का उमर भी था, जो लगभग एक साल से कारपेन्टरी का काम कर रहा था और अपने चार-पाँच साथियों के साथ एक झोपड़े में रहता था। एक लड़के ने उसकी कलाई को कसकर पकड़ा हुआ था और वे सभी लड़के जोश व उत्तेजना में जो वार्तालाप करते हुए चले आ रहे थे, उससे उमर को सारा माजरा समझ में आ गया था। उसने मिन्नतें की। समझाया कि उसने ऐसा कुछ नहीं कहा था, बल्कि उसके साथ के लड़के सुरेश ने ही कहा था। और सुरेश अब न जाने कहाँ जा चुका था। लड़कों ने उसकी एक न सुनी। वह उमर को लगभग घसीटते हुए रेस्ट हाउस में ले आये।
दरवाजे के भीतर दाखिल होते ही एक लड़के ने जोर से उमर के सिर में चपत जमायी। उमर दर्द से कराह गया। देखते-देखते सभी उस पर पिल पड़े। लड़के मारते समय गर्व का अनुभव कर रहे थे, क्योंकि इस समय वह किसी शरारतपूर्ण मारपीट में संलग्न नहीं थे बल्कि अपने धर्म के रीति-रिवाजों की रक्षा के लिए काम कर रहे थे। एक आदमी ने हिन्दुओं के रस्म-रिवाजों को ललकारा था और बहुत आवश्यक था कि फौरन इस अधर्म का उत्तर दिया जाता। उमर की सफाई देने की तमाम कोशिशें बेकार गयीं। और इतना ही नहीं बल्कि एक लड़के ने तो ललकार कर गुस्से में यहाँ तक कह डाला कि बस्ती में अब अगर कोई चिता जलाने की नौबत आ गयी तो उसमें लकड़ी नहीं, बल्कि उमर जैसे लोगों के कपड़ों को जलाकर आग लगायी जायेगी।
उमर की आँखों में आँसू आ गये। वह कहता-कहता थक गया कि उसके साथ सुरेश ने ही कहा था, जो भी कहा, पर उसकी किसी ने एक न सुनी। डर व घबराहट के मारे उमर थर्राने लगा और एक बार भयभीत होकर उसने कहा कि वह तो आरम्भ से हिन्दुओं के बीच ही रहा है। उसे यह भी मालूम नहीं कि हिन्दुओं में और मुस्लिमों में क्या अन्तर है। वह तो दोनों को समान मानता आया है।
इस बात पर रावसाहब के ड्राइवर के साले ने एक जोर का अट्टहास किया। बोला—''साला कहता है, इसे हिन्दुओं और मुस्लिमों के बीच का अन्तर नहीं मालूम.. अरे चन्दू बता दे इसे अन्तर। दिखा दे, दिखा दे.. बेचारा बहुत भोला है। कहता है मुर्दे को जलाने से पर्यावरण खराब होता है। लकड़ी बेकार जलती है। पेड़ काटने पड़ते हैं साले, जमीन में मुर्दों को गाड़ने से पर्यावरण खराब नहीं होता? मरने के बाद भी आदमी को सड़ने के लिए छोड़ने देने से कोई खराबी नहीं होती? जलाकर अग्नि को सौंप देने से पर्यावरण बिगड़ता है!''
चन्दू और उसके जैसे तमाम लड़के घेरा बनाकर तमाशा देख रहे थे। बेचारा उमर बीचों-बीच जमीन पर बैठा कातरता से इधर-उधर देख रहा था। वह रह-रहकर हाथ जोड़ता था और जाने देने की मिन्नत करता था। वह रह-रहकर पछता रहा था कि वह इंसानियत के नाते वैसे ही अपने दोस्त सुरेश के यहाँ चला ही क्यों गया, जहाँ किशोर को फूँक कर इन लोगों का हुजूम श्मशान से लौट रहा था।
मारपीट कर उमर को रेस्ट हाउस से निकाल देने के बाद जमकर वहाँ दारू पी गयी। रात देर तक कोठी से कहकहों और लतीफों की आवाजें आती रहीं।