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Prabodh Govil

Thriller Others

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Prabodh Govil

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अभिमन्यु... चक्रव्यूह में अब नहीं!

अभिमन्यु... चक्रव्यूह में अब नहीं!

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यह सूचना मिलते ही सारे शहर में हर्ष की लहर दौड़ गयी। यह एक सप्ताह में रावसाहब का तीसरा चक्कर था दिल्ली का। लेकिन इस बार यह खबर वह ले ही आये कि केन्द्रीय सरकार के एक केबिनेट मंत्री ने इस महीने के आखिरी सप्ताह में नये बने अस्पताल के उद्घाटन की मंजूरी दे दी। व्यापक पैमाने पर उद्घाटन समारोह की तैयारियाँ शुरू हो गयीं।

अस्पताल के नाम को लेकर पिछले पन्द्रह-बीस दिन से जो बवाल मचा हुआ था वह भी एकाएक समाप्त हो गया। जिला प्रशासन ने साफ तौर पर कह दिया था कि नाम को लेकर किसी तरह का समझौता नहीं किया जा सकता। प्रदेश के जिस स्वतंत्रता सेनानी के नाम पर इस अस्पताल का नाम रखने की माँग कई स्थानीय संगठन कर रहे थे, उन्हें सूचित कर दिया गया था कि उनका शताब्दी समारोह अभी निर्धारित नहीं है। दूसरे, उनका जन्म शताब्दी वर्ष लगभग दो माह पूर्व बीत चुका था, अत: अब उनके नाम पर अस्पताल के नामकरण का कोई औचित्य नहीं था। तीसरा, और सबसे महत्त्वपूर्ण कारण यह था कि स्वीडन की जिस कम्पनी ने अस्पताल के लिए हुए व्यय की एक बड़ी राशि उपलब्ध करवायी थी उसके अधिकारियों का भी मानना था कि नाम को किसी विवाद से बचाने के लिए उसका नाम कंपनी द्वारा सुझाया गया 'चाइल्डहुड' ही रखा जाये। लगभग इसी पर सबकी सहमति बन गयी थी, क्योंकि इस नाम पर किसी को आपत्ति नहीं हो सकती थी। किसी एक नेता के नाम पर नामकरण होने में अन्देशा यह था कि उनके अनुयायियों के अलावा दूसरे पक्षों के लोग उसे स्वीकार न करें। इस नाम में एक आकर्षण भी था और अर्थ भी। यह आधुनिक भी लगता था। अस्पताल में, इस छोटे शहर में उपलब्ध सुविधाओं की तुलना में, कई अत्याधुनिक सुविधाएँ थीं।

झील के किनारे वाले परकोटे से बहुत सारी लेबर यहाँ लगा दी गई थी और यहाँ बचा-खुचा काम तेजी से हो रहा था। अस्पताल के अहाते को सजाया जा रहा था। उसके चारों ओर की सड़क के किनारे वृक्ष लगाये जा रहे थे। फुटपाथ पर रंगीन पत्थरों व सीमेंट से शानदार कारीगरी करके नयनाभिराम परिसर बनाया जा रहा था। पास के मैदान को साफ व समतल करके भव्य समारोह के योग्य बनाया जा रहा था।

रावसाहब स्वयं हर दूसरे-तीसरे दिन काम का मुआयना करने आते थे। वह गाड़ी खड़ी करके पैदल भी साइट पर चक्कर लगाया करते थे।

शंभूसिंह ने यह समाचार घर पर अपनी पत्नी व गौरांबर को भी सुनाया था। गौरांबर स्टेशन से लौटने के बाद से और भी गम्भीर रहने लगा था।

शंभूसिंह का बर्ताव उसे समझ में नहीं आता था। एक ओर तो बेटे की भाँति वह और उनकी पत्नी उसे चाहते थे, उसकी हर सुख-सुविधा का एहसास दिलाते थे, दूसरी ओर उसे यह आभास भी हरदम दिलाते थे कि उसे उनके लिए कुछ करना है।

गौरांबर सोच न पाता कि शंभूसिंह आखिर क्या चाहते हैं। वह किस प्रकार रावसाहब के खानदान से बदला लेना चाहते थे, किस प्रकार गौरांबर का इस्तेमाल करना चाहते थे। यह सब अब तक बिलकुल अस्पष्ट था।

क्या हो सकता है शंभूसिंह का इन्तकाम? क्या वह रावसाहब के साम्राज्य में कोई विध्वंस करवाना चाहते हैं? या किसी को जान से खत्म तक कर डालने की खौफनाक मुहिम उनके जेहन में पल रही है। या फिर वह राजनीति के शतरंज पर किसी भाँति रावसाहब को नीचा दिखाना चाहते हैं। और वह इसमें कहाँ और किस तरह काम आ सकता था। यह ठीक था कि शंभूसिंह ने जान पर खेलकर उसे लॉकअप से निकाला था। उस पर पनाह देकर बड़ा एहसान भी किया था परंतु शंभूसिंह किसी भी कोण से ऐसे निष्ठुर या अमानवीय नहीं दिखायी देते थे कि वह अपने उपकारों के बदले में गौरांबर की जान मुफ्त में ऐसे झोंक दें। आखिर बलि के बकरे और इंसान में कोई फर्क तो होता है। क्या शंभूसिंह नरबलि के लिए गौरांबर को पोस रहे हैं। यही सब उधेड़बुन गौरांबर के मन में रहती। वह बिलकुल बैरागी-संन्यासी-सा होता जा रहा था और मन से अपने आपको हर होनी-अनहोनी के लिए तैयार कर रहा था।

रेशम देवी जिस ममता और स्नेह से गौरांबर से पेश आतीं, उसे विरोधाभास का यह गोरखधंधा बिलकुल समझ में न आता।

एक दोपहर, जब शंभूसिंह घर में नहीं थे और गौरांबर अपनी रोज की दिनचर्या से निबट कर विश्राम कर रहा था, रेशम देवी से गौरांबर पूछ बैठा, ''काकी, काका साहब मुझे मन्दिर में जिन संत जी के पास ले जाते हैं, वह कौन हैं?''

''आज तुझे बैठे-बैठे उनका ख्याल कैसे आया?''

''वैसे ही! कौन हैं वे, आप लोगों से उनका परिचय कैसे है?''

रेशम देवी ने मुस्कुराकर गौरांबर की ओर देखा। थोड़ा-सा झिझकीं। पर गौरांबर उत्सुकता से उनकी ओर देख रहा था। वह कोई रहस्य उससे छिपाये न रख सकीं।

''बेटा, वो तेरे काका के बड़े पुराने मित्र हैं। बचपन के दिनों के।''

''हाँ, ये तो मैंने भी देखा काकी! मगर वो क्या करते थे, उनका घर-बार कहाँ है, वो संन्यासी बनने से पहले भी तो कुछ करते होंगे?''

''बेटा, संन्यासी जब संन्यासी बन जाते हैं, तो बस वे केवल संन्यासी ही रह जाते हैं। उनका आगा-पीछा कुछ नहीं होता।''

''पर काकी, वे तो सियासत में बड़ी दिलचस्पी रखते हैं। उन्हें तो दुनियादारी का बड़ा ज्ञान है।'' गौरांबर ने आश्चर्य से कहा।

''बेटा, उनकी दिलचस्पी तो बातों की ही दिलचस्पी है। और दुनियादारी तो दुनिया से आँखें मूँदने के साथ ही जाती है।''

''पर वह जीवन को त्याग करके बैठ क्यों गये?''

''कोई आसानी से जीवन नहीं त्यागता। हाथ-पैर सभी मारते हैं जीने के लिए। पर हर जगह असफलता ही हाथ लगे..''

''क्या सारे संन्यासी असफल गृहस्थ होते हैं?''

रेशम देवी गौरांबर के इस प्रश्न पर हतप्रभ रह गयीं। उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। गौरांबर ही फिर बोला, ''या तो आदमी मरते दम तक दुनियादारी में हार नहीं माने। जो दिन, जैसे दिन आयें, उन्हें दिलेरी से भुगते। या फिर हार ही जाये तो दीन-दुनिया से बेखबर ही रहे। ये बीच का रास्ता कैसा? देश की, समाज की, लोगों की, इतनी चिन्ता और लोगों से ही दूर जा बैठना। छिपकर जा बैठना। ये क्या शोभा देता है?''

''बेटा, तेरे सवाल बड़े मुश्किल हैं, मेरी जबान सीधी भी है और बहुत सारे वादे-वचनों से बँधी हुई भी। तू मुझसे कुछ न पूछ। अपने काका जी से ही पूछना।''

''अच्छा काकी, ये बताओ, मैं काका की क्या मदद कर सकता हूँ? मैं उनके लिए कुछ करना चाहता हूँ।''

''बेटा, तू अभी कह रहा था न कि सारे संन्यासी असफल गृहस्थ होते हैं। ऐसा नहीं है। असफल गृहस्थ तो असफल जोगी भी होंगे। हाँ, जिनकी असफलता इसलिये होती है कि वे नेक होते हैं, सच्चाई के रास्ते पर चलते हैं, वे ही संन्यासी होते हैं ताकि अपनी आत्मिक शक्ति संचित करें और उन्हें सत्यपथ से डिगाने वालों का नाश कर सकें।''

''पर काकी, आज की दुनिया में किसी का नाश बहुत बड़ी या मुश्किल बात कहाँ है? आदमी की नन्ही-सी जान होती है। कोई भी, कहीं भी, कैसे भी ले सकता है। छल से, बल से, कोई भी किसी को भी मार दे।''

''बेटा, आदमी को उसकी देह से खत्म करना तो किसी भी सवाल का जवाब नहीं है। आदमी को खत्म करने के लिए पहले यह तलाश की जाती है कि उसकी नन्ही-सी जान रहती कहाँ है और फिर यह कोशिश की जाती है कि इसे इस तरह, कैसे खत्म किया जाये कि धरती पर पाप का बोझ कम हो। बढ़े नहीं। आदमी आदमी का खून कर दे तब तो पाप चढ़ता है। आदमी किसी आदमी के भीतर बैठा अमानुष खत्म करे.. तब बात है।''

''मैं कुछ समझा नहीं!''

''बेटा, तुझे मालूम है, पृथ्वीराज चौहान ने ऊँची अटारी पर बैठे हुए सुल्तान को आँखों पर पट्टी बाँधे शब्दबेधी बाण से कैसे मारा था?''

गौरांबर को यह सन्दर्भ समझ में नहीं आया। वह सपाट-से चेहरे से बैठा रहा।

रेशम देवी कुछ बोलतीं, इससे पहले ही गौरांबर फिर से बोल पड़ा, ''काकी, मैंने आपसे पूछा था कि मैं काका की मदद कैसे करूँ..''

गौरांबर की बात अधूरी रह गयी। तभी दरवाजे पर एक जोरदार धड़का हुआ। गौरांबर दरवाजा खोलने के लिए लपका। रेशम देवी भी उठकर चौखट तक चली आयीं।

दरवाजे पर शंभूसिंह थे, जो आज काम पर से काफी जल्दी लौट आये थे। उनके माथे पर हल्का तनाव और खिंचाव था। आँखें भी लाल-सी हो रही थीं। लगता था, जैसे उनकी तबीयत ठीक नहीं है। वह काफी धीमी आवाज में अपने जल्दी लौट आने का कारण बता रहे थे। वह कपड़े उतारकर बैठ गये। रेशम देवी पानी लेने भीतर चली गयीं।

गौरांबर उनके करीब ही बैठ गया। काफी देर तक चुप्पी रही। फिर शंभूसिंह ने बोलना शुरू किया, ''आज शहर में फिर दंगा उठा। न जाने क्या होता जा रहा है। ऐसा लगता है कि कोई इस शहर में फसादों की आदत बनाये रखना चाहता है।''

''क्या हुआ काका!'' गौरांबर ने उत्सुकता से पूछा। रेशम देवी भी पानी का गिलास लेकर आ गयी थीं। उसे शंभूसिंह को पकड़ा कर उनकी बात सुनने खड़ी हो गयीं। शंभूसिंह ने पानी पीकर गिलास हाथ में पकड़ लिया, परन्तु रेशम देवी उनकी बात सुनने के लिए ऐसी उत्सुक थीं कि उन्हें गिलास लेने का भी ख्याल न रहा। शंभूसिंह खाली गिलास उसी तरह हाथ में पकड़े बैठे रहे।

''बेटा, आज मैं तुझे एक जगह ले जाना चाहता था, पर अब तो जाना न हो सकेगा।''

''कहाँ काका?''

''मैंने एक जगह तेरे लिए काम की बात की थी। मगर आज शहर में फिर से दंगा भड़क गया।''

''कैसा काम है काका?'' गौरांबर ने उत्साहित होकर पूछा।

''बताऊँगा, तुझे बताऊँगा.. तू खुद देख लेना। तुझे पसन्द आयेगा।''

''गौरांबर को आन्तरिक खुशी के साथ-साथ थोड़ा-सा अचम्भा भी हुआ। शंभूसिंह उसके लिए काम तलाश कर रहे थे, यह जानकर उसे अच्छा लगा। वह भी काफी दिनों से खाली रहते-रहते उकता-सा गया था। पर उसे एक आशंका अब भी थी कि आखिर शंभूसिंह उससे चाहते क्या थे। वह वास्तव में उसे किसी रोजगार से लगा रहे थे या फिर वह चाल चलने की शुरुआत कर रहे थे, जिसमें गौरांबर को मोहरा बनना था।''

क्या वास्तव में शंभूसिंह के जिगर में कोई ज्वालामुखी है? क्या वह किसी इन्तकाम की आग में जल रहे हैं? क्या उनका कलेजा इतना आतंकवादी है कि वह गौरांबर से अपने ही बड़े भाई रावसाहब पर जानलेवा हमला करवा सकेंगे? किसी बम आदि से उन्हें बरबाद करवा सकेंगे? या फिर और किसी तरह उन्हें जलील करवायेंगे? गौरांबर के दिमाग में उतने ही ख्याल आते थे, जितने इन दिनों उसकी घनी दाढ़ी में बाल थे। एक अजीब-से भाव से आवेष्टित रहता था वह इन दिनों।

रात को खाना दोनों ने साथ खाया और फिर रोजाना की भाँति बातें करते-करते घर की छत पर जा चढ़े।

''गौरांबर बेटा, मेरा एक पुराना दोस्त है बचपन का। उसकी एक बेटी है।''

''जी..''

''मैं कह रहा था, मेरे दोस्त की बेटी शादी के लायक है। वह बहुत अच्छी है। घरेलू। सब काम में होशियार भी।''

''अच्छा..'' गौरांबर की समझ में नहीं आया कि क्या जवाब दे। वह प्रश्नवाचक मुद्रा बनाकर शंभूसिंह की बात सुनता रहा।

''तू एक दिन चल मेरे साथ, तुझे दिखा भी लाता हूँ।''

गौरांबर आश्चर्य से आँखें फाड़े देखता रह गया। उसकी आँखें कुछ शर्म और संकोच से झुक-सी गयीं। परन्तु तभी नीचे से रेशम देवी की आवाज ने खलल डाला, जो गौरांबर से नीचे से पानी का मटका उठाकर ऊपर ले जाने को कह रही थीं। गौरांबर पानी का घड़ा उठाकर छत पर लाया तो बात का सिरा ही बदल चुका था, क्योंकि रेशम देवी उसके पीछे-पीछे ऊपर चली आयी थीं। बात आई-गई हो गई।

आखेट महल प्रोजेक्ट के परिसर में पहला सार्वजनिक समारोह होने वाला था। अस्पताल के उद्घाटन की तारीख भी तय हो गई थी। वहाँ की चहल-पहल और तैयारियाँ देखकर लोग दबी जबान से यह भी कहने लगे थे कि इस प्रोजेक्ट के साथ-साथ बड़े रावसाहब का एक प्रोजेक्ट और भी चल रहा है। और वह था राजनीति में वापसी का। यद्यपि रावसाहब का दबदबा इस इलाके में वैसे भी किसी से कम न था, परन्तु अब विधिवत् वे चुनाव लड़ने की भूमिका भी बना रहे थे। यद्यपि इस बारे में सारी खबरें केवल अटकलों तक सीमित ही थीं, मगर ये ऐसी अटकलें थीं जिन पर अविश्वास किसी को नहीं था।

लोग तो यहाँ तक कहने लगे थे कि राज्य विधानसभा के लिए इस इलाके से नरेशभान को भी टिकट दिये जाने की सम्भावना थी। खुद नरेशभान के चेले और चमचे ऐसा प्रचार करते घूमते थे। नरेशभान खुद भी कभी चर्चा चलने पर ऐसी किसी बात का खण्डन नहीं करता था।

लोग समझ न पाते थे कि आखिर हमने देश में राजकाज चलाने के लिए जो व्यवस्था चुनी है वह किस बात पर आधारित है। इस प्रणाली में सारा दारोमदार केवल इसी बात को लेकर था कि आप सार्वजनिक जीवन में जोड़-तोड़ के माध्यम से लोगों के बीच कितने जाने-पहचाने जाते हैं। और अब तो लोगों ने इसका एक और प्रभावशाली रास्ता निकाल लिया था। लोगों के बीच लोकप्रिय होने के लिए स्वयं को कुछ विशेष करने की जरूरत नहीं समझी जाती थी बल्कि लोग अपने आसपास के लोगों की लोकप्रियता को कम करके अपनी साख को बड़ा दिखाने की कोशिश करते थे। इसके एक-दूसरे पर कीचड़ उछालना एक आम बात हो चली थी। आम जनता की स्मरण शक्ति इतनी सीमित थी कि उसे यह याद न रह पाता था—किसने क्या किया है। बस, उन्हें तो मीडिया में बार-बार आये लोगों के नाम याद रह जाते थे और वे यंत्रचालित से जाकर जरूरत पड़ने पर उन्हें वोट दे आया करते थे।

अस्पताल के उद्घाटन समारोह में केवल तीन दिन शेष रह गये थे। आखेट महल के पिछवाड़े वाली सड़क के लगभग सात किलोमीटर लम्बे रास्ते को साथ-सुथरा करके सजाया गया था, जिससे कार द्वारा मंत्री महोदय आने वाले थे। स्थानीय अखबारों में पिछले सात-आठ दिन से रोजाना बड़े-बड़े इश्तहार दिये जा रहे थे जिनमें आखेट महल प्रोजेक्ट, अस्पताल और बाकी सारी योजनाओं के बारे में विस्तार से जानकारी दी गयी थी। विकास और उपलब्धियों के आँकड़े दिये गये थे। विदेशी कम्पनियों की ओर से शुभकामनाएँ व बधाइयाँ दी गयी थीं। कई नेताओं के फोटो दिये गये थे। एक पूरे पृष्ठ के विज्ञापन में तो सत्ता दल के दो-तीन दिवंगत नेताओं के फोटो देकर उनके नीचे रावसाहब और उन मंत्री महोदय का फोटो दिया गया था जो उद्घाटन के लिए आने वाले थे। इन विज्ञापनों में तरह-तरह से दर्शाया गया था कि कितना विकास हो चुका है। एक छोटे-से विज्ञापन में नरेशभान की तस्वीर भी थी। और उद्घाटन से ठीक दो दिन पूर्व जो विज्ञापन छापा था उसमें तो बड़े-बड़े अक्षरों में नरेशभान के साथ-साथ रावसाहब के ड्राइवर के साले का नाम भी छपा था। यह सारे नाम सत्ता पक्ष के बड़े नेताओं की तस्वीरों के नीचे निवेदक के रूप में छपे थे। ये नाम ऐसे थे, जिन्हें कभी किसी ने, किसी से निवेदन करते हुए न देखा था। ये लोग निवेदन न करते थे, बल्कि लोग इनसे निवेदन करते थे। कभी इलाके की अकेली और बेसहारा लड़कियाँ इनसे छोड़ देने का निवेदन करती थीं, कभी राह चलते लोग इनसे और ज्यादा वसूली न करने का निवेदन करते थे।

और अब अखबार ने निवेदक के रूप में इस सबके नाम छापे थे। अखबारों में इन विज्ञापनों को छापने का तमाम खर्चा उन लोगों ने किया था, जो इन तस्वीरधारियों और नामधारियों से वर्ष भर तरह-तरह के निवेदन किया करते थे।

जिस दिन उद्घाटन होना था, उसके कुछ घण्टे पहले ही भारी मात्रा में पुलिस यहाँ-वहाँ तैनात की गयी थी। यह अब एक आम रिवाज था। सत्ताधारी लोग जब अपने किसी भी कार्य या उपलब्धि के बाद जनता के बीच आते थे, तो वे मन-ही-मन जानते थे कि जनता उनके काम से कितनी खुशी होगी। और इसलिये प्राय: सभी को घर से निकलते ही भारी पुलिस बन्दोबस्त और सुरक्षाकर्मियों की जरूरत पड़ती थी।

जिस दिन समारोह होने वाला था, अलसुबह लगभग साढ़े तीन बजे, शंभूसिंह के घर के सामने दो जीपें आकर रुकीं। एक-एक जीप से दस-बारह आदमी कूद-कूदकर भीतर आये। दालान में भगदड़-सी मच गयी। इन लोगों में कई चेहरे गौरांबर के जान-पहचान के भी थे। स्वयं वृद्ध संत महाराज आज पहचाने नहीं जा रहे थे। उन्होंने केसरिया रंग का लम्बा कुर्ता व धोती धारण किया हुआ था। माथे पर विशाल तिलक था। सन्त जी के खण्डहर के पास वाले मन्दिर के पुजारी भी साथ में आये थे।

रेशम देवी के साथ-साथ गौरांबर को भी इन मेहमानों की आवभगत में भागदौड़ करनी पड़ी। सबके नहाने-धोने का बन्दोबस्त किया गया और पौ फटने तक सबको नाश्ता आदि भी करवा दिया गया। शंभूसिंह भी उत्साह से तैयार हुए और गौरांबर को भी तैयार होने का निर्देश रेशम देवी ने दिया।

दोनों गाड़ियों में बुरी तरह लाद-ठूँसकर वे लोग आखेट महल परकोटे की ओर चल पड़े। रास्ता कच्चा था। इसीलिए जीपें धूल उड़ाती और हिचकोले खाती हुई जा रही थीं। महल से काफी दूर, दो किलोमीटर की दूरी पर, एक सुनसान-से खण्डहरनुमा मकान में जीपें रुकीं। गौरांबर को यह देखकर काफी आश्चर्य हुआ कि जीप से सन्त जी के साथ-साथ गौरांबर को भी उतरने को कहा गया। साथ में केवल एक लड़का और उतरा बाकी सभी लोगों को लेकर धूल उड़ाती हुई जीपें चली गयीं। देखते ही देखते कारवाँ ओझल हो गया। गौरांबर साथ के दूसरे लड़के से परिचित न था। लड़का डील-डौल में लम्बा-तगड़ा होने पर भी उम्र से ज्यादा न था। सन्त जी दोनों को साथ लेकर खण्डहरनुमा मकान के भीतर दाखिल हो गये। भीतर की ओर एक अधबना कमरा था जिसमें और कोई न था। सवेरे का उजाला थोड़ा-थोड़ा फैल चुका था, जिससे दिखाई दे रहा था कि दूर-दूर तक बियावान जंगल था। कोहरे के कारण वातावरण ढका-ढका सा था। हल्की-सी ठण्डक भी थी।

गौरांबर का दिल टूटने लगा। तीनों में से कोई किसी से कुछ नहीं बोल रहा था। थोड़ी दूर की चुप्पी के बाद वृद्ध ने ही बोलना शुरू किया। और तब पहली बार गौरांबर के सामने यह रहस्य उजागर हुआ कि शंभूसिंह और उस वृद्ध संन्यासी ने आखेट महल प्रोजेक्ट कभी पूरा न होने देने और विदेशी कम्पनी के इस लाइसेंस को रद्द करवाने की शपथ ली हुई है। वे इस काम को देश की गुलामी की शुरुआत मानते हैं।

गौरांबर की रगों में यह रहस्य जानकर बिजली-सी दौड़ गयी। उसने सपने में भी नहीं सोचा था कि सन्त महाराज के शान्त और निस्पृह श्रीमुख से उसे ऐसी जानकारी सुनने को मिलेगी। साथ वाला दूसरा लड़का अविचलित था। गौरांबर को यह भी बता दिया गया कि उसका तथा दूसरे युवक का काम जान-जोखिम वाला है किन्तु उनकी पूरी हिफाजत करने की कोशिश की जायेगी और कुछ भी बुरा हो जाने की स्थिति में उनके घरवालों को बहुत बड़ी राशि के साथ-साथ पूरी सुरक्षा और सहायता दी जायेगी।

गौरांबर के हाथ-पैर सुस्त हो गये। सन्त जी का उसे यह समझाना भी निष्फल रहा कि जो कार्य उनसे लिया जा रहा है वह देश के हित में बड़ा  कार्य है। उनकी गिनती भी देश के बड़े शहीदों में ही होगी, जब लोगों को पता चलेगा कि उन्होंने देश में भ्रष्टाचारी शासकों द्वारा विदेशियों को फिर से घुसाने के पाप को रोकने का काम किया है। पैसे और सत्ता के लोभ में सन् पन्द्रह सौ निन्यानवे का जो इतिहास देश की चुनी हुई सरकार दोहराने जा रही थी, उसे रोकने का यही एकमात्र उपाय था कि काले अंग्रेजों की मटमैली छाया को पहचाना जाये और उसे गाँव-गाँव, शहर-शहर बेनकाब किया जाये।

गौरांबर के दिमाग ने सुन्न होकर काम बंद कर दिया था। परन्तु उसे बस थोड़ा-सा ढाढस इस बात का था कि उसके साथ, उसी की भाँति इस्तेमाल किया जाने वाला एक युवक और भी था। इसी युवक से अब गौरांबर को यह भी पता चला कि सन्त जी पहले आखेट महल प्रोजेक्ट पर एक कर्मचारी ही थे। और बड़े रावसाहब ने इनके साथ इस तरह धोखा किया कि इन्हें साइट पर दूर भेजकर इनका घर लूट लिया। रावसाहब ने इनकी पत्नी से अनैतिक सम्बन्ध रखे और उसे बाद में कस्बे का एक मन्दिर दान में दे दिया। उसी युवक ने गौरांबर को बताया कि रावसाहब की रखैल बाद में भक्तन माँ के नाम से मशहूर हो गयी और इन्हें घर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा।

गौरांबर सारी कहानी जानकर दाँतों तले अँगुली दबाकर रह गया। उसने काम की तलाश में भटकने के दिनों में भक्तन माँ का नाम कई बार सुना था।

सारी बातें उजागर हो जाने के बाद सन्त जी ने दोनों युवकों को यह भी बता दिया कि उन्हें क्या करना होगा। उद्घाटन समारोह के बाद विदेशी कंपनी के अधिकारियों, केन्द्रीय मंत्री, रावसाहब व अन्य कुछ सम्मानित लोगों के लिए महल में ही एक बड़ी पार्टी का आयोजन था। इसमें बहुत ही चुने हुए और सीमित लोग महल में आने वाले थे। गौरांबर और उस दूसरे युवक को उसी महल में तैनात करके उन गणमान्य लोगों के भोजन में विष मिलाकर उन्हें जान से मार देने की योजना थी। शंभूसिंह की उस सारे क्षेत्र से वाकफियत और रावसाहब से रिश्तेदारी की वजह से यह मुश्किल भी न था कि वे अपने आदमियों को महल के अतिथि कक्ष की रसोई में पहुँचा सकें।

गौरांबर अपलक वृद्ध की ओर देखता रहा। दूसरा युवक भी हैरत से यह दृश्य देख रहा था। तभी गौरांबर एकाएक मूर्छित हो गया। युवक घबराया। उसने घबराकर इधर-उधर देखा, वहाँ कहीं पानी का बन्दोबस्त भी नहीं था। सन्त जी ने गौरांबर का सिर अपनी गोद में रख लिया और अपनी चादर से जोर-जोर से हवा करने लगे। साथ वाला युवक उत्तेजित और परेशान-सा होकर आसपास कहीं पानी की तलाश करने लगा।

लगभग चालीस मिनट के बाद जंगल के रास्ते से होती हुई एक जीप वापस आयी। पर अब उसमें केवल दो-तीन आदमी ही बैठे हुए थे। वे लोग कुछ महत्त्वपूर्ण जानकारी लाये थे, इसी से उतरते ही सीधे सन्त जी के पास पहुँचे। गौरांबर तब तक सामान्य हो चुका था और उस युवक के साथ ही बैठा हुआ था। विक्षिप्तता का एक दौरा-सा पड़ने के बाद गौरांबर ने इस सारे कार्य के लिए सहमति दे दी थी। साथ वाला युवक भी आश्वस्त-सा था।

जीप से उतरा व्यक्ति लम्बे-लम्बे डग भरता हुआ सन्त जी के समीप पहुँचा। उसी से पता चला कि शहर में आज सुबह से ही जबरदस्त दंगा भड़क उठा है। कई इलाकों में कर्फ्यू लगा दिया गया है। रात को दो-तीन जगहों पर आगजनी भी हुई है।

कहते हैं कि कल देर रात अलीपाड़ा के कुछ नागरिकों का एक दल जिलाधीश से मिला था। और उन्होंने अस्पताल का उद्घाटन मंत्री महोदय से करवाने पर आपत्ति उठायी थी। उनका तर्क था कि अस्पताल की इस इमारत का भूमि पूजन हिन्दुओं की परम्परागत रीति से हुआ था और इसके प्रबन्ध न्यास में लगभग सभी हिन्दुओं का समावेश है। इतना ही नहीं, बल्कि आज रात को इसी इमारत में सत्यनारायण की महापूजा का विराट आयोजन भी किया गया है। इस क्षेत्र के अल्पसंख्यकों को संदेह था कि इससे सभी को समान न्याय मिलने की सम्भावना समाप्त हो गयी है। सरकार को इसमें हस्तक्षेप करना चाहिये और मंत्री महोदय को ऐसे किसी सार्वजनिक समारोह में शामिल होने से बचना चाहिए जो सिर्फ हिन्दुओं के लिए, हिन्दुओं की पद्धति से हो रहा हो।

जिलाधीश ने रात को ही आपातकालीन बैठक बुलायी थी और रात में ही यहाँ के विधायक व दिल्ली से भी फोन पर बात की। स्वयं रावसाहब भी सारी रात इसी चक्कर में व्यस्त रहे।

सुबह के अखबारों से यह बात शहर में फैलते ही जगह-जगह दंगा भड़क गया। युवकों के एक दल ने बस्ती के कब्रिस्तान में जाकर तोड़-फोड़ की और गोलियाँ चलायीं। खबर यह भी थी कि कब्रिस्तान में जिस समय यह हड़कम्प मचा हुआ था, तभी एक शव दफनाने के लिए कुछ लोग वहाँ आये थे। शव के साथ आये लोगों को दंगाइयों ने डरा-धमकाकर भगा दिया और फिर शव में ऐसे ही आग लगा दी। पुलिस ने अड़तालीस आदमियों को गिरफ्तार किया और दो राउण्ड गोलियाँ भी चलायीं। शहर में इस घटना के बाद जगह-जगह पर पथराव हुआ। अभी-अभी थोड़ी देर पहले लड़कियों के एक स्कूल में कुछ गुण्डे घुस गये और वहाँ तोड़-फोड़ की। स्वीडन की उस कंपनी के अधिकारियों ने उस परिवार को बड़ी राशि सहायता के तौर पर देने की पेशकश की थी, जिसके किसी मृतक के शव में दंगाइयों ने आग लगा दी।

कौन क्या कर रहा था, किसी को कुछ पता न था। बस एक कोहराम-सा सारे में मचा हुआ था।

सन्त जी दोनों युवकों व गाड़ी में आये अन्य लोगों के साथ आखेट महल परकोटे की ओर रवाना हो गये। काफी दिन निकल चुका था। धूप खिल रही थी, पर सड़कें वीरान पड़ी थीं। रास्ते में किसी भी पुलिस वाले को खड़ा देखकर सन्त जी ड्राइवर से जीप धीमी करने को कह रहे थे और फिर उनसे हालात के बारे में पूछताछ करते थे। जरा आगे जाने पर पुलिस की एक वैन खड़ी मिली और वहाँ सन्त जी द्वारा पूछताछ करने पर बताया गया कि कर्फ्यू के कारण कार्यक्रम में कोई खास बदलाव नहीं आया है और मंत्री महोदय सुबह ग्यारह के स्थान पर शाम को साढ़े पाँच बजे उद्घाटन करने वाले थे। दोपहर बाद कर्फ्यू में ढील दिये जाने की भी खबर थी। लोग बहुत कम दिखायी दे रहे थे, परन्तु कार्यक्रम की तैयारियाँ हो रही थीं। जीप धीरे-धीरे आगे बढ़ती हुई स्टेशन की ओर चली गयी।

स्टेशन के पीछे वाली सड़क पर यार्ड के उस तरफ एक छोटी-सी कॉलोनी में बने एक मकान में शंभूसिंह और उनकी पार्टी ने डेरा डाला था। यहाँ से थोड़ी देर के बाद ही वे लोग निकलने वाले थे। शंभूसिंह ने आँख मिलाकर आमने-सामने अब तक गौरांबर से कोई बातचीत न की थी। यद्यपि उसे यकीन अब भी न आता था, पर अब सुबह से ही उन लोगों की हलचल और गतिविधियाँ देखकर अविश्वास करने का भी कोई कारण न था।

समारोह स्थल पर गहमागहमी बढ़ती जा रही थी। चारों ओर पुलिस बन्दोबस्त भी और कड़ा हो गया था। यहाँ-वहाँ लोगों की आवाजाही दिखायी देने लगी थी। बस्ती का बाजार, केवल कर्फ्यू वाले इलाकों को छोड़कर, बाकी खुल चुका था। शहर में जगह-जगह पर बैनर लगे हुए थे। कहीं-कहीं सड़कों पर पोस्टर भी चिपकाये गये थे। दो-तीन पुरानी-सी जीपें घूम-घूम कर गली-गली लाउडस्पीकर पर कार्यक्रम होने की घोषणा कर रही थीं। साथ ही लोगों से ज्यादा-से-ज्यादा संख्या में उपस्थित होने का अनुरोध भी किया जा रहा था। बीच-बीच में कभी-कभी माइक पर बड़े नेताओं के भाषणों के कैसेट बजते सुनायी देते थे। ज्यादातर समय यहाँ-वहाँ फिल्मी गीतों की धुनें वातावरण में बिखरी हुई गूँज रही थीं। उद्घोषणा करने वाली जीपों से भी नारे और निवेदनों के बीच-बीच में फिल्मी गीत बजाये जा रहे थे।

दोपहर को उड़ती-उड़ती यह खबर यहाँ-वहाँ फैलने लगी कि सत्यनारायण की महापूजा का कार्यक्रम सार्वजनिक स्थल पर करने की अनुमति प्रशासन द्वारा नहीं दी जा रही है। फलस्वरूप आयोजकों व प्रशासन के बीच इस बात को लेकर रस्साकशी जारी थी। स्थानीय नेताओं के बीच तनातनी चल रही थी। स्थानीय अखबार ने तीसरे प्रहर को अखबार का एक विशेष संस्करण निकाल कर बाजार में छोड़ा था। कुल आठ पृष्ठ के इस परिशिष्ट में आधे हिस्से में ज्यादातर स्थानीय व्यापारियों के विज्ञापन थे। शेष में कई नेताओं के संदेश व फोटो थे। 'सम्पादकीय' में पिछले अड़तालीस घण्टों के घटनाक्रम पर विस्तार से प्रकाश डाला गया था। अखबार ने लिखा था कि आदमी की संवेदनाएँ इतनी बिखरनी नहीं चाहिए और पुलिस को सख्ती से काम लेना चाहिये। वैसे पुलिस, अखबार का सम्पादकीय छपने से पहले ही काफी सख्ती से काम ले रही थी। विपक्षी दलों के नेताओं, कुछ हिन्दू संगठनों, असामाजिक तत्त्वों की या तो धरपकड़ की गयी थी, नजरबन्दी की गयी थी या उन्हें कड़ी हिदायतें दी गई थीं।

शासन हर सूरत में साम्प्रदायिकता के आगे न झुकने की तत्परता दिखा रहा था। ढूँढ़-ढूँढ़कर, छाँट-छाँटकर मुस्लिम व अन्य गैर हिन्दू अधिकारियों को जगह-जगह ड््यूटी पर तैनात किया जा रहा था। जहाँ भी ज्यादा पुलिस तैनात थी, यह खास ध्यान रखा गया था कि हर समूह में एकाध मुस्लिम, सिख या अन्य अल्पसंख्यक समुदाय का व्यक्ति हो। सरकार अन्य सभी सम्प्रदायों को हिन्दू साम्प्रदायिकता से बचाने को कटिबद्ध थी। अलीपाड़ा की मस्जिद के आसपास के क्षेत्र को पुलिस ने घेरकर अपने कब्जे में ले लिया था। बाजार में भी संवेदनशील क्षेत्रों की चौकसी की पूरी व्यवस्था थी।   

मन्दिरों में बज रहे भजन व आरतियों के रिकॉर्ड या तो पुलिस ने बंद करवा दिये थे अथवा उन्हें धीमा करवा दिया था। मुस्लिम स्थानीय नेताओं को अतिरिक्त सुरक्षा मुहैया करवायी गयी थी।

दूरसंचार द्वारा पुलिस के पास दिल्ली से सूचना आ चुकी थी कि मंत्री महोदय हेलीकॉप्टर से सात किलोमीटर दूर उतरने के बाद सड़क के रास्ते से आने वाले हैं। यह भी सख्त हिदायत दी गयी थी कि उद्घाटन समारोह में किसी भी ऐसे रस्म-रिवाज का पालन न किया जाये, जो किसी सम्प्रदाय विशेष में प्रचलित हो। खबर थी कि मंत्री महोदय के साथ इस जिले से लगते हुए दूसरे संसदीय क्षेत्र के एक सांसद भी विशेष तौर पर लाये जा रहे थे, जो मुस्लिम थे। यह सांसद सत्ताधारी दल में लगभग तीन वर्ष पूर्व शामिल हुए थे और अब काफी लोकप्रियता तथा रुतबे वाले थे।

आखेट महल अतिथिगृह के विशेष कक्ष में होने वाली पार्टी को अत्यन्त सीमित कर दिया गया था। अब मंत्री महोदय के साथ बहुत ही गिने-चुने लोग ही भोजन के लिए आने वाले थे। शेष लोगों के लिए रावसाहब ने अपने बंगले पर विशेष व्यवस्था की थी। बंगले के साथ ही एक विशाल शामियाना लगाया गया था। विदेशी कंंपनी के दोनों कार्यालय, जो इस बंगले से काफी करीब थे, सारे आयोजन में बहुत मदद कर रहे थे।

शंभूसिंह अतिथिगृह में दो बार हो आये थे। वहाँ पर उनकी संक्षिप्त-सी मुलाकात नरेशभान व उसके साथियों से भी हुई थी। उन्होंने वहाँ की सारी व्यवस्था देख ली थी। वह अच्छी तरह से जानते थे कि गौरांबर को नरेशभान के आसपास भी नहीं लगाया जा सकता। यद्यपि काफी समय बीत जाने के कारण गौरांबर इस समय इस प्रकार से हुलिया बदल चुका था कि उसे वहाँ किसी के द्वारा पहचान जाने की कोई आशंका नहीं थी। गौरांबर की दाढ़ी काफी बढ़ चुकी थी। वह आँखों पर काला चश्मा लगाये हुए था। और वह पीले रंग का कुरता और धोती धारण किये हुए था। कन्धे पर दुशाला भी था। वह सन्त जी के शिष्य की भाँति ही दिखायी दे रहा था। उसके साथ वाला दूसरा युवक जींस व कमीज पहने हुए था।

नरेशभान के वहाँ से चले जाने के बाद शंभूसिंह ने गौरांबर और दूसरे युवक को अतिथिगृह में पहुँचवा दिया। नरेशभान के अब वहाँ लौटने की कोई सम्भावना नहीं थी, क्योंकि उसे रावसाहब के बंगले के पास लगे शामियाने में पार्टी का इंतजाम देखना था। गौरांबर को पहुँचाकर शंभूसिंह वहाँ से निकल गये और अपने अन्य साथियों के साथ अस्पताल के अहाते में ही आ गये, जहाँ पर अब लोगों की भीड़-भाड़ बढ़ने लगी थी। वातावरण गरमाता जा रहा था। घोषणाएँ हो रही थीं। तेजी से फिल्मी गीत बज रहे थे, जिनसे वातावरण की सुबह वाली स्तब्धता लगभग समाप्त हो चुकी थी। सुबह के कर्फ्यू या पिछले दिन के दंगों के कोई अवशेष अब कहीं नहीं दिखाई दे रहे थे। मंच को आकर्षक ढंग से सजाया गया था। कड़ा सुरक्षा बन्दोबस्त था। शंभूसिंह रह-रहकर घड़ी देखते थे। उनके चेहरे पर हल्का-सा तनाव निरन्तर बना हुआ था।

आखिर मंच से उद्घोषणा हुई कि मंत्री महोदय हेलीकॉप्टर से उतर चुके हैं और चंद पलों में कार द्वारा समारोह स्थल पर पहुँचने वाले हैं। रावसाहब, कम्पनी के डायरेक्टर तथा एक चीफ इंजीनियर मंत्री महोदय की अगवानी के लिए गये हुए थे। साथ ही विधायक तथा अन्य स्थानीय नेताओं का काफिला भी आखेट महल के पिछवाड़े मुस्तैदी से तैयार था, जहाँ मंत्री महोदय की अगवानी करके स्वागत किया जाना था। अतिथि गृह को पूरी तरह सुरक्षा घेरे में ले लिया गया था।

लोग बैठ चुके थे। मंच पर भी कुछ अति विशिष्ट लोग आसन ग्रहण कर चुके थे।

थोड़ी देर में माइक से उद्घोषणा हुई और आरती की आवाज आने लगी। आरती का संगीत सुनायी दे रहा था, परन्तु उसके शब्द बदलकर स्वागत गान के रूप में ढाल दिये गये थे। स्कूल के दस-बारह बच्चे हाथों में मालाएँ लिए मंच के एक ओर खड़े थे। आहटों के साथ ही लोग कन्धे उचका-उचका कर इधर-उधर देखने लगे। थोड़ी कानाफूसी-सी हुई। कहीं से तालियों का स्वर गूँजा। मुख्य अतिथि मंच पर आ चुके थे। शंभूसिंह का ध्यान रह-रहकर अतिथि गृह की दिशा में जाता था।

अभी मुख्य अतिथि के लिए कंपनी के एक डायरेक्टर का भाषण चल ही रहा था कि पंडाल के एक किनारे की ओर से थोड़ी-सी आहटें व कानाफूसी की-सी आवाजें आने लगीं। पुलिस वालों ने मुस्तैदी से पंडाल के बाहर निकलकर पड़ताल की। मंच पर बैठे लोगों के साथ-साथ सभा में बैठे लोगों का ध्यान भी पंडाल के दाहिने गेट के बाहर अतिथि गृह की ओर जाने वाले रास्ते की ओर चला गया। पुलिस का एक अफसर लोगों को शांत रहने की सलाह फुसफुसाकर देता हुआ उधर बढ़ गया।

वहाँ अतिथि गृह के दरवाजे पर एक औरत खड़ी हुई थी, जो ड््यूटी पर तैनात पुलिस वालों से भीतर जाने देने की विनती-सी कर रही थी। पुलिस वाले उसे रोक रहे थे, परन्तु औरत अच्छे घर की तथा रौबदाब वाली दिख रही थी, इसलिये पुलिस वाले भी उससे भीतर न जाने का अनुरोध ही कर रहे थे। किन्तु वह परेशान व हड़बड़ायी हुई-सी थी और पुलिस वालों को ठेलकर भीतर घुसी जा रही थी। धीमी आवाज में भी आहटें लगातार बढ़ती जा रही थीं।

''मुझे भीतर जाने दो..''

''इजाजत नहीं है माताजी! आप बोलो, काम बताओ, किससे मिलना है।'' पुलिस अफसर ने रोकने की चेष्टा करते हुए पूछा।

''भीतर मेरा लड़का है.. बेटा है मेरा..'' कहती हुई औरत चली गयी। पुलिस वाले उसके पीछे-पीछे उसे रोकने की असफल कोशिश करते हुए बढ़ने लगे।

''ठहरिये माताजी... क्या नाम है उसका। हम उसे बुलाते हैं..'' पुलिस वाले तैश में आते जा रहे थे।

देखते-देखते यहाँ और भी कुछ लोग आ गये। औरत तेजी से भीतर घुसी और अतिथि गृह के बरामदे में तैनात खड़े लोगों की भीड़ से गौरांबर को पकड़कर उसका हाथ खींचती हुई लौटने लगी। गौरांबर हक्का-बक्का होकर देखता रह गया। वह बिना कुछ बोले इधर-उधर देखते हुए रेशम देवी के पीछे-पीछे आने लगा। उन्होंने गौरांबर की कलाई पकड़ रखी थी।

पुलिस वाले हैरत से देख रहे थे।

''अभिमन्यु.. बेटा अभिमन्यु, घर चल। अब तुझे फिर किसी चक्रव्यूह में नहीं फँसना है। धर्म का क्या भरोसा, कब अधर्म में बदल जाता है.. राजनीति तो है ही छिनाल। रोज मोहरें बदलती है। हम तो इन सल्तनतों की प्रजा हैं। तू घर चल बेटा.. तुझे लेने आयी हूँ। हम इन दोनों से दूर रहेंगे।''

रेशम देवी और गौरांबर के निकल जाने के बाद पुलिस के बड़े अफसरों के कान मुस्तैदी से खड़े हो गये, वे सुरक्षा घेरा और कड़ा करने के लिए पसीना बहाने लगे, पर रेशम देवी के माथे का पसीना अब खुली हवा में आकर सूखने लगा था, क्योंकि वह अंधी आग की लपटों से अपने बेटे को बाहर खींच लायी थीं। आखेट महल का कोलाहल काफी पीछे छूट चुका था।  



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