Kishan Dutt Sharma

Abstract Inspirational

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Kishan Dutt Sharma

Abstract Inspirational

अन्तर नहीं, सत्य को देखे

अन्तर नहीं, सत्य को देखे

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"उदारचित्त मनुष्य सभी धर्मों में सत्य को देखते हैं, संकीर्ण मनुष्य केवल अन्तर देखते हैं"

 

 किन्हीं दो विषयों में या विषय वस्तुओं में अन्तर को देखना यह अलग प्रकार की योग्यता होती है। अन्तर को समझने के लिए भी बौद्धिक योग्यता तो चाहिए होती है। इसका भी अपनी जगह महत्व है। यह जीवन व्यवहार में जरूरी भी है। लेकिन इसकी महत्ता इसलिए कम है क्योंकि इसमें केवल बाहरी भौतिक या बौद्धिक दृष्टिकोण से किए हुए मूल्यांकन की ही बात है। जब हम किन्हीं दो या दो से ज्यादा चीजों में अन्तर को देखते हैं या उसकी व्याख्या करते हैं तो तो हमारी दृष्टि भौतिकता और लौकिकता से ऊपर नहीं उठ पाती। अन्तर को देखने वाले अध्यात्म के अध्ययन और अनुभवों से कोसों दूर ही रहते हैं। इसलिए ही अन्तर को देखने, चाहे वह धर्मों में अन्तर देखने की बात हो या किसी अन्य विषय में अन्तर देखने की बात हो, तुलनात्मक दृष्टिकोण से संकीर्ण बुद्धि को योग्यता ही कहा जा सकता है।


  जो भौतिक जगत में घटित होता है या हो रहा है उसके परोक्ष में उसके उदगम और उत्प्रेरित करने वाले अव्यक्त स्रोत को सत्य कहते हैं। सत्य को देखना/अनुभव करना अतीन्द्रिय क्षमताओं से देखने/अनुभव करने की बात है। सत्य को देखने के लिए बौद्धिक योग्यता नहीं, अपितु दिव्य बुद्धि की योग्यता का होना अनिवार्य होता है। दिव्य बुद्धि की क्षमता आध्यात्मिक साधना से बढ़ती है। दिव्य बुद्धि में सत्य को देखने की क्षमता होती है। सत्य संकीर्ण नहीं होता है। सत्य असीम और अव्यक्त होता है। सत्य की विस्तीर्नता असीम है। सत्य को देखने वाले की बुद्धि संकीर्ण नहीं रहती। इसलिए ही अन्तर को देखने और सत्य को देखने में बड़ा भारी अन्तर होता है। इसलिए ही सत्य को देखने की योग्यता अपने आप में बड़ी कीमती बात है।


 विस्तार में सार को देखना। सार में विस्तार को देखना। विस्तार में सार को समझना। सार में विस्तार को समझना। यह दोनों ही प्रकार की विशेषताएं आत्मा की होती हैं। विस्तार में जाने के बाद सार समझ में आ जाए। सार में जाने के बाद विस्तार समझ में आ जाए। जीवन में ये दोनों ही योग्यताएं बहुत जरूरी हैं। जिनके पास ऐसी योग्यता है इसे बौद्धिक योग्यता भी कह सकते हैं और इसे अतीन्द्रिय योग्यता भी कह सकते हैं। लेकिन ये दोनों योग्यताएं अलग हैं और इनमें बहुत अन्तर है। बौद्धिक योग्यताएं लम्बे समय के अध्ययन मनन, चिन्तन और अनुभव से उपलब्ध हो सकती हैं। लेकिन अतीन्द्रिय योग्यताएं लम्बे समय की अध्यात्मिक साधना से उपलब्ध होती हैं। 


 सार अर्थात किसी विषय का मूल तथ्यात्मक तत्व। विस्तार अर्थात किसी विषय की यथा सम्भव बहु आयामी व्याख्या। बहुत लोग ऐसे होते हैं जो किसी विषय का विस्तारपूर्वक अध्ययन और श्रवण तो करते हैं लेकिन उनको उसका सार समझ में नहीं आता है। वे उसके सारांश को नहीं समझ पाते। इसलिए उस विषय के विस्तार अध्ययन श्रवण करने के बाद भी कुछ रुपांतरण घटित नहीं होता। विस्तार के साथ साथ यदि सार समझ में आता है तो ही रूपांतरण घटित होता है। बहुत लोग ऐसे भी होते हैं जिनको विषय का सार यदि समझ में आ भी जाता है लेकिन वे विषय के विस्तार को नहीं समझ पाते। यह अवस्था भी ठीक नहीं है। जीवन व्यवहार की बहुत सी परिस्थितियों में विषय के विस्तार को समझना जरूरी होता है। विस्तार को समझे बिना बात नहीं बनती। विस्तार को नहीं समझने के कारण अनेक प्रकार की अटकलें अनुमान और नासमझियों की जटिलता भी खड़ी हो जाती है। पूर्वाग्रह भी काम करने लगते हैं। बहुत से निर्णय व्यक्ति पूर्वाग्रहों के कारण ले लेता है और अपने जेहन में अल्पग्यता की समझ को अंतिम रूप देकर बैठ जाता है। विस्तार को नहीं समझने के कारण ऐसे लोग "नीम हकीम खतरे जान" की स्थिति में ही रहते हैं। किसी भी विषय का विस्तारपूर्वक ज्ञान ना होने के कारण या तो वे स्वयं का अहित करते है या दूसरों का अहित करते हैं।


  ज्ञान होने का एक आत्यंतिक अर्थ होता है आत्म ज्ञान होना। ज्ञान होने का दूसरा अर्थ होता है कि सार का ज्ञान और विस्तार दोनों का ज्ञान होना। ज्ञान को प्रकाश और अज्ञान को तमस यूं ही नहीं कहा है। जब विस्तार और सार दोनों का ज्ञान होता है तब ही ज्ञान एक प्रकार से "प्रकाश" का रूप बनता है। प्रकाश का स्वरूप बनने का भावार्थ है कि सोचने, समझने, परखने, देखने और निर्णय करने की बौद्धिक क्षमता इतनी हो जाती है कि कोई तमस (संशय/जटिलता) नहीं रह जाती। इस योग्यता में सत्य को देखने की क्षमता होती है। धर्म संप्रदायों में या समाज व्यवस्थाओं में जिसने सत्य को देख लिया वह निर्द्वन्द और जीवन मुक्त की स्थिति का अनुभव करता है। मानो जैसे कि उसने अपनी जीवन यात्रा के अध्यात्म पथ को प्रशस्त कर लिया। मानो जैसे कि उसने मन के आकाश में उन्मुक्त उड़ान भरना शुरू कर दिया। जो मनुष्य केवल अन्तर को देखते हैं वे केवल बुद्धि की संकीर्णता में ही रह जाते हैं। इसलिए जीवन में अन्तर को देखना और सत्य को देखना इन दोनों योग्यताओं का समुचित विकास अनिवार्य है।


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