अन्नपूर्णा या अभिमन्यु ...
अन्नपूर्णा या अभिमन्यु ...


मुझ पर तीन माह चढ़ गए थे। तब, कोरोना के कारण, गाँव तरफ की भगदड़ सी मची थी। यूँ तो हमारे बैंक में इतने जमा थे कि चार पाँच माह, घर बैठ के खा सकते थे। लेकिन पति बोले हम भी गाँव चलते हैं। गाँव, वैसे तो 900 किमी है, चलो हम आराम से चलते हुए, 15-20 दिन में पहुँच जायेंगे। फिर अपना बच्चा होने के बाद ही लौटेंगे।
बिना काम के घर बैठे रहने से, मुझे भी गाँव की याद आने लगी थी। मैं तैयार हो गई। मेरे पति श्याम, आदर्श सोच रखते हैं। बोले- रास्ते में मुफ्त का हम, उनसे लिया खायेंगे, जिनका उद्देश्य परोपकार का दिखेगा।
वैसे तो, सड़कों पर काफिले चले जा रहे थे। मगर मुझे श्याम से बात करते हँसते और इठलाते हुए उन काफिलों से अलग, चलना अच्छा लग रहा था।
पूरे रास्ते, हम श्रमिकों को मिलने वाली मदद का सिलसिला बना हुआ था। जहाँ हमें भूख लगती और परोपकारी देखते वहाँ, श्याम ही भोजन के पैकेट लेने जाते थे।
शहर तरह की जगहों में, श्याम, खाली हाथ लौट आते। मैं पूछती तो-
कभी बताते, पैकेट देने वाले, पार्टी जिंदाबाद के नारे लगाने, कहते थे।
कभी कहते, धर्म की जय कहने, बोल रहे थे।
कभी बताते, उनके क्लब का जयकारा लगाओ, कह रहे थे।
कभी कहते पैकेट्स लेते हुए, फोटो खिंचाने कहते थे।
मैं कहती- सब ले रहे हैं, आप भी ले लेते।
श्याम कहते- हमारा बच्चा है गर्भ में, मतलब से दिया खायेंगे तो वह मतलबी संस्कार लेगा।
मैं, हँसती तो गंभीर हो कहते - हम बच्चे को ऐसा स्वार्थी न बनायेंगे। जो परोपकार भी, शुद्ध परोपकारी भावना से नहीं करता है।
मैं हँसते हुए, प्यार से देखती तो कहते- बच्चा गर्भ से ही संस्कार-शिक्षा ग्रहण करता है, अभिमन्यु की तो तुमने सुनी है, ना?
फिर हम दोनों हँसते।
हमें खाना, प्रायः रास्ते में पड़ने वाले ग्रामीणों के घर से मिलता, जिनके घर 8-10 सदस्यों का खाना बनता और जिन्हें विपत्ति के इस काल में, दो राहगीर को भोजन देने में ख़ुशी होती थी।
ऐसे सरल लोगों से खाना लेकर, हम किसी घने वृक्ष की छाया में, प्रेम से बैठकर खाते थे। खाते हुए श्याम कहते - यह भोजन, शुद्ध प्रेम भाव से बनाया हु
आ और हमें दिया गया है। तुम्हारे उदर में पचते हुए इससे, तुम्हारे शरीर को जो तत्व मिलेंगे उससे, हमारे बच्चे का हृदय और शरीर पुष्ट होगा। इसके परिणाम स्वरूप, बच्चा अपने जीवन में, प्रेम, सौहार्द्र एवं परोपकार के सँस्कार ग्रहण करेगा।
मुझे बहुत अच्छा लगता कि श्याम इतनी अच्छी बातें करते हैं। मेरे पति श्रमिक एवं मैं रेजा का काम करती रही हूँ, लेकिन इसमें भी श्याम खालिस इंसान बने रहे हैं।
मैं, उनसे ठिठोली करती, कहती - यदि बेटा हुआ तो नाम अभिमन्यु रखेंगे। वह हँसते और पूछते कि - बेटी हुई तो?
मैं हँस कर कहती- तो, अन्नपूर्णा!
ऐसे हमारा पैदल सफर, एक तीर्थ यात्रा जैसे हँसी ख़ुशी, दिन दिन कर बीतता जाता था। हम रास्ते में रात, किसी ग्रामीण घर के आँगन या खेत खलिहान के छप्पड़ के नीचे, सो कर गुजारते थे।
यूँ मजे लेते हुए ना चल रहे होते तो शायद हम, 18 दिन में गाँव पहुँचते लेकिन इस सफर को मजेदार बनाते हुए, 22 दिनों में गाँव पहुँचे थे।
गाँव पहुँच कर एक रात, शयनकक्ष में, श्याम ने मुझ से निर्णयात्मक स्वर में कहा - अब हम शहर वापिस नहीं जाएंगे।
मैंने पूछा- क्यों?
तब श्याम ने उत्तर दिया- शहर, हम अपनी उन्नति की आशा में गए थे। तुमने देखा है ना कि, शहर के लोगों में, अपने हर कार्य में, अपने लिए अपेक्षा है। जबकि रास्ते में ग्रामीणों से हमें मिली सहायता में, अच्छाई के सभी अवयव हैं।
मैंने पूछा- अवयव?
श्याम बोले- दया, करुणा, प्यार, सौहार्द्र, सहयोग, त्याग एवं दान की भावना अच्छाई के अवयव हैं। शहरों में लोग इसे खो रहे हैं। हम इसे खोने क्यों शहर जायें?
हम अपनी अच्छाई, यहीं गाँव में बनाये रखेंगे। अपने गाँव को अपनी निहित अच्छाई का, योगदान देंगे।
सुनकर मैंने, उनके सीने पर प्यार से अपना सिर रखा कहा - आप जहाँ रखें, मैं ख़ुशी से वहीं रह लूँगी।
मुझे आपकी अच्छाइयाँ सुख देंगी - शहर का जीवन या ज्यादा धन की मुझे कोई लालसा नहीं।
देश में फिर कोरोना प्रकोप बढ़ा और बाद में कम होने लगा।
और हम और हमारा परिवार, प्रतीक्षा करने लगा कि हमारे घर, अभिमन्यु आते हैं या हमारी अन्नपूर्णा ...