अनजान डगर का एक मुसाफिर
अनजान डगर का एक मुसाफिर
वैसे तो जीवन-पथ की यात्रा ही कभी न पूर्ण होने वाली ऐसी महाकाव्य है जो कभी पूर्णतः पूरित नहीं होती, क्योंकि इस पथ के यात्री को कहाँ तक
जाना है ....कबतक चलना है पता नहीं होता और न ही वह कभी पता कर ही सकता है।
कुछ लोगों का यह मानना है कि मृत्युपर्यन्त इस यात्रा का अन्त हो जाता है, परन्तु हमारी कुछ आवश्यकताएं व अभिलाषाएं निरन्तर
इस यात्रा को गतिमान रखती हैं।सम्भवतः यही कारण है कि हम बार-बार मृत्यु और जीवन के मध्य एक गतिशील
पवनचकी या चक्करघिन्नी की तरह घूमते रहते हैं।
एक जन्म के पश्चात मृत्यु और मृत्यु के पश्चात पुनः जन्म बस इसी यात्रा को हम निरन्तर करते रहते हैं।
पाठकों को मेरा उद्देश्य दर्शनशास्त्र का अध्ययन करना नहीं है, पर विषय विशेष पर लिखने के लिए यह एक अनुपम विधा हो सकती है।
ये कहानी है एक ऐसे इन्सान की जो बस अनवरत यात्रा किया जा रहा था संघर्षरूपी वाहन पर आरूढ़ होकर।
उसका नाम था विलक्ष्य।वह अपनी नाम की भाँति ही बिना लक्ष्य के बस चला जा रहा था। कहाँ जाना है ? कहाँ तक जाना है ? किसलिए जाना है ? इन सारी बातों का कुछ भी ध्यान नहीं था उसे। उसे मात्र इतना ही ज्ञान था कि कहीं तो जाना है, चलते ही जाना है, रूकना नहीं है कहीं। बस निरन्तर चलते जाना है।सम्भवतः मेरी ओर आपकी तरह इन्सान यही समझ पाएंगे कि उसे चलना है और वो चला जा रहा था।पर हम सब में ही कोई न कोई इन्सान या जीव -जन्तु ऐसे भी होंगे सम्भवतः विलक्ष्य मूढ़ है क्योंकि लक्ष्यविहीन यात्रा कैसी ?
जी बिल्कुल ही सही सोच पा रहे हैं वो क्योंकि उन्होंने जीवन में सफलता का स्वाद चखा हुआ है और सफलता
का स्वाद चखने वालों को सफलता कैसे मिलती है इसका अक्षरशः अनुभव होता है। पर सम्भवतः यह यथार्थ ही है कि हमसबमें बहुतों ने इस पथ पर यात्रा तो की है या कर रहे हैं पर वह एक लक्ष्यविहीन यात्रा होती है।
विलक्ष्य ऐसी ही यात्रा पर निकल चुका था। मार्ग में उसके कितनी बाधाएं आई, पर विलक्ष्य रूका ही नहीं बस
चला जा रहा था। कुछ समय पश्चात विलक्ष्य एक नगरी में पहुँच गया।वह जब उस नगरी के प्रमुख द्वार पर पहुँचा तो वहाँ सुन्दर अलंकरण(सजावट)के साथ ऊपर उस नगरी का नाम लिखा था- सलक्ष्य
विलक्ष्य ने जब उस नगरी का नाम पड़ा तो उसे बड़ा आश्चर्य हुआ कि इस नगरी का नाम कैसा है, सलक्ष्य ये कैसा नाम होता है, पहले कभी न सुना कभी, न ही
देखा है, यह सोचते-सोचते वहाँ के राजा के महल के मुख्य द्वार तक पहुँच गया वह।उसने सोचा कि राजा को वह अपनी सहायता करने के लिए कहेगा।परन्तु महल के प्रवेश द्वार पर खड़े राजा के प्रहरियों ने उसका रास्ता रोकते हुए कहा कि, "ठहरो पथिक, तनिक ठहरो तुम्हारा इस नगरी में आने का उद्देश्य क्या है ये तुम बता दो तब तुम्हारा इस नगरी में पूर्णतः स्वागत है, क्योंकि इस नगरी में प्रवेश करने से पहले कुछ नियम हैं तभी तुम अन्दर प्रवेश कर सकते हो, वह सोचने लगा कि ये किस तरह का नियम है वो सोच ही रहा था कि एक प्रहरी ने वहाँ बने बैठक में उसे बैठने का संकेत किया और स्वयं भीतर जाकर उसके लिए कुछ खाने-पीने के लिए लेकर आया और उसे उस बैठक में रखे मेज के सामने रखते हुए, जो उसके सामने ही रखी हुई थी रखते हुए उससे कहा लो पथिक पहले कुछ भोजन कर लो और आराम से सोचकर
बताओ क्योंकि इस नगरी के राजा ने एक और नियम बना रखा है कि कोई भी उनके द्वार पर से भूखा न जाए।
विलक्ष्य ने जब ये बतलाया कि मैं ऐसे ही उनसे मिलना चाहता हूँ, तो पुनः उस प्रहरी ने कहा कि महोदय मैंने कहा था न कि आप बिना किसी उद्देश्य के उनसे नहीं मिल सकते।
उसके बाद वह प्रहरी उसे एक और संकेत करते हुए बोला
कि वो देखो बेटा उन बच्चों को देखो सब समझ जाओगे, विलक्ष्य उधर देखने लगा और उ छोटे बच्चों की बातें सुनने लगा जो आपस में कुछ बात कर रहे थे।
जब विलक्ष्य उनके पास जाकर उनकी बात सुनने लगा तब भी उन लोगों ने उसकी ओर न देखा और आपस में बात करते ही रहे, पर जब विलक्ष्य से न रहा गया तो बीच में स्वयं ही पहल करते हुए उन लोगों से गस प्रकार पूछा कि, "बच्चों आपलोग यह क्या बना रहे थे और क्यों आपस में झगड़ रहे थे, जरा मैं भी तो सुनूँ "।
उन बच्चों में से थोड़ा एक बड़ा बच्चा आकर उससे बोला कि चाचा आप भी सुनो और खुद भी समझो कि क्या मैं सही हूँ कि ये लोग, तभी उनमें से एक और बच्चा विलक्ष्य के पास आकर बोला अरे चाचा!आप बहुत भोले हो कि आपने इसे सही बतला दिया पर पहले पूरी बात तो सुन लो कि हमारे इस झगड़े का कारण क्या है ?
तब बड़ा वाला बच्चा पुनः बोला कि चाचा बात वास्तव में यह है कि हम सब एक नाव बना रहे थे और चाहते थे कि यह पानी में चल सके भले कागज की ही क्यों न हो।
फिर दूसरा बच्चा आकर उससे बोला कि चाचा अब मेरी भी बात सुनो कि, "ये नाव बना रहे हैं अच्छी बात है, परन्तु क्या कोई भी चीज इस दुनिया में जो भी बनाई जाती है इसका कुछ न कुछ उद्देश्य तो होता ही है।
आप ही बताओ चाचा क्या कोई काम बिना उदेश्य के सफल हो सकता है क्या ???
ठीक है ये लोग नाव बना रहे हैं मगर कागज की ही क्यों ? एक उद्देश्य के साथ नाव बनाना शुरू करते कि उनकी
नाव नदी को पार कर पाएगी तो या कोई समस्या होती भला। कितनी सरलता से ये लोग असली नाव बना लेते।
एक उद्देश्य के बिना किया गया कार्य कभी सफल नहीं हो सकता।एक दिशाविहीन मनुष्य कभी भी जीवन में सफल नहीं हो सकता इसलिए यह परमावश्यक है कि जीवन जीने का, कुछ कर गुजरने के जज्बे के साथ कुछ करने का उद्देश्य होना ही चाहिए।
उस बच्चे की बात खत्म भी नहीं हुई थी कि एक और बच्चा उठकर विलक्ष्य से बोला कि चाचा मैंने इसे कहा कि कल की बात कल सोचेंगे, पहले अभी वर्तमान को तो जी लें, कल की बात कल की सोचेंगे और फिर उन बच्चों में झगड़ा शुरू हो गया कि नहीं तुम गलत हो, मैं सही हूँ, तुम दोनों झूठे हो इत्यादि।
विलक्ष्य वहाँ से आगे बढ़ा तो उसे रास्ते में एक किसान और उसकी पत्नी मिली जिनके बीच फसल क्यों लगाई जाए और क्यों न लगाई जाए उस पर जोरदार बहस हो रही थी।उसने जब इसका कारण किसान से पूछा तो उसे पता चल पाया कि, " किसान यह चाह रहा था कि फसल कभी भी लगा ली जाएगी जब मन में होगी तब...और
उसकी पत्नी बोली कि आदरणीय आप ही बताईये कि कुछ करने का उद्देश्य तो होना ही चाहिए।
मान लीजिए कि यदि बाद में फसल लगाई जाएगी तो क्या यह आवश्यक है कि उस समय वर्षा होगी।
फलस्वरूप उद्देश्य विहीन फसल समाप्त हो जाएगी।
मित्रों सम्भवतः हम सब भी विलक्ष्य की तरह ही एक दिशाहीन यात्रा कर रहे थे।
पर शायद इस सलक्ष्य नगरी के उदाहरण से अब हम भी सीख पाएं कि उद्देश्यहीन होकर चलना एक अनजान डगर पर चलना है और हम सब अनजान मुसाफिर हैं।
