अनाथ, लखपति ही ना! ….
अनाथ, लखपति ही ना! ….
दमयंती रोष में कह रही थी - "पीछे चुनाव में तो तुम्हारे ही कहने पर ही पूरे घर ने वोट, मोदी जी को दिया था, ना! "
दयालूप्रसाद ने उत्तर में कहा - "भागवान! इतनो गुस्सा ना कर, वोट तो हमारो बदलतो रहतो है, गाँव में जो हवा रहती वोट तो वैसो, हम करते हैं।"
दमयंती ने कहा - "ठीक है, वोट हम आगे बदल देंगे। अभी आंदोलन को ना जाओ। मेरो जी घबराहत है।"
दयालूप्रसाद बोले - "मैं नहीं जातो। पर राजेश को अकेलो भी ना भेज पाऊँ, घर में बैठके मेरो जी घबराओगो। "
दमयंती ने कहा - "तो राजेश को भी ना जान दो, ना!"
दयालूप्रसाद बोले - "वो (राजेश) कहतो है, आंदोलन में ना जाऊँ तो गाँव में मंडी में अकेलो पड़ जाउंगो। वोट कौन देखत है। वोट फिर मोदी जी को दे देउँ। पर आंदोलन में तो सबको साथ देनो ही पड़े!"
दमयंती ने तब, अपने बेटा-बहू को आवाज देकर बुलाया था। फिर सबको समझाते हुए कहा था -
"मैंने 63 साल की ज़िंदगी देक्खी है। पूरी ज़िंदगी हम रोवत रहे हैं। कभी मंडी में कीमत और तौल सही ना हुई ये कारण, कभी तहसील वाले टैक्स के नाम पर बैल जोड़ी हाँक ले गए ऐई सेऔर कभी साहूकार ने बहुत सूद ले लओ वो कारण से। फिर कभी बिजली वालन ने फसल बिकत ही चौथाई कमाई अकेले बिजली बिल में वसूल लई ये कारण। हमारी हालत बदली तो, बुरी और बुरी होत गई है।
अब कछु अच्छे बदलाव की मोदी जी कहत हैं तो तुम, भरोसा तो रखो जरा। हो सके है ई बार कछु अच्छो बदलाव हो जेये शायद!"
राजेश ने कहा - "माँ, हमके ज्यादा समझ ना पड़े है। वे सही कह रहे के जे सही कह रये। पर एक बात क्लियर है कि सबके साथ ना दिखे तो मंडी और गाँव में हम अकेले हों जेयें।"
अगली सुबह, दमयंती और बहू के चेहरे बुझे हुए थे। तब दयालूप्रसाद ने कहा था - "हम, अच्छे के लाने जा रहे हैं। हमें तिलक लगाएके हँसते भये विदा करो। अभी कछु दिना वोई चेहरे याद में रहें तो उधर आंदोलन में हमको ताकत मिलेगी। वैसे ही, खुले में ठंड और बरसात झेलनी है हम दोनन को वहाँ। "
इस पर दमयंती और बहू ने, मन मारकर अपने अपने चेहरे पर हँसी लाई थी। फिर दमयंती ने दोनों के माथे पर, हल्दी का तिलक ऊपर, चाँवल के दाने लगा दिये थे।
दयालूप्रसाद का देहाती चेहरा, 65 की उम्र में भी, इस तिलक से दमक गया था। राजेश तो दमयंती के हृदय का टुकड़ा और बहू का जीवन संबल था ही। जब दोनों चले गए गये तब दमयंती बहू के गले लग रो पड़ी थी। सास को रोते देख, बहू भी अपनी भावना काबू ना कर सकी थी। वह भी रोने लगी थी। आठ और पाँच साल के दोनों बच्चे भी यह देख रोने लगे थे। पर कोई कर कुछ नहीं सकता था। इस समय सब विवश थे।
फिर आठ दिन दमयंती बहू के साथ किसी तरह घर एवं खेत के काम ठीक रखने की कोशिश करती रही थी। इस समय सिंचाई नहीं हुई तो गेहूँ के उत्पादन पर असर पड़ने का अंदेशा जो था।
नौवे दिन दमयंती दो मजदूर को साथ लेकर खेत पर काम कर रही थी तब, बड़ा पोता दौड़ता आया, बोला - "दादी, मम्मी ने तुमको तुरंत घर बुलाया है। कहा है, खबर अच्छी ना है। "
दमयंती चिंतामग्न घर पहुँची थी। बहू ने बताया - "इनका, मोबाइल कॉल आया है। बोल रहे थे, पिताजी की तबियत ठीक ना है। हम, आधा घंटे में वापिस आ रहे हैं। "
दमयंती जड़वत रह गई थी। समय बीता था। राजेश जब घर आया साथ में कुछ और लोगों का शोर सुनाई पड़ा था। दयालूप्रसाद बीमार नहीं, मृत लौटे थे। बहू और पोते, अपने पापा के साथ रोने लगे थे।
दमयंती की आंखे पथरा गईं थीं। उनमें, आँसू नहीं आये थे। दयालूप्रसाद का चेहरा देख वे, एक ही बात बार बार कह रही थी - "हमसे जाते हुए कह गए थे, हँसता हुआ चेहरा दिखाओ। वह याद रखना है। खुद यह चेहरा लेकर लौटे हो। हमारे लाने, ये कैसे चेहरे की याद छोड़ गए हो।
गाँव की औरतों ने दमयंती को रुलाने के तरह तरह उपाय किये, तब दमयंती रोई तो आँसू थमने के नाम नहीं लेते थे।"
दयालूप्रसाद का सूरज ढलने के पूर्व जल्दबाजी में अंतिम संस्कार कर दिया गया था। उनकी मौत को, 20 घंटे पहले ही हो चुके थे।
दयालूप्रसाद की तेरहवीं के पहले नौवीं सुबह आई थी। दमयंती घर में सब में पहले जाग जाने वाली सदस्य थीं। जब वे खुद से नहीं उठी तो बहू उठाने गई थी। बाद में राजेश के पास चिल्लाते हुए लौटी थी बोली - "सुनो जी, माँ, उठ ही नहीं रही है। "
पचास वर्ष से दमयंती को, दयालूप्रसाद का पल पल का साथ था। उनके ना होने का सदमा दमयंती, सह ना सकी थीं। रात सोये सोये ही उनके प्राण पखेरू उड़ गए थे।
मरघट से, अंतिम संस्कार कर लौटा राजेश, रोते हुए पत्नी से यही रट लगाये कह रहा था - "हम, गाँव और मंडी में अकेले नहीं रहे हैं, मगर घर में अकेले हो गए हैं। "
तब राजेश की पत्नी भी रो रही थी सुबकते हुए कह रही थी -"#किसान #आंदोलन, शायद हमें, लखपति बना दे परन्तु हम रहेंगे तब, #अनाथ, #लखपति ही ना! …. "