chandraprabha kumar

Tragedy

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chandraprabha kumar

Tragedy

अकेलापन

अकेलापन

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 एक बड़ी सी कोठी में आप अकेले ज़िन्दगी काट रहे हैं, इसे अभिशापित जीवन कहें या वरदान कहें। यह नहीं कि इसे आपने चुना है, यह परिस्थिति अपने आप ही आ गई और आपको इसका सामना करना पड़ रहा है। कोई नहीं है जिससे आप अपनी भावनाएँ शेयर कर सकें, या कुछ शिकायत कर सकें, आपको अपने आप ही सब कुछ झेलना है। 

घर बड़ा है, बाग बगीचा खेत सब कुछ है। पति नहीं हैं पर पति की पेंशन है , सन्तान कोई है नहीं। घर में देखभाल के लिए सेवक लगे हैं आराम के सब साधन हैं पर आराम ही नहीं है। एक अकेलापन है। घर का कोई व्यक्ति बातचीत तक के लिए नहीं है। पास पड़ौस क़रीब क़रीब ख़ाली है। क़रीब क़रीब सबके बच्चे विदेश में है। बूढ़े मॉं- बाप कुछ स्वर्ग सिधार गये, कुछ असमर्थ हो गये, जैसे तैसे दिन काट रहे हैं। कोई मिलने जुलने वाला ही नहीं रहा। यह भी एक ज़िन्दगी है। 

रात को सोने वाला चौकीदार आता है , पर समय असमय आता है, रात को देर से आता है, गहरी नींद सोता है और सुबह होने से पहले ही उठकर चला जाता है। केवल नाम की चौकीदारी करता है। बस है और निभ रहा है। कोई कुछ कहनेवाला नहीं है। कभी बिना छुट्टी लिये ग़ायब हो जाता है, ड्यूटी पर नहीं आता, पर कोई कुछ पूछने वाला नहीं है। एक माली है। उसका भी आने का समय नहीं है, कभी सुबह आता है कभी दोपहर बाद और कभी छुट्टी मार जाता है ।खेत में क्या बोना है ,कहॉं पानी पटाना है इससे उसे कोई मतलब नहीं ।अगर पूछो कि- "तुम खेत में कुछ लगा नहीं रहे हो, लॉन की घास बड़ी हो गई है , तुम काटते नहीं हो ? "

 तो उसका जवाब होता है कि -"जब कोई देखने वाला नहीं है,तो मैं क्यों काम करूं ? क्यों समय पर आऊँ?मैं कोई चोरी नहीं करता यही बहुत बड़ी बात है, सारा घर खुला पड़ा है।"

क्या कहा जाये। वह अपनी ईमानदारी की बात कह रहा है। आज के ज़माने में ईमानदार आदमी मिलना भी मुश्किल है।खाना बनाने वाली आती है, वह सुबह को ही दो टाईम का खाना बनाकर रख जाती है, उसे शाम को आने की फ़ुरसत नहीं है। वह खुद भी बिमरिया है, कभी भी छुट्टी ले लेती है। कभी उसे गॉंव जाना होता है ,कभी अस्पताल में दवा लेने जाना होता है। कभी कहीं सत्संग में जाना होता है। आज भी आकर वह तीन- चार दिन की छुट्टी लेकर गई है। क्योंकि उसकी बहिन की लड़की के बच्चे का कर्णछेदन है, उसे वहॉं जाना है। उसके यह चिन्ता नहीं है कि पीछे बीमार मालकिन का काम कैसे चलेगा। 

एक पार्ट -टाईम सेवक आता है, वह सुबह शाम बाज़ार का काम कर देता है। पर ज़्यादातर समय वह भी अपना और काम करता है। थोड़ा बहुत खाना बनाने का काम जानता है तो खाना बनाने वाली के जाने पर उसके हिस्से का थोड़ा काम कर देता है। उसे भी छुट्टी चाहिये। कभी उसके गॉंव के मन्दिर में कुछ स्थापना हुई है, वहॉं जाना ज़रूरी है। कभी अपने और किसी काम से कहीं जाना है। दोपहर बर्तन मलने वाली आती है, वह साइकिल से आती थी। एक दिन साइकिल से गिर गई। चोट आई। अब बीमार है। वह भी बार - बार दवा लाने के लिए छुट्टी लेती है। केवल दोपहर को एक टाईम आती है और बर्तन झाड़ू कर चली जाती है। खाना बनानेवाली के नहीं आने पर दोपहर रोटी बनाकर मालकिन को खिला देती है। जो बीमार हैं और बिस्तरे से उठ नहीं पातीं। 


ये पॉंच सेवक हैं , जिनसे किसी तरह काम चल रहा है या कहिये चलाया जा रहा है।कोई न कोई हमेशा छुट्टी पर रहता है। कभी कभी तो तीन- चार सेवक एक साथ छुट्टी पर चले जाते हैं। बहिन को शाम की चाय भी नहीं मिल पाती। शिकायत करें भी तो किससे ?

जब तक मालकिन ठीक थीं , सारा काम खुद करती थीं, स्वयं ही खाना बनाती, कपड़े धोती और प्रेस करती थी। झाड़- पोंछ कर लेती थीं, पर जब से बिस्तरे पर हैं, लाचार हैं, जैसा काम चल रहा हैं बर्दाश्त कर रही हैं। 

उनकी सेवा के लिये उक्त पॉंच सेवकों के अलावा दो - दो नर्स रखी गईं हैं । बारह -बारह घंटे की ड्यूटी है। एक दिन में रहती है, एक रात में रहती है। एक के आने पर दूसरी को जाना होता है। पर ऐसा होता नहीं। दूसरी के आने से पहिले ही ,पहले वाली चली जाती है। दो-दो घंटे अकेली पड़ी रहती हैं । सब भगवान भरोसे चल रहा है।इन नर्स को भी छुट्टी चाहिये। कभी किसी के दॉंत में दर्द है, तो कभी मुँह में छाले निकल आये हैं, कभी बुखार हो गया है ,कभी घर में कोई आया हुआ है। कभी कोई कोर्स की पढ़ाई कर रही हैं।तो काम के समय पढ़ रही हैं या बुनाई कर रही हैं। घर का कोई व्यक्ति देखने वाला नहीं है, तो सब तरह से स्वतंत्र हैं। मरीज़ की कितनी सेवा कर रही हैं, यह भगवान् ही जानते हैं। अपनी मर्ज़ी से काम करती हैं , नहीं भी करती हैं ।रात वाली सो जाती है तो फिर आवाज़ को भी अनसुना कर देती है ।

कुछ दिन हुए छोटी बहिन मिलने आ गई। उसे देखकर बहिन ने उसे अपने पास कुछ दिन के लिये रोक लिया। बोलीं-" मैं अकेली हूँ, कोई बात करने वाला भी नहीं, चुपचाप पड़ी रहती हूँ। किससे क्या कहूँ।" 

सच में वे एक तरह से अकेली ही पड़ी रहती थीं। महीने में कभी कोई एकाध बार कुछ देर के मिलने आ जाता था , नहीं तो वह भी नहीं ।

छोटी बहिन रूक गई। जाने के टिकट लौटा दिए। अब रूक तो गई। पर बड़ी विषम परिस्थिति थी। सात व्यक्तियों के काम पर आने पर भी कोई काम करने वाला नहीं था। जिस पर निर्भर किया जा सके। सबके अपने- अपने स्वच्छन्द तरीक़े थे, मरीज़ का ही ध्यान ठीक से नहीं रखते थे, तो आने वाले मेहमान का ख्याल क्या रखते। मेहमान उनकी ऑंखें में खटकता था। क्योंकि उसके सामने उनकी स्वेच्छाचारिता प्रकट हो जाती। रसोई और ड्राइंगरूम पर उनका एकाधिकार हो गया था, छोटी बहिन पर यह सब प्रकट हो जाता। 

छोटी बहिन अपना सारा काम खुद करती। किसी से कुछ कहती नहीं थी। अपनी बहिन का भी जहॉं तक हो सकता, काम कर देती। बहिन उसके आने से खुश थीं, उससे उनका मन लग रहा था और काम भी हो जाता था।

पर दोनों नर्स की स्वेच्छाचारिता में बाधा आ रही थी। क्योंकि कोई तो उनकी लापरवाही को देखने वाला था। चाहे उन्हें कुछ कहे नहीं। छोटी बहिन कभी कभी व्हीलचेयर पर बड़ी बहिन को बैठाकर बाहर बरामदे तक ले जाती जिससे वे अपनी लॉन आदि देख सकें, ड्राइंग रूम तक का चक्कर लगा सकें।और उन्हें पता चल सके कि घर में क्या हो रहा है। तब वे बाहर जाकर माली से पौधों में,गमलों आदि में पानी डलवातीं। घास पर मशीन चलवाकर लॉन ठीक करवातीं। और इधर- उधर थोड़ी सफ़ाई करवातीं। लेकिन उनकी नर्सों को यह पसन्द नहीं आ रहा था।

एक दिन एक नर्स ने पूछ ही लिया-" आपकी बहन कब तक जाएंगी ?ये कब तक यहॉं हैं।" बड़ी बहिन ने कहा-" यह तो जाने को कह रही है। मैंने ही रोका हुआ है।"

अकेले बीमार व्यक्ति की लाचारी की सीमा नहीं। कोई घर का आदमी उसकी देखभाल के लिए नहीं। वह अकेला पड़ जाता है। न कहीं आ जा सकता है। न घर पर कोई बात करने वाला ,न कोई दुख-सुख की सुनने वाला। जो कुछ करना है अपने आप ही करना है। आजकल जिनके बच्चे होते हैं, वे भी कहॉं सुखी हैं। बच्चे मॉं बाप को छोड कर विदेश जाकर बस जाते हैं। कुछ बच्चे अपनी अकेली मॉं या बाप को वृद्ध आश्रम में रख आते हैं। इनसे तो जिनके बच्चे नहीं हैं, वह अकेले जीवन यापन अपने हिसाब से कर लेते हैं। और अपनी दशा पर संतोष कर लेते हैं। 

 इस सबको देखते हुए कुछ भी कहना मुश्किल है। दूसरों के सहारे रहने से तो अच्छा यह जीवन ही है जिसमें व्यक्ति स्वाभिमान से अपने बल पर रह तो रहा है, जैसा भी प्रबन्ध हो पा रहा है। भगवान् के भरोसे ही ज़िन्दगी कट जाती है। एक भगवान् का ही सहारा बच रहता है कि वह तो देखने वाला है। वही सारी सृष्टि चला रहा है। 


 


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