ऐतिहासिक पल
ऐतिहासिक पल
जीवन में अनगिनत पल होते हैं। जो अविस्मरणीय बन जाते हैं... उस एक पल की यादें हमें ताउम्र गुदगुदाती हैं या कभी आँसू बनकर आँखों में समा जाती है....
सारे पलों का वर्णन तो मुश्किल है.... सारे पल ही जिये हैं हम ने.. बस कुछ ऐसे पल हैं जिन्हें जीकर अब जीना शुरू किया है...
जिंदगी को छोड़ दिया था कटी पतंग की तरह, या ये कहें कि अपनी हर साँस से मुहँ मोड़ लिया था ये सोचकर कि ये पहली हो या आखिरी। क्या फर्क पड़ता है...
उदासी और आंसुओं के साथ यन्त्रचलित सा जीवन.... चेहरे में इतनी कठोरता की बात करना तो दूर, कोई देखना भी पसन्द नहीं करता था।, यानि करेला और नीम चढ़ा...
इतनी कटुता के साथ जी रहे थे कि लगता था कुछ बोलते रहे होंगे तो वो भी कड़वा सुनाई देता रहा होगा।,
सभी अच्छे और प्यार करने वालों के बीच रहकर भी खुद को पत्थर की तरह बना रखा था।
अपने इर्द-गिर्द एक ऐसा कवच चढ़ा रखा जिसे चाह कर भी कोई भेद नहीं सकता था।,
ऐसी नीरस और रूखी जिंदगी जी रहे थे कि एक दिन वो मिले।, क्या नाम दें उन्हें ?
पारस।
हां, यहि उचित है उनके लिए।
हँसमुख। निर्मल। आईने सा व्यक्तित्व.. पर उसूलों के पक्के..
एक मित्र के यहाँ किसी समारोह में उन्हें देखा.. पता नहीं कैसा चुम्बकीय आकर्षण था... जिसने दोबारा उन्हें देखने पर मजबूर किया...
अब ये हमारी चाहत थी या ख्वाहिश। हमें ऐसा लगा जैसे उन्होंने भी हमें देखा... और उस दिन यूं लगा जैसे हमारे अंदर भी दिल है...
पर समस्या ये कि उनसे मिलें कैसे.... सोचा कि मित्र से मदद ली जा सकती है..
और जानकारी के मुताबिक ये पता चला कि रोज़ शाम वो शारदा वाचनालय में आते हैं करीब आधे घण्टे के लिए... अब चूँकि पढाकु तो हम भी थे। इस से अच्छी जगह हो ही नहीं सकती उनसे मिलने की।
और हम ठीक 6.30 पर लाइब्रेरी पहुंच गए.. वहाँ जाकर नजरें घुमाई, पर वो कहीं नजर नहीं आए।
इंतजार करना और करवाना। ये दोनों बातों से हमें सख्त चिढ़ है, पर यहाँ मामला एकतरफ़ा था।, हम कर रहे थे इंतजार अपने आदत के विपरित..
किताबें तो काफी थीं और पसन्द के अनुरूप भी थी। कोई किताब लेकर बैठते तो भूल जाते की यहाँ क्यों आए हैं.... पर यूं खाली बैठना सही नहीं था, सो गुलज़ार की एक छोटी सी किताब लेकर बैठ गए।,
गुलज़ार साहब की किताब में हिंदी उर्दू दोनों का समावेश होता है।, पर उस दिन अनचाहे तौर पर जिस किताब को हमने उठाया उसमें उर्दू की भरमार थी।,
जो हमारे सिर के उपर से जाती.. पेज पलटते वक्त हो चला...
7 बज गए।, अब हमें हमारी बेवकूफी पर गुस्सा आया कि वक्त क्यों नहीं पूछा हमने अपने मित्र से...
सोचा कल देखेंगे और उठे ही थे कि उनका आगमन हुआ।, धड़कन ने फिर एहसास दिलाया कि दिल है....
उन्होंने सीधा रुख किया किताबों की रैक के तरफ... हम ने उनपर दृष्टि जमाए रखी...
वो वहाँ से हटते इस से पहले ही हम उन तक पहुंचे...
नमस्कार।
अरे। आप..
जी।,
पहले कभी देखा नहीं आपको।,
हम आज ही आए हैं...
दिमाग ने कहा कह दो उन्हीं से मिलने आए हैं... पर स्त्री सुलभ संकोच (जो कि बरसों से सोई थी) ने कहने ना दिया...
उन्होंने एक किताब ली और कहा। चलिए वहां बैठते हैं।,
नहीं। हम काफी पहले से आए थे। अब लौटना होगा।,
ओह।, तो आप किस वक्त आती हैं???
फिर सोचा कि पूछ लें आप कब आते हैं।, पर कह दिया कि वक्त और मूड पर निर्भर है।, लाइब्रेरी बंद होने के पहले कभी भी।
वो मुस्करा उठे।
उफ्फ। ऐसा लगा जैसे कड़कती धूप में अचानक शीतल छांव।,
मैं 6.30 तक आता हूं। आज किसी कारणवश देर हुई...
ओके।,
कल मिलते हैं।
दिल चाह रहा था कि रुक जाएं..... पर वक्त का तकाज़ा था..
उन्हें बाय किया और हम घर आ गए...
खयालों में वो घर कर गए...
दूसरे दिन नियत समय पर हम पहुंचे। उन्हें वहाँ देखकर दिल को बेहद खुशी हुई.... एक बुक लिया और उनके सामने जा बैठे..
लाइब्रेरी में खुसुर-पुसुर करना सही नहीं था।, एक कोरे काग़ज़ पर हम ने अपना नंबर लिखा और दे दिया,....
कुछ देर रूककर लौट आए... अब दोबारा लाइब्रेरी जाने का कोई मतलब नहीं था... दिल को कहीं यकीन हो चला था कि वो फोन करेंगे....
करीब 8 बजे हमारे मोबाइल पर एक नया नंबर शो हुआ उनके नाम के साथ।, धड़कते दिल से हैलो कहा....
और फिर चल पड़ा बातों का अनवरत सिलसिला..... उन्हें जानकर जाना कि खुशी क्या होती है। जिंदगी कितनी अनमोल होती है।, उसका एक एक पल कितना क़ीमती होता है....
उनसे मिलकर जाना कि हम ने इस जिंदगी के अनगिनत पलों को यूं ही बरबाद कर दिया... पर साथ ही ये सलाह की। कोई बात नहीं, जब जागो तब सवेरा।
उनका साथ पाकर हर पल एतिहासिक बनता चला जा रहा है।, आज के छल कपट के दौर में जब इंसान किसी की भावनाओं से खेलने में तक नहीं सोचता।, ऐसे में उनके जैसी शख्सियत के वो इकलौते मालिक हैं..... उनके जैसा कोई हुआ ना होगा...
हमें स्वयं नहीं पता कि उन्हें चाहते हैं या पूजते हैं....
मेरे लिए ऐसा पारस हैं वो.....
छूकर जिन्हें मैं तो कंचन हुई।
